क्या 2019 में कांग्रेस-बीजेपी दोनों का एजेंडा हिंदुत्व होगा ?
किंशुक प्रवाल
कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने बीजेपी पर एक बड़ा आरोप लगाया है. उनका कहना है कि बीजेपी ने कांग्रेस को मुस्लिम पार्टी कह कर प्रचारित किया. उनका आरोप है कि बीजेपी ने कांग्रेस पर मुस्लिम परस्त होने का ठप्पा लगाया है. आखिर कांग्रेस को ये सफाई क्यों देनी पड़ रही है कि वो किसी खास वर्ग की पार्टी नहीं है? क्या गुजरात चुनाव के बाद अब कांग्रेस सॉफ्ट-हिंदुत्व के एजेंडे पर ही आगे बढ़ने का मन बना चुकी है?
ये सवाल इसलिए भी उठा क्योंकि गुजरात के विधानसभा चुनाव में प्रचार के वक्त कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मंदिर परिक्रमा में ज्यादा दिखाई दिए. उनकी ‘जनेऊ-धारण’ वाली तस्वीर को बहुत प्रचारित किया. राहुल की मंदिर परिक्रमा को कांग्रेस के ‘धर्मांतरण’ और ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ से जोड़ा गया. ये आरोप लगे कि सारी परिक्रमा हिंदू देवी-देवताओं के आशीर्वाद के लिए नहीं बल्कि गुजरात में नाराज हिंदू वोटरों को मनाने की कवायद थी.
दरअसल दस साल पहले गुजरात में सोनिया गांधी के एक बयान की कांग्रेस को ऐसी कीमत चुकानी पड़ी कि वो फिर सत्ता में वापसी नहीं कर सकी. अमरैली की एक रैली में सोनिया गांधी ने गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा था. उनके इस बयान से उपजा हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण मोदी के लिए वरदान साबित हुआ. तब से ऐसा माना जाता है कि गुजरात में आम जनमानस में कांग्रेस के प्रति हिंदुत्व विरोधी पार्टी होने का टैग चस्पा हो गया.
लेकिन अब सोनिया गांधी का कहना है कि राहुल का मंदिर दर्शन कोई नई बात नहीं है. वो खुद भी हमेशा से ही मंदिरों में दर्शन करती आई हैं. हालांकि उन्होंने इसके प्रचार भी कभी जरूरत नहीं पड़ी. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्यों सोनिया को ये कहना पड़ गया कि बीजेपी ने कांग्रेस को मुस्लिम पार्टी कह कर प्रचारित किया जो कि सच नहीं है? उनके इस बयान के कई मायने हो सकते हैं. क्या कांग्रेस अब मुस्लिम वोटबैंक के इतिहास से छुटकारा चाहती है? क्या कांग्रेस को मुस्लिम ठप्पा लगने से खतरा महसूस होने लगा है?
लोकतंत्र में आस्था का मूल्य है. आस्था दिखाने के लिए राजनीति में प्रदर्शन की जरूरत है. उसी होड़ में अगर मोदी गुजरात के दूसरे मंदिरों में सिर झुका रहे थे तो राहुल भी किसी न किसी मंदिर में सजदा कर रहे थे. उसी दौर में सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर मुद्दे पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और वकील कपिल सिब्बल भी एक खास वर्ग के लिए आस्था दिखा रहे थे. वो कोर्ट में ये अपील कर रहे थे कि ‘राम लला’ पर फैसला आम चुनाव के बाद दिया जाए. ऐसे में कांग्रेस अपने ही विरोधाभास को कैसे सही साबित करेगा?
इससे पहले कपिल सिब्बल ने पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के शासनकाल में रामेश्वरम के सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट के मुद्दे पर कोर्ट में कहा था कि देश में राम नाम के किसी अवतार का जन्म ही नहीं हुआ और राम एक कपोल कल्पना है. उस वक्त के ये बयान अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए ही दिए गए थे. लेकिन तमाम हिंदू संगठनों ने राम सेतु तोड़ने के विरोध में देश में कांग्रेस के खिलाफ हिंदुओं को जोड़ने का काम कर डाला.
सत्ता में हाशिए पर आने के बाद अब क्या ये माना जाए कि कांग्रेस को मुस्लिम वोटरों से ज्यादा हिंदू वोटरों का भय सताने लगा है? क्या इसकी एक वजह ए के एंटनी की उस रिपोर्ट को माना जा सकता है जिसने लोकसभा चुनाव में हार के लिए कांग्रेस की हिंदुओं से दूरी को जिम्मेदार ठहराया था? क्या इसकी बड़ी वजह ये है कि असम, यूपी और त्रिपुरा के चुनावी नतीजों को देखने के बाद कांग्रेस मुस्लिम वोटरों की प्रासंगिकता को अब खत्म होता मान रही है?
कांग्रेस के लिए अपने अतीत को मिटा कर नए सिरे से परिभाषित करना इतना आसान नहीं है. जिस तरह सोनिया ये संकेत देना चाह रही हैं कि बीजेपी ने हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए जानबूझकर कांग्रेस को मुस्लिम पार्टी बता कर दुष्प्रचारित किया है. वो कांग्रेस के सियासी इतिहास से मेल नहीं खाता है. कांग्रेस के सेकुलरिज्म के एजेंडे में तुष्टीकरण के आरोप लगने की कई वजहें प्रत्यक्ष रूप से सामने दिखी हैं. यूपीए सरकार के वक्त तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुस्लिम आबादी का है.
उनसे पहले कांग्रेस नेता पी चिदंबरम और तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने देश के लिए हिंदू आतंकवाद को खतरा बताया था. सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के हिंदू विरोधी बयान ही बीजेपी को मौका देने का काम करते रहे. जिससे हिंदुत्व के रथ पर सवार बीजेपी के लिए कांग्रेस को मुस्लिम परस्त साबित करना आसान होता चला गया. इसी वजह से कांग्रेस लगातार हिंदू जनाधार भी गंवाती चली गई.
हालांकि कांग्रेस को मुस्लिम परस्त होने का राजनीतिक लाभ भी भरपूर मिला है. दलित और मुस्लिम ही कांग्रेस के कोर वोटर रहे हैं. लेकिन अब कांग्रेस सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय की हितैषी पार्टी की छवि से बाहर आना चाहती है. साथ ही वो अल्पसंख्यक वोटरों को अपने से दूर भी नहीं जाने देना चाहती है. इसकी ताजा मिसाल सिंगापुर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के बयान में देखी जा सकती है. सिंगापुर में राहुल ने कहा कि भारत में डर का माहौल है. आखिर ये डर का माहौल किस वजह से है? ये डर का माहौल किसके लिए है?
दरअसल अल्पसंख्यक समुदाय के भीतर भय दिखाकर राजनीति करने की कांग्रेस की पुरानी रणनीति रही है. जब एनडीए ने नरेंद्र मोदी को पीएम उम्मीदवार के तौर पर पेश किया तब पूर्व पीएम मनमोहन सिंह ने ही कहा था कि मोदी का पीएम बनना देश के लिए विनाशकारी साबित होगा. मनमोहन सिंह ने मोदी के नाम के भय का सियासी ब्रम्हास्त्र के रूप में इस्तेमाल किया था. लेकिन ‘मोदी लहर’ में ‘अज्ञानी’ और ‘भयभीत’ वोटर भी कांग्रेस की मूल भावना में बहने के लिए तैयार नहीं हुआ.
मोदी सरकार के चार साल हो चुके हैं. देश में हालात उस असहिष्णुता के अबतक नहीं बन सके जिसके लिए अवार्ड वापसी का सिलसिला चला था. इसके बावजूद एक डर दिखाकर वोटबैंक को छिटकने से रोकने की कोशिशें जारी हैं क्योंकि तुष्टीकरण की राजनीति में मुलायम-लालू और ममता बनर्जी जैसे नाम भी सिरमौर बन चुके हैं. इन चेहरों की क्षेत्रीय पार्टियों ने कांग्रेस के वोटबैंक हड़पने का ही काम किया है क्योंकि इन्हें फॉर्मूला भी कांग्रेस से ही मिला.
जब राहुल भी चिदंबरम और शिंदे की तरह ही एक दफे कह चुके हैं कि देश को मुस्लिम आबादी से नहीं बल्कि हिंदू आबादी से खतरा है. ऐसे में आज फिर क्यों हिंदुत्व के मुद्दे पर कांग्रेस उदार चेहरा दिखाना चाहती है?
दरअसल इस ‘धर्मांतरण’ की बड़ी वजह पीएम मोदी ही हैं. कांग्रेस को ये डर है कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी इस बार हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के बूते फिर से सरकार न बना लें.
वैसे भी सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर का मुद्दा विचाराधीन है और इस साल उसका फैसला संभावित है. ये फैसला किसी न किसी रूप में लोकसभा चुनाव को प्रभावित जरूर कर सकता है. ऐसे में कांग्रेस सिर्फ एक खास वोटबैंक के बूते चुनाव मैदान में नहीं उतरना चाहती है. तभी सोनिया गांधी जहां 13 मार्च को सभी विपक्षी दलों को डिनर पर बुलाकर एक सेकुलर फ्रंट बनाने की तैयारी कर रही हैं तो साथ ही वो हिंदुत्व से दूरी बनाकर राजनीतिक नुकसान भी अब और नहीं उठाना चाहती है. तभी वो मुस्लिम पार्टी होने के ठप्पे को हटाना चाहती है. इसे आज के दौर की सियासत का बदलाव माना जा सकता है.
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