कैराना और नूरपुर की जीत ने विपक्ष की उम्मीदों को लगाये पंख, भाजपा के लिए 2०19 आसान नहीं

 गोरखपुर, फूूलपुर के बाद कैराना और नूरपुर की हार बता रही योगी राज में सब ठीक नहीं

राजेश श्रीवास्तव

उपचुनावों के परिणामों की गणित ने केंद्र व प्रदेश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की पेशानी पर बल डाल दिया है। पूरे देश में उपचुनावों में भाजपा को करारी हार मिली है। लेकिन यूपी की गोरखपुर, फूलपुर में पिछले दिनों मिली हार के बाद अब कैराना और नूरपुर की हार ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की रणनीति पर क्षमता पर भी सवाल उठा दिया है। अकेले योगी ही नहीं बल्कि मोदी-शाह की जोड़ी पर भी सवाल उठने लगा है कि अगर यही हाल रहा तो 2०19 में भाजपा के लिए यही गणित कितना मुफीद रहेगा।

दरअसल उत्तर प्रदेश में कैराना संसदीय और नूरपुर विधानसभा के नतीजे साफ बता रहे हैं कि भाजपा के मुक़ाबले एकजुट विपक्ष निर्णायक जीत दर्ज करा चुका है। कैराना में भाजपा के सांसद रहे हुकुम सिह के निधन से ख़ाली हुई सीट पर उनकी बेटी मृगांका सिह राष्ट्रीय लोकदल की बेगम तबस्सुम हसन से अच्छे फासले से हारी हैं। तबस्सुम को समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी का भी परोक्ष समर्थन था। उनके पक्ष में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित उभार के रूप में सामने आई भीम आर्मी भी खुलकर मैदान में थी। जेल में बंद भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद रावण की हाथ की लिखी चिट्ठी बाँटी गई जिसमें एकजुट विपक्ष के उम्मीदवार को समर्थन देने की अपील की गई थी। दूसरी तरफ, नूरपुर विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में कांग्रेस, बसपा और राष्ट्रीय लोकदल समर्थित समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार नईम-उल-हसन भी जीते हैं।

गोरखपुर और फूलपुर के संसदीय उप-चुनावों में हारने के बाद, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना संसदीय और नूरपुर विधानसभा क्षेत्र के उप-चुनाव न सिर्फ बीजेपी और इसके मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गए थे। ये प्रतिष्ठा का प्रश्न विपक्ष के लिए भी था क्योंकि अगर सब मिलकर भी बीजेपी को न हरा पाए तो 2०19 के लिए उनके सामने क्या उम्मीद बचेगी? उत्तर प्रदेश में विपक्ष की एकजुटता को और अधिक व्यापक बनाने की गरज से चौधरी अजित सिह के राष्ट्रीय लोकदल की उम्मीदवार तबस्सुम हसन को विपक्ष का साझा उम्मीदवार बनाया गया था।

कांग्रेस ने भी शुरुआती टालमटोल के बाद उन्हें समर्थन दे दिया था। इसी तरह से नूरपुर में सपा के उम्मीदवार नईमुल हसन को बाक़ी दलों ने समर्थन दिया था। सपा के लोगों ने भी इसमें उनकी भरपूर मदद करके चरण सिह के ज़माने में कारगर रहे जाट-मुस्लिम-यादव समीकरण को एक बार फिर से कारगर बनाने की गरज से पूरी ताकत लगा दी थी। शुरुआत में कुछ संशय बनाने के बाद मतदान के दो दिन बाद मायावती ने अपने नेताओं-कोआर्डिनेटरों को राष्ट्रीय लोक दल और सपा के उम्मीदवारों के समर्थन का स्पष्ट संदेश दे दिया था. नतीजे बताते हैं कि विपक्ष की यह रणनीति कारगर रही। लेकिन इस सबसे बड़ी तैयारी तो भाजपा की थी। गोरखपुर और फूलपुर में अपनी हार के लिए अति-आत्मविश्वास को ज़िम्मेदार बताकर ग़म गलत करने वाली भाजपा ने कैराना और नूरपुर को जीतने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी।

गोरखपुर-फूलपुर के बाद अब कैराना और नूरपुर के उप-चुनावों में एकजुट विपक्ष की भारी जीत दिखाती है कि 2०14 के लोकसभा चुनाव में 8० में से 73 सीटें जीतने वाली पार्टी ये कमाल दोहरा नहीं पाएगी। केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों, उनके जुमला साबित हो रहे चुनावी वादों का हिसाब मतदाता चुकता करने के मूड में दिखने लगा है। गन्ना किसानों की बेबसी, दलित उत्पीड़न और बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के शिकार लोग, एकजुट विपक्ष के पीछे गोलबंद होते दिख रहे हैं। इन उप-चुनावों के नतीजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके विकल्प के रूप में भाजपा के दूसरे पोस्टर ब्वाय के रूप में उभर रहे या उभारे जा रहे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के राजनीतिक भविष्य के लिए खतरे के संकेत साबित हो सकते हैं।

सवा साल पहले भारी जीत के बाद सत्तारूढ़ हुए आदित्यनाथ के रहते उनकी अपनी संसदीय सीट गोरखपुर और उप-मुख्यमंत्री केशव मौर्य की फूलपुर सीट पर पराजय के बाद, कैराना और नूरपुर की सीटें भाजपा के हाथ से निकल जाने के बाद साफ़ हो गया है कि उनके राज में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा योगी और मोदी ने भी झोंकी थी ताकत आदित्यनाथ कैबिनेट के आधे से अधिक मंत्री, सांसद, विधायक, भाजपा के केंद्रीय नेता वहां लगातार डेरा डाले रहे। यहां तक कि मतदान से एक दिन पहले आधे अधूरे एक्सप्रेसवे के उद्घाटन के नाम पर रोड शो करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कैराना से सटे बागपत में बड़ी रैली को संबोधित किया था। मतदाताओं को लुभाने की हर संभव कोशिशें की गई थीं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जिन्ना की तस्वीर का मामला ज़ोर-शोर से उठाकर भी हिदू बनाम मुसलमान वाला माहौल नहीं बन सका।

हिदू एकता की कोशिश के तहत बीजेपी ने गूजर, लोध, राजपूत, सैनी और कश्यप जैसी जातियों के वोटरों को अपनी तरफ़ खींचा, लेकिन जाट-जाटव (दलित) भाजपा से दूर रहे, सपा के यादव वोटरों के टूटने का तो सवाल ही नहीं था। नहीं गया विपक्ष का कोई बड़ा नेता कैराना और नूरपुर दोनों जगह विपक्ष ने संयुक्त उम्मीदवार खड़ा जरूर किया था। पर विपक्ष का कोई भी दल का अध्यक्ष या बड़ा नेता प्रचार करने वहां की धरती पर नहीं गया। अखिलेश और मायावती के अलावा राहुल गांधी ने भी कोई जनसभा या रैली नहीं की। कैराना में केवल जयंती चौधरी ही अपनी पार्टी के प्रत्याशी के लिए गली-मोहल्लों की खाक छानते रहे। लेकिन सपा-बसपा ने अपनी क्ष्ोत्रीय कार्यकर्ताओं की पूरी फौज उतारी थी। जो भाजपा के हाईटेक प्रचार के बजाय गली-मोहल्लों में घर-घर जाकर चाय पीते रहे और प्रचार करते रहे।

 

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