तूतीकोरिन हिंसा: सरकार के आदेश में ही झोल, क्या हमेशा के लिए बंद हो पाएगा स्टरलाइट प्लांट?

ग्रीमषा राय

तूतीकोरिन या तूतुकुड़ी में वेदांता लिमिटेड के स्टरलाइट इंडस्ट्रीज के प्लांट को तमिलनाडु सरकार ने हमेशा के लिए बंद करने का फरमान जारी किया है. राज्य सरकार के इस आदेश में ऐसी कई बातें छुपी हैं, जो ऊपरी तौर पर दिखाई नहीं देतीं. पहली बात तो ये है कि इस आदेश में कुछ भी नया या अहम नहीं है. दूसरी बात ये है कि तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के जिस आदेश के आधार पर सरकार ने कारखाना बंद करने का फ़रमान जारी किया है, उसको अपील के दौरान झटका लगना तय है. जिस तरह से वेदांता लिमिटेड बड़े कॉरपोरेट वक़ीलों की फौज जुटा रही है, उसके हिसाब से कंपनी के वकीलों की भारी-भरकम फौज को इस आदेश को कोर्ट से पलटवाने में जरा भी वक्त नहीं लगेगा.

वेदांता लिमिटेड का भारत में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के तमाम आरोप झेलने का लंबा इतिहास रहा है. इस दौरान कंपनी का सबसे बड़ा हथियार या यूं कहें कि ताकत वो अधिकारी और संस्थाएं रहे हैं, जिन पर नियमों का पालन कराने की जिम्मेदारी है. फिर वो तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हो या फिर केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय. तो, बड़ा सवाल ये है कि आखिर तमिलनाडु सरकार ने वेदांता लिमिटेड के लिए एक बार फिर से बच निकलने का रास्ता क्यों आसान कर दिया है? खास तौर से 22 मई की हिंसक घटना के बाद.

वेदांता के खिलाफ मामला

तूतीकोरिन के निवासियों ने स्टरलाइट पर दोहरे आरोप लगाए हैं. पहला आरोप तो ये है कि कंपनी इलाके में प्रदूषण फैला रही है. 2008 में तिरुनेलवेल्ली मेडिकल कॉलेज ने सेहत पर एक स्टडी की थी. ये स्टडी मेडिकल कॉलेज ने तमिलनाडु सरकार के जनस्वास्थ्य और रोग नियंत्रण विभाग के कहने पर की थी. स्टडी में पता चला था कि स्टरलाइट के प्लांट के आस-पास के इलाके में लोगों को सांस, कान, नाक, गले की बीमारियां ज़्यादा हो रही थीं. इसके अलावा स्थानीय महिलाओं को माहवारी में भी काफ़ी दिक़्क़तें आ रही थीं. पानी में लोहे की मात्रा कुछ ज़्यादा ही पाई गई थी. स्टरलाइट के कारखाने के आस-पास के गांवों में लोगों को कई तरह के कैंसर होने की भी कई खबरें आई थीं. करीब एक दशक पहले हुए इस रिसर्च के बाद से सरकार ने बाद में कोई तजुर्बा नहीं कराया. न ही इलाके के हालात बेहतर करने के लिए ही कोई कदम उठाए गए. जबकि सुप्रीम कोर्ट तक ने माना था कि प्रदूषण के लिए वेदांता ही जिम्मेदार है.

कई मौकों पर तमिनलाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पाया था कि स्टरलाइट ने पर्यावरण के नियमों को तोड़ा है. बोर्ड ने खुद ही कंपनी के लिए नियामक लाइसेंस पहले की तारीखों पर जारी करके स्टरलाइट के जुर्म पर मुहर लगाई थी. 2013 में तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ऐसा ही आदेश जारी कर के स्टरलाइट को प्लांट बंद करने को कहा था. तब प्लांट से भारी मात्रा में गैस लीक की खबरें आई थीं. स्टरलाइट ने इलाके में वायु प्रदूषण में अपना हाथ होने से साफ इनकार कर दिया था, जबकि, खुद कंपनी के प्लांट में प्रदूषण नापने के पैमाने बता रहे थे कि इलाके की हवा में सल्फर डाई ऑक्साइड की मात्रा तय सीमा से 300 प्रतिशत ज्यादा थी. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का प्लांट बंद करने का आदेश जल्द ही किनारे लगा दिया गया और कंपनी ने दोबारा काम चालू कर दिया था.

स्थानीय लोगों का दूसरा बड़ा आरोप 2009 में केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय की तरफ से कंपनी को दिया गया पर्यावरण का क्लीयरेंस को लेकर है. साथ ही तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2016 में कंपनी को अपनी स्टरलाइट कॉपर स्मेल्टर (यूनिट 2) के विस्तार के लिए निर्माण कार्य की इजाजत देने को लेकर भी सवाल उठे हैं. 2006 में जारी किए गए पर्यावरण पर असर के मूल्यांकन के नोटिफिकेशन के मुताबिक सरकार ने कंपनी के प्लांट को जो हरी झंडी दी है, उस पर जन सुनवाई अनिवार्य थी. लेकिन केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने बिना जन सुनवाई के पर्यावरण क्लीयरेंस दे दिया. इसके खिलाफ मद्रास हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की गई. वेदांता के वकीलों ने तर्क दिया कि जिस आधार पर पर्यावरण मंत्रालय से हरी झंडी ली गई है, उसके मुताबिक उन्हें जनसुनवाई से छूट दी गई है. क्योंकि, प्लांट का विस्तार तमिलनाडु के राज्य औद्योगिक प्रोत्साहन निगम के इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेस के तहत होना है. इस कॉम्प्लेक्स को पहले ही पर्यावरण मंत्रालय की हरी झंडी मिल चुकी है.

केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय, राज्य औद्योगिक प्रोत्साहन निगम और तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस पूरे मामले में वेदांता के वकील की बातों से सहमति जताई थी. हकीकत ये है कि वेदांता ने अदालत से झूठ बोला था. सिपकॉट इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स (State Industrial Promotion Corporation of TN) की स्थापना 1985 में हुई थी. ये 1083 एकड़ में फैला हुआ था. 1996 में एक सरकारी आदेश जारी करके तूतीकोरिन औद्योगिक पार्क स्थापित करने का ऐलान किया गया. ये सिपकॉट के इंडस्ट्रियल पार्क के दूसरे फेज के तहत आता था, जो 1616 एकड़ इलाके में फैला था. इसमें से 324 एकड़ जमीन स्टरलाइट को अपने प्लांट के विस्तार के लिए दी गई थी. यानी ये जमीन नए इंडस्ट्रियल पार्क में स्थित थी. इस दूसरे फेज के लिए जमीन अधिग्रहण का काम 2013 में शुरू हुआ था, तो पर्यावरण क्लियरेंस तो तब तक मिला ही नहीं था.

इस मामले से जुड़े सभी सरकारी अधिकारी ये अहम जानकारी कोर्ट के सामने रखने में नाकाम रहे. अब ये काम उन्होंने जान-बूझकर किया या बेइरादा, ये एकदम अलग सवाल है. लेकिन एक बात एक दम साफ है कि स्टरलाइट को गैरकानूनी तरीके से कमोबेश हर वैधानिक संस्था ने प्लांट के विस्तार की मंजूरी दी. इसमें मद्रास हाई कोर्ट भी शामिल है. 23 मई को खुद अदालत ने ये बात मानी, जब उसने स्टरलाइट के प्लांट के विस्तार पर रोक लगाई.

अदालत ने कहा कि, ‘अदालत के सामने पेश किए गए दस्तावेजों और जानकारियों के आधार पर हमारी राय ये है कि सिपकॉट के दूसरे फेज को मंजूरी मिलनी बाकी है…इसमें कोई दो राय नहीं है कि वेदांता के कॉपर स्मेल्टर प्लांट की यूनिट-2 के सर्वे से जुड़े सारे आंकड़े, सिपकॉट इंडस्ट्रियल पार्क के फेज टू का ही हिस्सा हैं’.

इस मामले में अगर जन सुनवाई हुई होती, तो तूतीकोरिन के लोगों को इस प्लांट के खिलाफ आवाज उठाने का मौका मिलता. ये प्लांट पिछले कुछ सालों में बहुत बड़ी ताकत के तौर पर उभरा है. शायद यही वजह है कि इस मामले से जुड़े सभी लोगों ने ये शर्त पूरी करने में कोताही बरती.

कानूनी रास्ता- इतिहास खुद को दोहराता है

2010 में मद्रास हाई कोर्ट ने स्टरलाइट इंडस्ट्रीज के प्लांट को बंद करने का आदेश दिया था. अदालत का कहना है कि ये प्लांट प्रदूषण फैलाता है. वैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन करता है. अदालत ने कहा था कि स्टरलाइट का प्लांट पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील इलाके में गैरकानूनी तरीके से बना है, जो कि तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आदेश के खिलाफ है. कंपनी ने पर्यावरण का क्लीयरेंस हासिल करने की प्रक्रिया से बचने की कोशिश की है और उसने इलाके में हरित पट्टी का विकास भी नहीं किया है.

2013 में सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट के इस आदेश पर रोक लगा दी थी. सर्वोच्च अदालत ने कहा कि स्टरलाइट ने किसी कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन नहीं किया है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कंपनी पर प्रदूषण फैलाने के लिए 100 करोड़ रुपयों का जुर्माना जरूर लगा दिया. मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को NEERI के साथ मिलकर इलाके का मिलकर मुआयना करने का आदेश दिया था. इन तीनों संस्थाओं ने अपनी रिपोर्ट में अदालत को बताया कि प्लांट में 30 कमियां पाई गई हैं. तीनों ने अपनी रिपोर्ट में इन कमियों को दुरुस्त करने के तरीके भी सुझाए थे. 8 महीने के भीतर ही इन तीनों संस्थाओं ने एक रिपोर्ट दाखिल करके बताया कि स्टरलाइट ने 30 में से 29 गड़बड़ियां ठीक कर ली हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फाइनल ऑर्डर में कहा कि चूंकि कंपनी ने अपनी गलतियां सुधार ली हैं, इसलिए मद्रास हाई कोर्ट का आदेश रद्द किया जाता है.

A view of the Indian Supreme Court building is seen in New Delhi

आज सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश पर फिर से गौर करने की जरूरत इसलिए है क्योंकि हालात तब जैसे ही हैं. और इस बात की पूरी उम्मीद है कि एक बार फिर वैसा ही होगा, जैसा तब हुआ था. 9 अप्रैल को तमिनलाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने प्लांट को चलाने की मंजूरी वापस ले ली थी. बोर्ड के मुताबिक कंपनी ने पर्यावरण संरक्षण के नियमों का पालन नहीं किया था. न ही कंपनी ने प्रदूषण की निगरानी के आंकड़े जमा किए. प्लांट से निकल रहे औद्योगिक कचरे का ट्रीटमेंट नहीं किया और इन्हें सीधे नदी किनारे जाने दिया. साथ ही कंपनी ने कॉपर स्मेल्टर के तय डिजाइन के हिसाब से प्लांट भी नहीं बनाया.

स्टरलाइट इंडस्ट्रीज ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के इस आदेश को तुरंत ही अपीलीय अधिकरण में चुनौती दी. स्टरलाइट के वकील ने पहली सुनवाई से वही तर्क दिया, जो वो 1997 से देते आ रहे हैं, कि, कंपनी किसी नियम के खिलाफ नहीं जा रही है. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के लाइसेंस रद्द करने के आदेश का कोई आधार नहीं है. इस अपील पर अगली सुनवाई 6 जून को है.

22 मई की घटना के एक दिन बाद प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ये कहते हुए प्लांट की बिजली काट दी थी कि 9 अप्रैल के उसके प्लांट बंद करने के आदेश के बावजूद ये चालू था.

तमिलनाडु सरकार ने अपने आदेश में इन दोनों फरमानों पर मुहर लगाई है और प्लांट को स्थायी तौर पर बंद करने का आदेश दिया है. ये आदेश 1974 के वाटर एक्टर की धारा 18 (1) (b) के तहत दिया गया है. इस एक्ट में ‘हमेशा के लिए बंद करने’ का कोई जिक्र नहीं है. यानी ये बात सरकार ने सिर्फ राजनीति के लिए कही है. राज्य सरकार के पास ये अधिकार ही नहीं है कि किसी प्लांट को स्थायी तौर पर बंद करने का आदेश दे. ये काम सिर्फ तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कर सकता है. लेकिन तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आदेश में कुछ भी नया नहीं है.

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कर रहा है वेदांता की मदद

ऐसे फरमान पहले भी जारी किए जा चुके हैं. फिर खुद प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ही अपने लाइसेंस जारी करने के आदेश को पिछली तारीख से जारी करके अपने फैसले को पलट दिया है. जिस तरह 2013 में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, वेदांता का हमदम साबित हुआ था. वैसा ही एक बार फिर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड वेदांता की मदद ही कर रहा है. जब वेदांता इस सरकारी आदेश को रद्द करने की अपील लेकर अदालत जाएगी, तो कंपनी अपने हक में जो सबसे मजबूत तर्क देगी वो तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के बरसों के बर्ताव का ही हवाला होगा.

SIPCOT (State Industrial Promotion Corporation of TN) का रोल- SIPCOT ने पहले एक दशक तक तो वेदांता से सांठ-गांठ करके प्लांट का विस्तार होने दिया. और अब वो यूनिट-2 की लीज को रद्द करने का आदेश जारी कर रहा है. ये उसकी नाकामी और दोहरेपन को उजागर करता है.

रिटायर्ड आईएएस अधिकारी आर क्रिस्टोदास गांधी कहते हैं कि, ‘SIPCOT ने अपने आदेश में ये कहा है कि वो यूनिट-2 के लिए जमीन का आवंटन जनहित में और प्रदूषण की आशंका को देखते हुए रद्द कर रहा है. अब अगर इस आधार पर जमीन आवंटन रद्द किया गया है, तो SIPCOT को कॉपर स्मेल्टर के लिए दी गई जमीन की लीज को भी रद्द करना चाहिए. क्योंकि वहीं से सारा प्रदूषण फैल रहा है. जो प्लांट चालू ही नहीं हुआ, उसके लिए दी गई जमीन का आवंटन रद्द करने का क्या मतलब है’. गांधी पहले अतिरिक्त मुख्य सचिव रह चुके हैं. वो तमिलनाडु ऊर्जा विकास एजेंसी के प्रबंध निदेशक भी रह चुके हैं.

तमिलनाडु सरकार को इस सवाल का जवाब देना होगा. SIPCOT एक सरकारी संस्था है. ये एक निगम तो है ही, जनता की संस्थान भी है. वेदांता के झूठे दावों पर SIPCOT मूकदर्शक बना रहा है. अगर तमिलनाडु सरकार वाकई स्टरलाइट प्लांट को स्थायी तौर पर बंद करना चाहती है, तो उसे प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के बेकार के आदेशों पर मुहर लगाने के बजाय SIPCOT को जरूरी कदम उठाने को कहना चाहिए. यही सही दिशा में बढ़ा कदम होगा.

 

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