अकेला रहना पसंद करते हैं तो एक नजर यहाँ भी डाल ले

भीड़, फिर भी अकेली. परिवार, फिर भी अकेली. मित्र, फिर भी अकेली. सहेलियां, फिर भी अकेली.आखिर क्यों इतनी अकेली होती जा रही है जिंदगी कि अकेलेपन से निपटने के लिए मंत्रालय की आवश्यकता पड़ रही है- ‘लोनलीनेस मिनिस्ट्री’. ये नए दौर की संसार है, जहां न आपको फुर्सत है  न आपके पड़ोसी को. नतीजा आपके सामने है.
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केस-1 : 45 वर्षीय मेहुल. पेशे से साइंसटिस. सरकारी महकमे में उच्च पद पर कार्यरत. लाखों का सालना पैकेज. मैरिटल स्टेटस है सिंगल. कुछ दिनों पहले मेहुल से मेट्रो में मुलाकात हुई. बातों-ही-बातों में उसका भावुक होना, इशारा दे गया कि वह भीतर से निर्बल है. वार्तालाप को गति देने पर उसने बताया कि सामाजिक स्तर को बरकरार रखने हेतु पर्याप्त पैसा है, लेकिन हंसने-हंसाने  कोलाहल के लिए कोई साथी नहीं. पैसा  रुतबा के बावजूद नितांत अकेली है मेहुल.

केस- 2 : 27 वर्षीया प्रिया. नामचीन ऐड एजंसी में कंटेट राइटर. मैरिटल स्टेटस है तलाकशुदा. हाल ही में कार्य के सिलसिले जब प्रिया में मिली, तो मुझे आश्चर्य हुआ कि हर पल खुश रहने वाली सकारात्मक तरंगे बिखेरने वाली प्रिया इतने दिनों बाद भी मुझसे बहुत ज्यादा ठंडे तरीके से मिली.वर्षों की दोस्ती कुछ बिखरी-बिखरी लगी. वार्ता में प्रिया ने बताया कि वह अब कुछ छिटपुट लोगों के ही संपर्क में है.

काले स्याह ज़िंदगी का चुनाव
सामान्य ज़िंदगी में आपको उपरोक्त दोनों केस के कई उदाहरण मिल जाएंगे. पहले पहल ऐसे संवेदनाशून्य लोगों को अकेला शख्स कहकर दयनीय होकर हम बेचारा कहते हैं. दोनों स्थितियां आपके साथ भी जुड़ सकती हैं. ऐसे में स्वयं की जुबां को संभालिए  दूसरों को रोशनी की राह दिखाइए.

बात करते हैं मेहुल  प्रिया की मानसिक स्थिति की. मेहुल बेचारी नहीं है. उसके दशा ने उसे एकाकी बना दिया है. वहीं प्रिया का सबसे अलगाव हो गया. ऐसे में वह लोगों के बीच नहीं रहना चाहती. हंसती है, बोलती है, रूठती है, मदद भी करती है, लेकिन अपने सीमित लोगों के साथ ही. दोनों की परिस्थितियों में बारीक असमानता है. यह है भौतिक  आत्मिक स्थिति. आम भाषा में कहें, तो प्रिया अकेलेपन  प्रिया अलगाव का ज़िंदगी व्यतीत कर रही है. यानी अकेलेपन  एकाकीपन.

ज़िंदगी काला स्याह हो या स्लेटी. इसका चुनाव अकेलेपन  एकाकीपन से जूझ रहा आदमी ही करता है. लोनलीनेस यानी अकेलेपन से जूझ रहे लोग बुझी जिंदगी का चुनाव स्वयं नहीं करते. जिंदगी में लगातार मिलती हताशा, उन्हें सिर्फ अपने में ही मशगूल कर देती है. या यूं कहें कि दूसरों के लिए वह भावना शून्य हो जाता है  अपने लिए भावनाएं कार्य की गहराइयों  दिन-रात तक ही सिमट जाती है.

एक मायने में अकेलेपन से जूझ रहे आदमी में हंसने, बोलने, भूख, प्यास सब काफूर हो जाते हैं.जिंदगी काली स्याही हो जाती है. कभी-कभार बेमानी जिंदगी से कोफ्त होती है, लेकिन परिस्थितियां अनुकूल न होता देख, वे अपने में ही डूब जाते हैं. वहीं दूसरी ओर एकाकीपन से ग्रसित आदमी सीमित लोगों के बीच ही रहना पसंद करता है. या यूं कहें कि ऐसे ज़िंदगी का चुनाव वह स्वयं करता है. सबसे हंसना, बोलना उसे नागवार लगता है. कारण ज़िंदगी के प्रतिकूल दशा या घमंड.

चाहे आदमी अकेला हो या एकाकी. दोनों का ज़िंदगी ही काला स्याह है. परिस्थितियां भिन्न, लेकिन पसंद अकेला रहना ही. कितना अजीब है. हम टेक्नोलॉजी का दम भरते हैं. लोगों से जुड़े रहते हैं आभासी संसार से, परंतु अकेलापन ज्यों-का-त्यों रहता है.

माना कि तकनीक लोगों को एक-दूसरे से जोड़ रही है, पर तकनीकी वार्तालाप असल खुशी देने में शून्य है. यह संपर्क का माध्यम बढ़िया है, लेकिन दिलों की गइराइयों में डूबने का माध्यम नहीं. मैं आप मोबाइल में नजरें झुकाए, अपने-पराए रिश्तों को जोड़े रखते हैं, लेकिन सच के रिश्तों में नजरे फिराए रखते हैं. अपने आसपास ऐसे व्यक्तियों को खोजना, उन्हें खुशी, रंग, हौसला, संबल देना हमारा फर्ज है.

 

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