तीन संभावनाएं जो प्रणब मुखर्जी के नागपुर जाने से जुड़ती हैं

नीलेश द्विवेदी

एक वक़्त था जब प्रणब मुखर्जी को देश के प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे मज़बूत दावेदारों में गिना जाता था. हिंदीभाषी भले न थे पर राजनीतिभाषी ऐसे कि कांग्रेस के संकटमोचक माने जाते थे. साथ ही मृदुभाषी इतने कि जून 2012 में जब उनका नाम राष्ट्रपति चुनाव के लिए आगे किया गया तो शिव सेना और जेडीयू (जनता दल-यूनाइटेड) जैसे विपक्षी दलों ने भी आगे बढ़कर उनका समर्थन किया.फिर जुलाई-2012 प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री पद से आगे निकलते हुए राष्ट्रपति बन गए. संविधान की गरिमा उनके इर्द-ग़िर्द आ गई ओर राजनीति दूर हो गई.

लेकिन आज ये सब बातें पीछे छूट गई लगती हैं. राजनीति फिर प्रणब मुखर्जी के नज़दीक आ गई दिखती है. इसकी वज़ह यह है कि वे आज आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के प्रशिक्षण वर्ग के समापन कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे हैं. नागपुर में होने वाले इस कार्यक्रम में लिए प्रणब मुखर्जी को बुलाने की पहल आरएसएस की तरफ से हुई थी और इस न्यौते को उन्होंने इस सहजता से स्वीकार कर लिया कि बाकी सब असहज हो गए. असहज होने की वज़ह यह है कि जहां से प्रणब आते हैं और जहां जा रहे हैं उन दो छोरों के बीच ज़मीन-आसमान का वैचारिक फ़र्क़ है.

यही वजह है कि कांग्रेस के खेमे में इसे लेकर बेचैनी है. इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कांग्रेस की वरिष्ठ नेता और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का कहना था, ‘मैं यह सुनकर अचरज में हूं कि प्रणबदा आरएसएस के कार्यक्रम में जा रहे हैं. वह आरएसएस जो वैचारिक रूप से भारतीय जनता पार्टी की मातृ संस्था है.’ कांग्रेस की एक दूसरी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा ने कहा, ‘मेरे जैसे कई नेताओं ने कांग्रेस और आरएसएस के बीच के वैचारिक भेद को प्रणब दा जैसे वरिष्ठों से ही सीखा-समझा है. इसीलिए मैं मानती हूं कि उन्होंने यह फ़ैसला किया है तो उसका अपना कारण ज़रूर होगा.’ कई नेताओं ने तो पत्र लिखकर उनसे आग्रह कर दिया वे इस कार्यक्रम में न जाएं. उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी का कहना था कि लोग पूर्व राष्ट्रपति के भाषण को तो भूल जाएंगे, लेकिन आरएसएस के कार्यक्रम में उनका जाना याद रखेंगे.

उधर, पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम जैसे नेता चाहते हैं कि मुखर्जी को नागपुर जाना चाहिए. यही नहीं उन्हें आरएसएस के मंच से ही उसे यह बताकर आना चाहिए कि उसकी विचारधारा में क्या-कुछ ग़लत है. वीरप्पा मोइली की राय भी कुछ ऐसी ही है. तमाम सलाहों और मशविरों के बीच प्रणब मुखर्जी अपने फ़ैसले पर क़ायम हैं. उन्होंने साफ कहा है कि वे नागपुर जा रहे हैं और उन्हें जो भी कहना होगा वहीं कहेंगे. आरएसएस-भाजपा इससे खुश हैं कि उन्होंने वैचारिक विरोध के एक बड़े स्तंभ को शायद हिला तो दिया ही है. इसीलिए आरएसएस के लिए ‘पूर्व राष्ट्रपति’ अब ‘प्रणब दा’ हो गए हैं.

उधर, कांग्रेस और उसका नेतृत्व असमंजस में ‘देखो और इंतज़ार करो’ की नीति पर चल रहा है. ऐसे में कांग्रेस सहित पक्ष-विपक्ष के अन्य सभी नेताओं और राजनीति में रुचि रखने वालों की जिज्ञासा अब यह है कि प्रणब मुखर्जी नागपुर में क्या कहते या करते हैं. हालांकि यह जिज्ञासा सात जून को पूरी हो ही जानी है जब प्रणब मुखर्जी नागपुर में आरएसएस मुख्यालय में होंगे. फिर भी कुछ राजनीतिक विश्लेषकों ने आरएसएस और मुखर्जी के इस रणनीतिक-राजनयिक-राजनीतिक क़दम के मायने निकाले हैं, अपने-अपने तरीके से. इन्हें समझने की कोशिश करते हैं.

एक विचार : प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष के सर्वसम्मत चेहरा बनना चाहते हैं

प्रणब मुखर्जी के इस फैसले को कई जानकार उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से जोड़ते हैं. इस वर्ग का मानना है कि इस वक़्त विपक्ष के पास कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं हैं जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले में खड़ा हो सके और ऐसे में प्रणब मुखर्जी अपने लिए संभावनाएं बना रहे हैं. इस कयास के साथ एक उदाहरण यह भी दिया जा रहा है कि पिछले दिनों मुखर्जी ने बीजेडी (बीजू जनता दल) के प्रमुख नवीन पटनायक के घर हुए दोपहर भोज में भी हिस्सा लिया था. उसमें लालकृष्ण आडवाणी भी थे और माकपा के सीताराम येचुरी और जेडीएस (जनता दल-धर्मनिरपेक्ष) के एचडी देवेगौड़ा भी.

कहा जा रहा है कि मुखर्जी लगातार राजनीतिक रूप से सक्रिय रहकर खुद को प्रासंगिक और चर्चा में बनाए रख रहे हैं. और फिर संविधान में ऐसी कोई पाबंदी भी नहीं है कि कोई राजनेता राष्ट्रपति बनने के बाद प्रधानमंत्री नहीं बन सकता. सेवानिवृत्त राष्ट्रपतियों के सार्वजनिक जीवन के नेपथ्य में चले जाने की अब तक सिर्फ परंपरा ही रही है. लेकिन प्रणब मुखर्जी परंपराओं में बंधे रहने वाले नेता नहीं हैं. इसकी मिसाल 1980 के दशक का एक वाक़या भी है जब वे कुछ समय के लिए कांग्रेस से बाहर भी रह लिए थे.

दूसरा विचार : शायद राष्ट्रपति पद के लिए ही दूसरे कार्यकाल की अपेक्षा में हों

इसके अलावा एक विचार यह भी है कि प्रणब मुखर्जी शायद दूसरे कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति बनना चाहते हों. वह भी सर्वसम्मति से. पिछले ही साल उन्हें लगातार दूसरा कार्यकाल देने की जेडीयूशिवसेना जैसे कुछ ग़ैरकांग्रेसी दलों ने वक़ालत भी की थी. लेकिन भाजपा और आरएसएस में ही इसके लिए सहमति नहीं बन पाई. जानकारों के मुताबिक संभवत: यह वज़ह हो सकती है कि प्रणब मुखर्जी अब सीधे आरएसएस में अपने लिए समर्थन बढ़ाने की योजना पर काम कर रहे हों. हालांकि इस योजना के अमल में आने के लिए अभी चार साल से ज़्यादा का वक़्त है.

तीसरा विचार : संघ मुख्यालय जाकर वहां अपना कद और ऊंचा करना चाहते हों

प्रणब मुखर्जी बड़े राजनीतिक क़द के शख़्स हैं. पहले भी थे, अब और ज़्यादा हैं. आरएसएस का न्यौता स्वीकार करते वक़्त उनके दिमाग में शायद इस क़द को और बढ़ाने का विचार रहा हो, ऐसा भी हो सकता है. पूर्व में सेवानिवृत्त वायुसेना प्रमुख एवाई टिपणिस जैसी कुछ शख़्सियतों के उदाहरण इतिहास में दर्ज़ हैं. इन्हें संघ ने अपने ऐसे ही प्रशिक्षण वर्ग के समापन समारोह का मुख्य अतिथि बनाया था. वैचारिक तौर पर वे लोग भी संघ से अलग थे लेकिन उन्होंने कार्यक्रम में शिरकत की और देश की साझा संस्कृति और संविधान के धर्मनिरपेक्ष विचार का बीज संघ के स्वयंसेवकों के बीच रोपकर चले आए थे. वह भी किसी को भी निशाना बनाए बग़ैर.

संभव है प्रणब मुखर्जी ऐसा ही कुछ करना चाहते हों. ओर अगर उन्होंने ऐसा किया तो निश्चित तौर पर उनका क़द समसामयिक राजनीति में और ऊंचा हो जाएगा. हालांकि वे करते और कहते क्या हैं यह तो आज शाम को ही पता चलेगा.

साभार: सत्याग्रह

 

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