सैन्य तनातनी: जानें, धमकी दे रहे चीन के लिए क्यों मुश्किल है भारत से युद्ध मोल लेना

नई दिल्ली। सिक्किम सेक्टर में भारत और चीन के बीच करीब एक महीने से सैन्य टकराव की स्थिति है। दोनों ही पक्षों की ओर से तीखी बयानबाजियों का सिलसिला भी चल रहा है। जहां चीन भारत को 1962 की याद दिला रहा है वहीं जवाब में भारत याद रहा है कि 2017 का भारत पहले जैसा नहीं है। चीनी विशेषज्ञ युद्ध तक की धमकी दे रहे हैं। दरअसल 1962 के बाद दुनिया बहुत बदल चुकी है। चीन भारत के मुकाबले बड़ी सैन्य ताकत और आर्थिक महाशक्ति है लेकिन आज की तारीख में उसके लिए भी भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ना आसान नहीं है। आइए आपको बताते हैं कि क्यों चीन भारत से युद्ध मोल नहीं ले सकता…

चीन की महत्वाकांक्षा
पिछले कुछ सालों से चीन के राष्ट्रपति शी चिनफइंग ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने देश की छवि को सुधारने के लिए बड़ा प्रॉपेगैंडा चला रहे हैं। चीन नहीं चाहता कि विश्व समुदाय उसे एक दूसरे उत्तर कोरिया के तौर पर देखे जो पहले के मुकाबले काफी बड़ा, समृद्ध और शक्तिशाली है। इस साल जनवरी में दाओस में वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम में दिए अपने पहले भाषण से चिनफिंग ने दुनिया को तब चौंकाया था जब उन्होंने आर्थिक वैश्वीकरण का बचाव करते हुए दुनिया भर में उभर रही संरक्षणवादी प्रवृत्तियों की आलोचना की थी।

ऐसे संकेत हैं कि अमेरिका ग्लोबल लीडर की अपनी भूमिका से पीछे हट रहा है और ऐसे में चीन उसकी जगह लेने को बेताब है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि चीन एक तानाशाह देश और अविश्वसनीय कारोबार साझेदार की अपनी छवि को बदले। यही वजह है कि चीन अब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर खुद को एक जिम्मेदार महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। वन बेल्ट वन रोड (OBOR) प्रॉजेक्ट भी चीन के इसी अभियान का हिस्सा है जिसके जरिए वह खुद को दुनिया के एक ऐसी जिम्मेदार आर्थिक महाशक्ति के तौर पर स्थापित करना चाहता है जो सभी की आर्थिक भलाई चाहता है।

डोकलाम में गतिरोध को लेकर चीन काफी निचले स्तर पर उतरते हुए सीधे-सीधे सिक्किम में अलगाववाद को बढ़ावा देने की धमकी दे रहा है। इससे पहले चीन के विशेषज्ञ युद्ध की धमकी भी दे चुके हैं। लेकिन हकीकत यह है कि अगर चीन ऐसा कुछ भी करता है तो उसकी छवि प्रभावित होगी। इस तरह की धमकियों के चीन को एशिया और अफ्रीका के तमाम छोटे मुल्कों में आर्थिक साझेदारी को लेकर विश्वास जगा पाना मुश्किल होगा।

क्षेत्रीय चुनौतियां
एशिया में चीन के प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश को अक्सर भारत से चुनौती मिलती है। इसका ताजा उदाहरण है रिजनल कॉम्प्रिहेन्सिव इकनॉमिक पार्टनरशिप (RCEP). इसमें ASEAN के 10 सदस्य देशों और ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और न्यू जीलैंड के बीच मुक्त व्यापार का प्रस्ताव दिया गया है। चीन के लिए यह बहुत मायने रखता है क्योंकि इसके दायरे में विश्व व्यापार का करीब 40 प्रतिशत आ जाएगा। RCEP चीन को अपने सामानों के लिए बहु-प्रतीक्षित बाजार मुहैया कराएगा। हालांकि भारत चीन के सस्ते सामानों के लिए अपनी सीमाओं को खोलने से हिचक रहा है। RCEP पर आखिरी समझौता इस साल के आखिर तक हो सकता है, लेकिन हो सकता है कि वह चीन के मनमुताबिक न हो।

विश्व व्यापार में सबसे बड़े खिलाड़ी के तौर पर उभरने की चीन की महत्वाकांक्षा की राह में भारत आड़े आता है, खासकर बात जब एशिया क्षेत्र की हो तब। भारत ने OBOR का बहिष्कार किया, यह इसका ताजा और सबसे सटीक उदाहरण है। भारत के साथ सैन्य संघर्ष एशिया में चीन की प्रभुत्वशाली भूमिका के उसके सपने का निश्चित तौर पर अंत हो जाएगा। चीन अपने उस सपने को सिर्फ तभी हासिल कर सकता है जब वह भारत के साथ सकारात्मक तरीके से पेश आए।

व्यापार पर निर्भरता
साल दर साल भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंध गहरे होते गए हैं। पिछले 15 सालों में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 24 गुना बढ़ चुका है। साल 2000 में जहां दोनों देशों के बीच 2.9 अरब डॉलर का व्यापार होता था वहीं 2016 में यह आंकड़ा बढ़कर 70.8 अरब डॉलर पहुंच गया। चीन भारत के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के सबसे बड़े स्रोत के तौर पर उभरा है। भारत के लिए FDI के सबसे बड़े स्रोत के मामले में चीन 2016 में 17 वें नंबर पर रहा जबकि 2014 में वह 28वें और 2011 में 35वें नंबर पर था।

चीन की कई कंपनियां भारत में अपनी निर्माण इकाइयां स्थापित कर रही हैं। चीन और भारत के बीच द्विपक्षीय व्यापार में भारत को व्यापार घाटा सहना पड़ रहा है न कि चीन को। भारत का व्यापार घाटा 46.56 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है। चीन का भारत को निर्यात उसके कुल निर्यात का सिर्फ 2 प्रतिशत ही है। बावजूद इसके, कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता कि चीन के लिए भारत एक बड़ा बाजार साबित हो सकता है। दोनों देशों के बीच सैन्य संघर्ष से द्विपक्षीय व्यापार पर संकट खड़ा होगा। शायद यही वजह है कि चीन ने नाथुला से होकर मानसरोवर जाने वाले भारतीय तीर्थयात्रियों को तो रोक दिया लेकिन उसी नाथुला से व्यापार पर रोक नहीं लगाई। चीन अगर ट्रेड रूट को रोकता तो भारत की तरफ से भी उसे उसी तरह का जवाब मिल सकता था।

 

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