दलितों पर चक्रव्यूह में भाजपा

सत्येंद्र सिंह

पिछले आम चुनाव के समय ही भाजपा दलितों के प्रति अपना प्रेम प्रकट कर रही थी. सत्ता में आने के बाद रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाना दलित समाज के प्रति उसके सम्मान का ही हिस्सा था. ऐसी प्रतीकात्मक राजनीति कांग्रेस भी करती रही है. लेकिन एक बात जो उसे कांग्रेस से अलग करती है, वह है दलित अस्मिता के प्रतीक बाबा साहेब डॉ. बीआर आंबेडकर को प्रतिष्ठित करना. कांग्रेस ने डॉ. आंबेडकर को वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे. उनको भारत रत्न 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने दिया था, जिसे भाजपा बाहर से समर्थन कर रही थी. 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद डॉ. आंबेडकर को प्रतिष्ठित करने की दिशा में कई कदम उठाए गए. लंदन में जिस मकान में रहकर डॉ. आंबेडकर पढ़ाई करते थे, उस मकान को महाराष्ट्र की देवेन्द्र फडणवीस सरकार ने खरीदकर उनके नाम पर स्मारक बनवाया, जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 में किया था. अब आंबेडकर जयंती की पूर्व संध्या पर दिल्ली में डॉ. आंबेडकर के नाम पर मोदी सरकार ने एक स्मारक राष्ट्र को समर्पित किया है. इसी तरह उनके नाम पर भीम एप्प बनाना, उनकी 125वीं जयंती मनाने जैसे कई प्रतीकात्मक कार्य किए.

राजनीति ही नहीं, समाज में भी प्रतीकों का महत्व होता है, लेकिन दलित समाज इससे संतुष्ट प्रतीत नहीं होता. देश में बार-बार होने वाले आंदोलन इसके प्रमाण हैं. इसके बावजूद भाजपा दलित आंदोलन की प्रकृति को भांपने में बार-बार विफल रही. हाल ही में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ दलितों के आंदोलन के मसले पर यह तथ्य सामने आया, जिसमें उसने इसका दुरुपयोग रोकने के लिए दिशा-निर्देश दिया था. इसके पहले रोहित वेमुला, उना और सहारनपुर आंदोलन को भी केंद्र या राज्यों में स्थित भाजपा की सरकारें समय पर नहीं समझ पाई थीं. शायद वे अब भी इसे समग्रता में समझ पाई होंगी, इसमें संदेह है. आखिर क्यों?

अगर किसी घटना को उसके अनुपात से बड़ा कर पेश किया जाए, तो उसके पीछे किसी का एजेंडा छिपे होने का संदेह किया जा सकता है. स्थानीय महत्व की ये घटनाएं राष्ट्रीय बन गई थीं. यही नहीं, यह दलित उत्पीड़न की चयनित घटनाओं पर आधारित थीं, ताकि केंद्र और राज्य में भाजपा सरकारों को घेरा जा सके. ध्यान देने की बात है कि गैर-भाजपा शासित राज्यों में दलित उत्पीड़न की इसी तरह की घटनाओं को राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बनाया गया था. यह बात इसलिए प्रासंगिक हो गई है कि 2 अप्रैल को आयोजित दलितों के भारत बंद के बारे में साजिश की आशंका जताई जा रही है. यह कमोबेश पिछले आंदोलनों के पैटर्न पर ही आयोजित हुआ था, जिसमें सोशल मीडिया का सहारा लिया गया था, बाद में राजनीतिक दल सामने आए थे. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि इन आंदोलनों के पीछे कौन था? ये आंदोलन सहज स्वाभाविक थे या प्रायोजित? क्या इन आंदोलनों का उद्देश्य दलितों को न्याय दिलाने तक सीमित था या इनका कोई दूरगामी एजेंडा है? अंततः 2019 के लोक सभा चुनाव के संदर्भ में सवाल यह भी पूछा जाने लगा है कि इन दलित आंदोलनों से भाजपा को लाभ होगा या नुकसान?

एक संगठन के तौर पर भाजपा दलित उत्पीड़न के मामलों पर ऐसा कोई अभियान या आन्दोलन नहीं खड़ा कर सकी, जिससे पूरे देश में यह संदेश जाता कि वह दलितों की हितैषी है. यह इसी बात को प्रकट करता है कि भाजपा मुद्दा खड़ा करने की राजनीति में विपक्षी दलों से पीछे है. दूसरी ओर भारत बंद के दौरान जिस प्रकार दलित समाज की भागीदारी सामने आई, उससे यही संदेश गया कि दलित समाज भाजपा से विमुख हो रहा है. इस पर दलितों की राजधानी कहे जाने वाले आगरा के नंद किशोर वाल्मीकि, जो संघ से जुड़े दलित कार्यकर्ता हैं, कहते हैं कि बंद में शामिल आधे से अधिक लोग समाज के साथ एकता प्रदर्शित करने के इरादे से आए थे, उन्हें बंद के कारणों के बारे में या तो बिल्कुल जानकारी नहीं थी या भ्रामक सूचना दी गई थी. जब इन्हें पता चलेगा कि इन्हें कुछ नेताओं ने गुमराह किया है, तो इनका गुस्सा ऐसे नेताओं पर फूटेगा. ऐसे नेताओं को बेनकाब करने से भाजपा को कोई नुकसान नहीं होगा. उस स्थिति में तो बिल्कुल ही नहीं होगा, जब भाजपा दलितों को यह समझाने में सफल हो जाएगी कि वह उनकी बेहतरी के लिए काम कर रही है. यानी उसे नौकरियों में आरक्षण और एससी एसटी एक्ट को लेकर पैदा हुए भ्रम या सवालों का तत्परतापूर्ण जवाब देना होगा, अन्यथा 2015 के बिहार विधान चुनाव जैसी स्थिति पैदा हो सकती है. लेकिन क्या भाजपा उन्हें समझा पाएगी?

प्रधानमंत्री मोदी ने इन मसलों पर दलित समाज को आश्वस्त करने का प्रयास किया है, लेकिन हिन्दुत्ववादी पृष्ठभूमि के कारण भाजपा के लिए दलितों को समझा पाना आसान नहीं होगा. उनके मन में भाजपा के प्रति जो धारणा पैदा की गई है, उसे बदलने में काफी समय और श्रम लगेगा. भाजपा के लिए राहत की एक बात यह भी है कि भारत बंद में संपूर्ण दलित समाज की भागीदारी नहीं थी, जैसा कि नंद किशोर वाल्मीकि बताते हैं. नन्द किशोर के मुताबिक इसमें ज्यादातर बसपा समर्थक जाटव समाज के लोग शामिल थे, वाल्मीकि जैसी दलित जातियां इससे प्रायः दूर ही रही थीं. अगर नंद किशोर वाल्मीकि के कथन में थोड़ी भी सच्चाई है, तो यह न केवल दलित आंदोलन के कमजोर बिन्दु की ओर इशारा करता है, बल्कि भाजपा के लिए उम्मीद भी पैदा करता है. इसका मतलब यह है कि दलित राजनीति के हृदय स्थल उत्तर प्रदेश में गैर-जाटव दलित बसपा से अब भी दूरी बनाए हुए हैं. इनका झुकाव भाजपा की तरफ पहले से रहा है. यह दलित समाज का वह अंतर्विरोध है, जिसे वह अभी तक पाट नहीं पाया है.

दलित राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों को इस बात के प्रति भी सचेत रहना होगा कि समाज में इसके प्रति प्रतिक्रिया भी हो रही है, खासकर उन जगहों पर जहां दलितों की किसी अन्य जाति से खिंचाव-तनाव है. हालांकि बदलते राजनीतिक समीकरणों के कारण जमीनी स्तर पर दलितों और पिछड़ों में सामंजस्य बनाने का प्रयास किया जा रहा है, लेकिन इनमें व्याप्त अंतर्विरोध को हर जगह पाटना आसान नहीं है. अतिशय दलित-दलित करने पर कहीं-कहीं गैर-दलित जातियों में प्रतिक्रिया हो सकती है और इसका खामियाजा कांग्रेस जैसी पार्टियों को भुगतना पड़ सकता है. 2012 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बसपा की पराजय में यह एक कारण रहा था. आरक्षण के खिलाफ 10 अप्रैल को आयोजित भारत बंद में जिस तरह पिछड़ी जातियों के कुछ युवक कहीं-कहीं शामिल हुए, वह मंडल राजनीति करने वाली ताकतों के लिए कोई सुखद खबर नहीं है. लेकिन इसमें भाजपा के लिए भी संदेश है कि अतिशय दलित प्रेम दिखाने पर गैर-दलितों में प्रतिक्रिया भी हो सकती है.

 

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