Opinion – लॉकडाउन के विस्तार से सीमित होगा कोरोना का आकार

उपेन्द्र राय

जब किसी समस्या में आपदा के लक्षण दिखने लगे, तो ऐसी समस्या से बाहर निकलने के लिए विलक्षण तरीके भी जरूरी हो जाते हैं। कोरोना वायरस दुनिया के सामने यही चुनौती पेश कर रहा है। समस्या अब लक्षण नहीं, बल्कि पूरे तौर पर आपदा बन चुकी है, लेकिन वो विलक्षण तरीका अब भी नजरों से दूर है जो हमें कोरोना मुक्त दुनिया का नजारा दिखा सके। यह भी साफ हो चुका है कि जब तक वैक्सीन नहीं आती, तब तक कोरोना से तन कर लड़ाई में नहीं, बल्कि इससे बच कर रहने में ही भलाई है। अब यह काम जनता करे या सरकार, इतना तो साफ है कि फिलहाल एहतियात ही कोरोना के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार है।

दुनिया के एक बड़े हिस्से में यह एहतियात लॉकडाउन की शक्ल में सामने आया है। भारत में भी कोरोना को दूर रखने के लिए हम लॉकडाउन के दौर से गुजर रहे हैं। इसका पहला चक्र पूरा होने जा रहा है और देश एक बार फिर उसी सवाल से रू-ब-रू है, जिसके जवाब में इसे 21 दिन पहले लागू किया गया था। फर्क इतना भर है कि तब यही कोरोना का मुकम्मल जवाब दिख रहा था और अब तीन हफ्ते के अनुभव से हमें यह समझ आ गया है कि इसे माकूल बनाने के लिए इसके अनुकूल माहौल बनाना भी जरूरी है।

माना जा रहा था कि 25 मार्च से लागू हुए लॉकडाउन का असर 5 अप्रैल से दिखाई देने लगेगा। मार्च के आखिरी हफ्ते की शुरुआत तक सब कुछ कंट्रोल में दिख रहा था, लेकिन फिर तबलीगी जमातियों की वजह से संक्रमित मरीजों की संख्या अचानक बढ़ी और हालात बेकाबू होने लगे। इसलिए अब लॉकडाउन का अगला प्लान देश के लिए बड़ा सवाल बन गया है। इसे बढ़ाने को लेकर ज्यादातर राज्य सरकारों का रुख साफ है। केन्द्र भी अब संपूर्ण से आगे बढ़कर सख्त लॉकडाउन के पक्ष में दिख रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह कोरोना संकट को सोशल इमरजेंसी बताया है उससे तो यही संकेत मिलते हैं कि 15 अप्रैल को एक साथ लॉकडाउन खत्म न हो, बल्कि यह कुछ इलाकों में डेढ़ से दो सप्ताह तक और ज्यादा सख्ती से लागू हो जाए।

भविष्य का रोड मैप मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री की 11 अप्रैल को होने वाली बैठक में साफ हो जाएगा। लॉकडाउन की मियाद को लेकर प्रधानमंत्री पहले भी एक बार मुख्यमंत्रियों से बात कर चुके हैं। सियासी बिरादरी में एकजुटता बनाए रखने के लिए वो सर्वदलीय बैठक भी कर चुके हैं। राजनीतिक दलों ने भी अपने-अपने सुझावों के साथ सरकार को इस मामले में फ्री-हैंड दे रखा है।

इस बीच राज्य सरकारों की बेचैनी बता रही है कि जमीन पर हालात सामान्य नहीं हैं। ओडिशा ने केन्द्र के फैसले का इंतजार किए बिना ही लॉकडाउन को अपनी ओर से 30 अप्रैल तक बढ़ा दिया है। संक्रमण रोकने के लिए मुंबई, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ने भी कई इलाकों को सील कर दिया है। यानी इन इलाकों में जरूरी चीजों के लिए भी घर से निकलने की मोहलत खत्म हो गई है। दूध-दवा की दुकानें खुल तो रहीं हैं, लेकिन केवल सप्लाई के लिए, खरीदार के यहां पहुंचने पर साफ मनाही है। जरूरत के सामान की होम डिलिवरी का जिम्मा सरकार ने ही अपने कंधों पर ले लिया है। हालांकि इससे सप्लाई की सुविधा बढ़ी है या समस्या, ये अलग विवाद का विषय है। वैसे सील करने के पीछे की समझ बिल्कुल साफ है – कोई घर की दहलीज नहीं लांघेगा, तो कोरोना का वायरस भी घर में घुसपैठ नहीं कर पाएगा।

अब सील किए गए इलाकों की रोजाना समीक्षा हो रही है, पूरे क्षेत्र को सैनिटाइज किया गया है और एक-एक घर की जांच की जा रही है। इस तरह के मामलों में राज्य ही क्यों, केंद्र को भी भीलवाड़ा मॉडल पर गौर करना चाहिए। राजस्थान के भीलवाड़ा में एक डॉक्टर के संक्रमित होने के बाद वहां तेजी से कोरोना पॉजिटिव मरीजों की संख्या बढ़ी, लेकिन बाद में यह आंकड़ा 27 मरीजों पर ठिठक गया। पॉजिटिव मरीज सामने आते ही भीलवाड़ा में कर्फ्यू लगाकर सीमाएं सील कर दी गईं। जिले के एक-एक शख्स की स्क्रीनिंग की गई। करीब एक हफ्ते में प्रशासन, पुलिस और मेडिकल टीमों के थ्री-टियर सिस्टम ने 15 हजार टीमें बनाकर 18 लाख लोगों के बीच अपनी आमद दी। 17 दिन के कर्फ्यू और तीन दिन के महाकर्फ्यू के बाद जनता ने भी सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल रखा। कोशिश ईमानदार हो तो नतीजा भी शानदार होता है। भीलवाड़ा ने पूरे देश के सामने मिसाल रखी है कि थोड़े दिन की कड़ाई कोरोना से लड़ाई में कितना बड़ा फर्क पैदा कर सकती है।

यह बात इसलिए भी खास है क्योंकि देश के ज्यादातर इलाकों में हालात इससे उलट हैं। लॉकडाउन के बीच मेडिकल और पुलिस टीमों पर कहीं पत्थरबाजी हो रही है, तो कहीं फायरिंग। कुछ एक जगह पर तो पुलिस पर ही स्वास्थ्यकर्मियों से बदसलूकी के आरोप हैं। मरकज से निकले जमातियों ने अलग बखेड़ा खड़ा कर रखा है। बीमारों और जरूरतमंदों की व्यवस्था करने की जगह सरकारी मशीनरी को भगोड़े बन रहे जमातियों की तलाश में ही अपनी ताकत जाया करनी पड़ रही है।

सोशल डिस्टेंसिंग को लेकर कई जगहों पर आम जनता भी ज्यादा सीरियस नहीं दिख रही। इसकी धज्जियां उड़ने की तस्वीरें हम कम-से-कम तीन मौकों पर देख चुके हैं। जनता कर्फ्यू के दौरान वॉर वॉरियर्स का आभार जताने के दौरान, फिर लॉकडाउन के ऐलान के बाद बड़े पैमाने पर हुए पलायन और कुछ दिनों पहले प्रकाश पर्व के दौरान हुई आतिशबाजी के दौरान। जन-धन और पीडीएस जैसी सरकारी सुविधाओं के लिए लगने वाली भीड़ भले ही मजबूरी का सबब हो, लेकिन ऐसा रवैया समाज के लिए खतरनाक भी हो सकता है। उत्तर प्रदेश में सीलिंग की खबर लगते ही लोग सरकार की अपील को ताक पर रखकर जरूरी सामान की खरीदारी के लिए सड़कों पर उतर आए थे। सोचिए जब संपूर्ण लॉकडाउन के बावजूद लापरवाहियां बरती जा रही हैं, तो लॉकडाउन हटने के बाद हालात क्या होंगे?

बेशक लॉकडाउन का विस्तार अर्थव्यवस्था के आकार को और सीमित करेगा। जिस तरह आजकल रोजमर्रा की सुविधाएं आवाम से दूर हैं, उसी तरह खेत किसान से और रोजगार नौजवान से दूर होंगे। अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए सरकार ने हाल ही में कॉरपोरेट सेक्टर को जो बूस्टर डोज दिया था, उसका असर भी सीमित हो जाएगा। उद्योग जगत की ओर से सरकार को कुछ शर्तों और प्रतिबंध के तहत उत्पादन जारी रखने का प्रस्ताव भी दिया गया है। हालांकि फिलहाल तो लगता है कि सरकार जान है तो जहान है की थ्योरी को ही तवज्जो दे रही है।

वैसे लॉकडाउन खत्म होने में अभी चार दिन बचे हैं। इन्हीं चार दिनों में पता चलेगा कि आने वाले दिन कैसे होंगे? वक्त भले ही कम है पर बहुत अहम है क्योंकि इसी आधार पर आगे की रणनीति तय होगी। हमें यह भी समझना होगा कि महामारी के खिलाफ अकेले लॉकडाउन ही हमारा कवच नहीं होगा। इसके लिए जरूरी होगा कि सरकार संकल्प के साथ इसे लागू करवाए और जनता भी लक्ष्मण रेखा में रहने का संयम दिखाए।

(चर्चित वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
 

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