पाकिस्तान में जन्मा वो बच्चा जो, जेल की सलाखों में बंद रहने के बाद भी बना भारत में पुलिस कमिश्नर

संजीव कुमार सिंह चौहान 

मात्र 10-11 साल की छोटी सी उम्र. आधी रात को गहरी नींद में सब सो रहे थे. झकझोरते हुए घर वालों ने कहा, भागो.. भारत-पाकिस्तान के बीच क़त्ल-ए-आम शुरु हो गया है. अंडरवियर-बनियान में ही वो बालक परिवार के साथ भाग खड़ा हुआ. बेतहाशा बरसात में कई दिन भागते रहने के बाद भूखे-प्यासे बच्चे बेहोश हो गये. मां ने बरसाती कीचड़ का गंदा पानी पिलाकर बच्चों को तो ‘जिंदगी’ मयस्सर करा दी लेकिन जिगर के मासूम टुकड़ों की उस बेबसी और नाकाबिल-ए-बरदाश्त आलम को देखकर मां खुद बेहोश हो गई.

जानवरों के तबेलों से बदतर उस शरणार्थी कैंप में कीड़े-मकोड़ों की मानिंद पड़े कलेजे के टुकड़ों को देखकर लाचार मां-बाप केवल बिलबिला कर रह गए. कई दिनों तक खुद की बेबसी पर आंसू बहाते रहे. बच्चों की आंखों के आंसू अपनी हथेलियों में समेटते-बटोरते रहे. इन्हीं तमाम झंझावतों से जैसे-तैसे बाहर आया वही बालक ‘तिहाड़’ जेल की ‘काल-कोठरी’ में महीनों कैद रहा. हत्या के संगीन आरोप में. आज 84 साल का वृद्ध हो चुका वह बालक, कालांतर में भारतीय खुफिया विभाग में आला-अफसर और दिल्ली का पुलिस कमिश्नर बना. आखिर कैसे? कौन है आखिर यह विस्मयकारी बालक? जिसने आने वाली पीढ़ियों के लिए लिख दी, ऐसी हैरतंगेज और अविश्वसनीय इबारत.

जेहन में उठ रहे हर सवाल का जबाब मिलेगा आपको. इस बार पेश ‘संडे क्राइम स्पेशल’ में. उसी बच्चे की मुंहजुबानी मन को झकझोरती इस सच्ची कहानी में आगे. पूरे 71 साल यानी 7 दशक बाद. बिना किसी काट-छांट लाग-लपेट के हू-ब-हू जस-की-तस.

1947 में पाकिस्तान की उस रात का थर्रा देने वाला सच

‘मेरा जन्म 11 सितंबर सन् 1937 को सियालकोट (पाकिस्तान) के दातेवाल गांव में हुआ था. सन् 1947 की कोई रात थी. आधी रात के बाद दो-तीन बजे का वक्त रहा होगा. पूरा परिवार सो रहा था. कानों में दादा सुरायन सिंह की आवाज पड़ी, ‘उठो-उठो..भागो…जल्दी करो..देर मत करो वरना हम सब इसी चार-दीवारी में घेरकर मार डाले जाएगे….दादा ने मेरी जूड़ी (सिर के लंबे बाल) खींचकर बुरी तरह झिंझोड़ कर जगा दिया. वे बिना रुके चीखने वाले अंदाज में बोलते जा रहे थे, भारत-पाकिस्तान में क़त्ल-ए-आम शुरु हो गया है. इंसान गाजर-मूली की तरह काटे-मारे जा रहे हैं. मैंने सुना तो सब, मगर समझ मैं कुछ नहीं पाया. चंद मिनट में मां जसवंत कौर, पिता सरदार केहर सिंह और दादा, हम सब भाई-बहनों को घसीटते घर से भाग खड़े हुए. वे कपड़े पहने-पहने जो सोते वक्त बदन पर मौजूद थे. मैंने उस रात बनियान और निचले हिस्से में निक्कर पहन रखी थी. मेरी कमीज और पैंट उसी कमरे में अलगनी पर टंगी रह गई. जो मुझे आज 71 साल बाद भी आंखों के सामने टंगी हुई झूलती हुई नजर आती है,’

बम-गोली और बारिश में जानलेवा 20 मील का सफर

‘भाग रही भीड़ के रेले (काफिलों) में हम भी शामिल थे. चारों ओर से डरा देने वाली चीख-पुकार की आवाजें आ रही थीं. चाकू, छुरे, तलवार, बम, गोली जिसका जैसे जब मौका लग रहा, सब एक दूसरे को मार-काट रहे थे. हर किसी को बस जान बचाने की चिंता थी. तेज बारिश हो रही थी. चलते-चलते जहां बदन थकान से चूर होते. हम सब वहीं सुस्ताने के लिए बैठ जाते. रोज 2 मील दौड़कर पैदल चलकर 10 दिन में करीब 20-21 मील का वो जानलेवा सफर जैसे-तैसे पूरा किया. और पहुंच गए भारत की सीमा पर स्थित पंजाब राज्य में मौजूद अमृतसर शहर स्थित गांव गग्गोमहल में. जहां हमारे रिश्तेदार रहते थे.’

‘हमारे बुरे वक्त में रिश्तेदारों ने भी आंखें फेर ली. पिता-दादा स्वाभिमानी थे. चंद घंटों में ही रिश्तेदारों का घर छोड़ दिया. पहुंच गए पास ही स्थित खालसा कॉलेज परिसर में भारतीय सेना द्वारा स्थापित शरणार्थी कैंप में. इसके बाद हम सबको अगस्त सन् 1947 में शरणार्थी कैंप से जानवरों की मानिंद ट्रक में भरकर गुरदासपुर जिले के लंगरवाल गांव में छोड़ आया गया. लंगरवाल गांव में करीब डेढ़ साल जैसे-तैसे काटा. भारत छोड़कर पाकिस्तान भागते वक्त एक परिवार द्वारा तोड़फोड़ करके बर्बाद किए जा चुके मकान में.’

मां ने पढ़ाने को जेवर बेच दिए और मैं फेल हो गया

‘सुबह रोटी मिल जाती तो शाम को मिलने की कोई गारंटी नहीं थी. हालात पूरी तरह तोड़ देने वाले थे. मां-पिता और दादा मरने को तैयार थे, झुकने को नहीं. उन विपरीत हालातों में भी मां-पिता और दादा को बच्चों की बेहतर परवरिश से ज्यादा चिंता शिक्षा की थी. लिहाजा बच्चों की पढ़ाई के लिए मां जसवंत कौर ने अपने पास मौजूद अधिकांश जेवरात बेच दिए. मुझे सन 1948 में 9वीं कक्षा में गुरदासपुर स्थित एक हॉस्टल में भेज दिया गया. हायर एजुकेशन के लिए लुधियाना गवर्मेंट कॉलेज में दाखिला ले लिया. 1953 में खालसा कॉलेज अमृतसर से ग्रेजुएशन किया. सन् 1955 में पंजाब यूनिवर्सिटी के होशियारपुर कॉलेज से अर्थशास्त्र में एम.ए. सेकेंड डिवीजन पास हो गया. सन् 1957 में आईपीएस की परीक्षा दी और फेल हो गया.’

इंटेलीजेंस ब्यूरो में असिस्टेंट डायरेक्टर बन दिल्ली आया

‘अगले साल यानी सन 1958 में दुबारा आईपीएस की परीक्षा दी और पास हो गया. उस बैच में 34 लड़के थे. सब क्वालीफाई हुए. मुझे कॉडर मिला पंजाब. माउंट आबू में एक साल की ट्रेनिंग के बाद पहली पोस्टिंग मिली लुधियाना में सहायक पुलिस अधीक्षक की (ए.एस.पी.). उस वक्त पंजाब के मुख्यमंत्री थे प्रताप सिंह कैरों. 1963 में प्रमोट होकर फिरोजपुर बार्डर पुलिस अधीक्षक बना. फिर एसपी लाहोल स्पीति बना. सन् 1965 में भारत के इंटेलीजेंस-ब्यूरो (आईबी) में असिस्टेंट डायरेक्टर बनकर डेपूटेशन (प्रति-नियुक्ति) पर दिल्ली चला गया.’

84 साल बाद अतीत की सुनहरी यादों में खोये हुए भारत के दबंग आईपीएस प्रीतम सिंह भिंडर.

                                                 84 साल बाद अतीत की सुनहरी यादों में खोये हुए भारत के दबंग आईपीएस प्रीतम सिंह भिंडर.

आज भी याद आते हैं चीफ मिनिस्टर पीएस कैरों

‘प्रताप सिंह कैरों ऐसे मुख्यमंत्री थे, जो हमेशा अपनी पुलिस को समझाते थे. कहते थे कि पुलिस बाद में पहले इंसान बनो. अच्छे इंसान बन जाओगे तो, अच्छी फोर्स (पुलिस) स्वंय ही तैयार हो जाएगी. वे कहते थे कि दुनिया में हर आदमी काबिल ही होता है. उसकी काबिलियत परखने वाले भी होने चाहिए. आज का खूबसूरत और विकसित हरियाणा प्रताप सिंह कैरों की ही सकारात्मक और दूरदृष्टि का प्रतिफल है. भले ही सन् 1964-65 में कैरों की हरियाणा के राई में गोली मारकर हत्या कर दी गयी हो, मगर 54 साल बाद भी कैरों साहब का हर अल्फाज और उनका चेहरा मेरे जेहन में आज भी मौजूद है.’

पिता ने रिक्शे वाले की खातिर आईपीएस बेटे को डांटा

‘यह वाकया तब का है जब मैं आईपीएस बन चुका था. लुधियाना में नौकरी की पहली पोस्टिंग (असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस) तैनात था. एक दिन रिक्शा न करके बस स्टैंड से पैदल ही घर चला गया. पिता ने उस दिन खूब डांटा. उस रिक्शे वाले की खातिर. पिता का कहना था कि, अगर मैं आईपीएस होकर रिक्शे पर बैठकर घर पहुंचा होता तो, दो पुण्य नसीब हुए होते. पहला रिक्शे वाले को मेहनताने के रुप में मुझसे कुछ पैसे मिलते. दूसरा रिक्शे वाले को इस बात की खुशी होती कि कोई आला-आईपीएस अफसर भी आम-आदमी की तरह उसके रिक्शे की सवारी बनकर घर गया. पिता बोले तुम आईपीएस हो. रिक्शे वाले को शान से पांच रुपए देते वो तुम्हें जिंदगी भर दुआएं देता.’

झमाझम बारिश में पेड़ पर बैठकर नेहरु के भाषण सुने

‘तंगहाली के दिन थे. दो जून की रोटी मयस्सर नहीं थी. जिंदा बचेंगे भी या कम उम्र में ही भूख-प्यास से तड़पकर मर जाएंगे! इस सवाल का जवाब परिवार के किसी भी सदस्य के पास नहीं था. यही कोई 15-16 साल की मेरी उम्र रही होगी. पंडित जवाहर लाल नेहरु का भाषण सुनने का बड़ा शौक था. ट्रांजिस्टर खरीद पाने की हैसियत नहीं थी. सो लुधियाना से पांच छह साल तक 5 रुपए हर पंद्रह अगस्त पर किराया खर्च करके दिल्ली आता रहा. सिर्फ नेहरु जी को लाल किले से बोलते हुए देखने और उन्हें सुनने को. कई बार नेहरु जी भीड़ होने के कारण दिखाई नहीं देते थे. तो मैं पेड़ के ऊपर चढ़ जाता और आराम से बिना किसी व्यवधान के नेहरु जी का भाषण सुनकर उसी दिन लुधियाना लौट जाता था. एक दो बार ऐसा भी हुआ कि, नेहरु जी की स्पीच के वक्त खूब बारिश हुई. मैं भीगता रहा और पेड़ पर चढ़े हुए ही भाषण सुनता रहा. सन् 1964 में नेहरु जी की मृत्यु का समाचार मैंने स्पीती (तब पंजाब में अब हिमाचल प्रदेश का हिस्सा) में रेडियो पर सुना. उसके बाद अकेले में बैठकर बच्चे की तरह जी भरकर रोता रहा.’

यह भी रिकॉर्ड- एक आईपीएस को तीन-तीन कॉडर

‘मौजूदा वक्त में किसी आईपीएस को अपना एक कॉडर बदलवाने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ जाता है. उसके बाद भी गारंटी नहीं कि, कॉडर बदल ही जाएगा. मैंने तीन-तीन आईपीएस कॉडर हासिल किए. पहला पंजाब, दूसरा हरियाणा (1966) और तीसरा दिल्ली. इसे इत्तेफाक कहूं. अपनी किस्मत या फिर पंजाब-हरियाणा में हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ी आईपीएस की एक लॉबी की जिद का रिजल्ट? आईपीएस से रिटायर होने के कई साल बाद भी इस रहस्य को मैं खुद नहीं समझ पाया हूं. हां मुझे पंजाब में साफ-साफ लग गया था कि, सीनियर मोस्ट होने के चलते मुझे ही सूबे का पुलिस महानिदेशक बनाया जाना तय है. शायद बाकियों को यही नहीं पच रहा होगा. हरियाणा में पहली पोस्टिंग मिली नारनौल पुलिस अधीक्षक की. सन् 1975 में डीआईजी अंबाला रेंज बना.’

दिल्ली ने मुश्किलें दीं, तो उनसे लड़ना भी सिखा दिया

‘मार्च 1975 में दिल्ली पुलिस में डेपुटेशन पर आ गया. जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल (इमरजेंसी) लगाया तो मैं दिल्ली में ही डीआईजी रेंज था. यह जिंदगी का उससे भी बुरा दौर था, जब 11 साल की उम्र में भारत-पाक बंटवारे के वक्त आधी रात को सियालकोट से भागना पड़ा था जान बचाने के वास्ते. अगर यह कहूं कि दिल्ली ने अगर मुश्किलें दीं, तो दिल्ली ने जिंदगी जीने का ‘हुनर’ भी सिखा दिया. इमरजेंसी खतम हुई. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री और चौधरी चरण सिंह गृहमंत्री बन गए. इमरजेंसी खत्म होते ही मैडम (इंदिरा गांधी) का सपोर्टर होने के आरोप मेरे सिर मढ़े जाने लगे. मैं उसी वक्त समझ गया कि मेरी दुश्वारियां बढ़नी शुरू हो गई हैं. मुझे उसी वक्त अपनी गिरफ्तारी तक की आशंका ने आ घेरा था. और बाद में वही सब तमाशा हुआ भी मेरे साथ.

बेरहम सियासत ने गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया!

25-26 नवंबर सन् 1976 को पूर्वी दिल्ली इलाके में दिल्ली पुलिस की कस्टडी में भागते वक्त उस जमाने में आतंक का पर्याय डाकू सुंदर सिंह की संदिग्ध मौत हो गई. पहले से घात लगाए बैठे सियासतदानों और नए निजाम ने शिकंजा मुझ पर कसा. एक खूंखार डाकू की संदिग्ध-मौत की जांच में ‘हत्या’ जैसी संगीन धाराओं में केस दर्ज करा डाला गया. जांच सीबीआई ने की. हत्या के आरोप में मैं गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल की काल-कोठरी में डाल दिया गया. यह बात है सन् 1976-77 की. जिंदगी के कई महीने पुलिस-सीबीआई कस्टडी में तिहाड़ जेल से तीस हजारी कोर्ट के पुलिस लॉकअप में धक्के खाते गुजर गए. बाद में बाइज्जत हत्या के आरोप से बरी हुआ. फिर वापिस दिल्ली पुलिस में लौटा.

दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर तिलक राज कक्कड़ से सम्मानित होते वरिष्ठ पूर्व आईपीएस और भारतीय खुफिया एजेंसी के पूर्व असिस्टेंट डायरेक्टर प्रीतम सिंह भिंडर.

                                                   दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर तिलक राज कक्कड़ से सम्मानित होते वरिष्ठ पूर्व आईपीएस और भारतीय खुफिया एजेंसी के पूर्व असिस्टेंट डायरेक्टर प्रीतम सिंह भिंडर.

जेल की सलाखों से बाहर आते ही पुलिस कमिश्नर बना

तब तक श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन चुकी थीं. ज्ञानी जैल सिंह थे भारत के गृहमंत्री. मैं बाइज्जत बरी हो चुका था. हत्या के आरोप से मुक्त होकर जेल से निकला, तो दिल्ली का पुलिस कमिश्नर बन गया. उस वक्त आईजी से कमिश्नर बने जे.एन.चतुर्वेदी (चतुर्वेदी साहब की कुछ महीने पहले ही मृत्यु हो चुकी है) से जनवरी 1980 में दिल्ली के पुलिस कमिश्नर का चार्ज मैंने लिया. एक तरीके से देखा जाए तो, दिल्ली में कमिश्नरी सिस्टम लागू होने के बाद पहला फुलफ्लैश पुलिस कमिश्नर मैं ही था. चतुर्वेदी साहब को दिल्ली में कमिश्नर सिस्टम लागू होने के बाद आईजी से कमिश्नर बना दिया गया था. 30 सितंबर सन् 1981 को दिल्ली पुलिस कमिश्नर के पद से मैं रिटायर हो गया.

जम्मू कश्मीर के सीएम ने जब घर बुलाकर दी शाबासी

‘उस जमाने में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री थे शेख अब्दुल्लाह.1980 के दशक में दिल्ली में दंगे फैल गए चांदनी चौक में उनके एक रिश्तेदार की दुकान लुट रही थी. मैं उसी वक्त मौके पर पहुंच गया. लूट होने से बचा ली. इससे खुश हुए शेख साहब ने दिल्ली में स्थित जम्मू-कश्मीर के स्टेट गेस्ट हाउस में मुझे बुलाया. उस लूट की वारदात को तुरंत रोकने के लिए उनसे हासिल शाबासी आज भी याद है.’

अपनी ही दास्तां बयान करने वाला यह है वो बालक

71 साल पुरानी झंझावतों और उतार-चढ़ाव से मगर दिल दहला देने वाली बेबाक मुंहजुबानी ब-जरिए ‘फ़र्स्ट पोस्ट’, आप तक पहुंचा कर, आपको अपने ही अतीत में झांकने का मौका देने वाले बीत कल के वो बालक हैं भारत के मशहूर पूर्व आईपीएस और दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर पी.एस. भिंडर (प्रीतम सिंह भिंडर). आज 84 साल के वृद्ध वही पीएस भिंडर, जिनकी पत्नी सुखबंस कौर भिंडर ने गुरदासपुर लोकसभा सीट (कांग्रेस) से 5 बार जीत दर्ज करके रिकॉर्ड कायम किया था. सुखबंस कौर की दिसंबर 2006 में मृत्यु हो चुकी है. दो बेटियों के पिता प्रीतम सिंह भिंडर के मुताबिक, छोटी बेटी उनके साथ ही रहती है. बड़ी बेटी सपरिवार इंग्लैंड में जाकर बस चुकी है.

 

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