पश्चिम बंगाल में विपक्ष का हाल: सत्ता का रंग आज भी लाल है, बस चेहरा बदला है
अभिषेक तिवारी
देश की आजादी के समय विपक्ष की पहचान रहे समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया को देश की जनता और उस समय के नेताओं को विपक्ष की ताकत और राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका का भान कराने का अगर श्रेय दिया जाए तो गलत नहीं होगा. डॉ लोहिया ने देश को सिर्फ समाजवाद की ताकत और उसके फायदे ही नहीं बताए बल्कि एक लोकतंत्रातिक देश में विपक्ष की क्या भूमिका होनी चाहिए इसके लिए भी काफी काम किया. डॉ लोहिया अपने पढ़ाई के दिनों में कोलकाता के पोद्दार होस्टल में रहा करते थे. मारवाड़ियों द्वारा बनाया गया यह होस्टल लोहिया के राजनीतिक जीवन में काफी अहम रहा है.
पश्चिम बंगाल के पोद्दार होस्टल से निकल कर देश की राजनीति को एक नया अध्याय देने वाले लोहिया आज अगर जिंदा होते तो शायद पश्चिम बंगाल में फिलहाल जो विपक्ष की हालत है उस पर तरस खाते और इस मुद्दे पर एक किताब भी लिखते ताकि आने वाली पिढ़ी यह जान सके कि राज्य में विपक्ष का क्या हश्र हो चुका है.
सबसे प्रगतिशील माने जानी वाली पार्टी सीपीएम ने इस राज्य में तीन दशक से ज्यादा राज किया. इस राज के दौरान उन्होंने एक ऐसे बीज को बोया जो आज विकराल बट वृक्ष का रूप ले चुका है. उसके आसपास या साये में ठंडक पहुंचाने वाली नरमी नहीं बल्कि अब उस वृक्ष से रक्त रंजीत पत्ते गिर रहे हैं.
राज्य में इस परंपरा को खड़ा करने वाली सीपीएम अब सत्ता में नहीं है लेकिन राजनीति में आज जिस तरह से गलत परंपराओं के निर्वहन का दौर चल पड़ा है कि टीएमसी भी उसे ढ़ो रही है. हालात इतने खराब हो चुके हैं कि विपक्ष को खत्म कर दिया जा रहा है. लोकतंत्र में विपक्ष का न होना लोकतंत्र के अस्तित्व को खतरे में डालने जैसा है. लेकिन ऐसा क्यों है कि जहां सिर्फ सीपीएम ने राज किया या कर रही है वहीं विपक्ष को खत्म किया जा रहा है.
बंगाल जैसे राज्य में विवस क्यों नजर आ रहा है विपक्ष
क्या भारतीय कम्युनिस्ट अपने पूर्वजों की बातों को भारत जैसे देश में भी आजमा रहे हैं या उन्हें लगता है कि उसी विचार से सत्ता पर कब्जा किया जा सकता है. ऐसा क्यों है कि केरल और बंगाल जैसे राज्य में विपक्ष विवस नजर आ रहा है और लगातार राजनीतिक हत्याएं हो रही हैं.
कोलकाता के पोद्दार होस्टल से दिल्ली की राजनीतिक सरगर्मियों को बढ़ाने वाले डॉ लोहिया का निधन 1967 में हुआ था. यह वहीं साल था जब बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से चारू मजुमदार और कानू सान्याल ने देश में हाहाकार मचा देने वाले आंदोलन की शुरुआत की थी. इसी आंदोलन के रास्ते राज्य में सीपीएम सत्ता के शिखर पर पहुंची और यहीं से खेल शुरू हो गया विपक्ष के खात्में का.
माओत्से तुंग और स्टालिन ने अपने देश में विपक्ष और विरोधियों के साथ क्या किया, यह जगजाहिर है. लेकिन बंगाल और केरल में जो हो रहा है क्या उसे जायज माना जा सकता है. क्या सीपीएम को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए कि उनके किए को आज भी विपक्ष और विरोधी भुगत रहे हैं?
भारत में कोई ऐसा राज्य नहीं होगा जहां विपक्ष की हालत बंगाल जैसी हो. यह आज से नहीं लगभग 40 सालों से चला आ रहा एक ऐसा मुद्दा है जिस पर हम समय-समय पर आवाज उठाते हैं और चुप हो जाते हैं. बात सिर्फ अभी की नहीं है. राज्य में सत्ता का सुख भोग रहीं ममता बनर्जी के साथ 1998 में जो हुआ था या उस समय की सीपीएम सरकार ने जो किया था वह शायद अपने जीवन में कभी नहीं भूलें.
ममता बनर्जी 1998 का वो पल नहीं भूलीं लेकिन उनके सत्ता में आने के बाद भी विपक्ष के साथ बर्ताव नहीं बदला. हाल ही में बंगाल में पंचायत चुनाव को देख लीजिए या पुरुलिया में जिस तरह से बीजेपी कार्यकर्ता त्रिलोचन महतो की हत्या की गई, वह अपने आप में शर्मसार करने वाला है.
क्या ममता में भी अपने पूर्ववर्तियों से आया यह गुर
ममता बनर्जी ने जिस अंधेरे को खत्म कर उजाले की उम्मीद जगाई थी, खुद उसमें उनका उलझ जाना ठीक नहीं लगता है. हो सकता है कि ममता बनर्जी में भी यह गुर उनके पूर्ववर्तियों से आए हो जो पीठासीन अधिकारी तक को अपनी पसंद की रखते थे. बंगाल में यह सीपीएम की देन ही है कि अपने पसंद के बड़े अधिकारी तो दूर, बेहद छोटे स्तर पर भी पसंद हावी रहती थी. ऐसे ही नहीं कोई तीन दशक से ज्यादा सत्ता की फसल काटता रहा होगा.
पंचायत चुनाव का मामला अभी भी अदालती चक्कर काट रहा है. ममता बनर्जी की पार्टी ने एक तरफा जीत हासिल की थी. चुनाव से पहले ही पंचायत चुनाव कोर्ट में लड़ा जा रहा था. विरोधियों में ऐसा डर भरा गया कि वो नामांकन के लिए नहीं पहुंच पाए. कलकत्ता हाईकोर्ट का वो आदेश नजीर बना जिसमें कहा गया था कि ऑनलाइन माध्यम से किया गया नामांकन भी स्वीकार होगा. समझने वाली बात यह है कि क्या इसी दिन को देखने के लिए भ्रद जनों ने तीन दशक से ज्यादा के शासन को उखाड़ फेंक हवाई चप्पल और साधारण साड़ी पहनने वाली ममता बनर्जी को सत्ता सौंपी थी.
जिस उम्मीद के साथ बंगाल की जनता ने ममता का दामन थामा था वह सिर्फ विरोध की राजनीति करने में ही खत्म हो रहा है. हां, इतना जरूर है कि उन्होंने सीपीएम शासन के दौरान की कुछ चीजों को खुद में ज्यों के त्यों उतार लिया है. मसलन, लाल से नीला कोई ऐसे ही नहीं होता. सत्ता में आने के बाद ही उनका पहला काम यह रहा कि वो उस सीपीएम के दौर की हर उस याद को मीटा देना चाहती थीं जिससे उस पार्टी और सरकार का नाम जुड़ा हो. कारण यहीं रहा कि कोलकाता अचानक लाल से नीला होने लगा.
उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं ममता
बदलाव हुआ तो सिर्फ सांकेतिक, लेकिन जिस उम्मीद के साथ 2011 की गर्मियों में रायटर्स बिल्डिंग में ममता बनर्जी ने कदम रखा था, वह साकार नहीं हुआ. विरोधियों के खिलाफ खूनी खेल आज भी जारी है. जिस दमन से जनता त्रस्त थी वो आज भी जारी है. हां, इतना जरूर बदल गया है कि जो ज्योति बासु और बुद्धदेब भट्टाचार्या ने किया, उसे अब ममता बनर्जी कर रही हैं.
बंगाल की राजनीति में जिस हालत में विरोधी सीपीएम के राज के समय में हुआ करते थे वैसे ही आज भी हैं. चेहरे बदले, रंग बदला, नाम बदला, सरकार बदली. नहीं बदला तो विपक्ष के प्रति नजरिया. हां एक नजरियां तो ममता और सीपीएम दोनों का बदल गया होगा कि जब देश का प्रधानमंत्री बनने का मौका मिले तो उसे छोड़ना नहीं है. सीपीएम वाले आज तक पछताते हैं. ममता उस मौके की तलाश में हैं जहां पछताना न पड़े. अभी उस दौर की इन बातों को याद करने का कोई मतलब नहीं बनता, लेकिन बंगाल में आज विरोधियों की जो हालत है और जिस तरह से सत्ताधारी ममता की सरकार ने इन मुद्दों को लिया है उस पर साहिर लुधियानवी की एक लाइन बड़ी फिट बैठती है,
(दुनिया में तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में… जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं)
काश, लौटाने की बजाय अपनी ममता का प्रदर्शन कर ममता बनर्जी विरोधियों की हालात को सुधार देतीं तो इस शायरी की जगह कुछ और लिखा जाता.
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