राजस्थान: चुनावी रण के लिए सजने लगी है राजनीतिक बिसात

नई दिल्ली। आमतौर पर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस गुटबाजी की शिकार देखी जाती रही है जबकि देश चला रही बीजेपी शुरू से खुद को पार्टी विद द डिफरेंस के तमगे से नवाजती रही है. वर्तमान राजनीति में मौजूद बुराइयों के लिए बीजेपी हमेशा से ही कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराती रही है, मसलन भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, तुष्टिकरण, चाटुकारिता, लालफीताशाही या सत्ता में आने के बाद जनता के प्रति उदासीनता.

लेकिन इसबार तस्वीर उलटी नजर आती है. राजस्थान में इस समय दिखने में आ रहा है कि कांग्रेस तो अपनी रणनीति और काम पर गंभीर है लेकिन बीजेपी वाले लापरवाह और जनता के प्रति उदासीन नजर आ रहे हैं. बीजेपी वालों की उदासीनता के उदाहरण से पहले आपको बताते हैं कांग्रेस में जीत के प्रति जग रही छटपटाहट. ऐसा जज्बा अमित शाह अपने लोगों में भी जगाना चाह रहे हैं.

हालिया उपचुनाव में बीजेपी जहां पूरी तरह मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर निर्भर रही, वही गुटों में बंटी होने के बावजूद कांग्रेस ने जीत के लिए रणनीति बनाकर उस पर सुनियोजित तरीके से काम किया. नतीजे पक्ष में आए और अब 7 महीने बाद होने वाले चुनाव के लिए नई सोशल इंजीनियरिंग पर भी काम शुरू कर दिया गया है. हालांकि गुटबाजी को देखते हुए राहुल गांधी ने पहले ही ऐलान कर दिया है कि मुख्यमंत्री के तौर पर किसी को प्रोजेक्ट नहीं किया जाएगा.

कांग्रेस की नई सोशल इंजीनियरिंग

कांग्रेस ने अब नई सोशल इंजीनियरिंग के तहत तय किया है कि प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के साथ ही 2 कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाए जाएं. हाल ही में दिल्ली में हुए अधिवेशन में इसकी पूरी व्यूह रचना तैयार की गई. पायलट गुर्जर समुदाय से हैं. ऐसे में मीणा और ब्राह्मण समाज को साधने के लिए वहां से दो कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जा सकते हैं. कांग्रेस ने ऐसा प्रयोग पहले भी किया है. हालांकि इसके नतीजे मिले-जुले ही रहे थे.

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मौजूदा समय में पार्टी के कद्दावर नेता अशोक गहलोत माली समुदाय से हैं जबकि विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी जाट समुदाय से हैं. महिला कांग्रेस अध्यक्ष मुस्लिम हैं जबकि युवा कांग्रेस अध्यक्ष गुर्जर समाज से हैं. लेकिन वोटों की गणित को देखते हुए पार्टी ब्राह्मण और मीणा समाजों को भी साधना चाहती है. पार्टी को डर है कि इसके अभाव में उसपर जाट और गुर्जर नेताओं को ही बढ़ावा देने का आरोप लग सकता है.

राजस्थान में गुर्जर आबादी करीब 6% है. जाटों की आबादी राज्य में करीब 10 फीसदी है. ब्राह्मण आबादी करीब 7% है. अनुसूचित जनजाति (ST) की जनसंख्या करीब 14% है जिसमें आधी से ज्यादा अकेली मीणा/मीना जाति है. ऐसे में ब्राह्मण और मीणा समुदाय को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

विशेषकर डॉ. किरोड़ीलाल मीणा की बीजेपी में घर वापसी के बाद. पूर्वी राजस्थान में वैसे भी मीणा-गुर्जरों के बीच कुछ-कुछ वैसी ही राजनीतिक लड़ाई है जैसी जाट-राजपूतों के बीच. ऐसे में कांग्रेस को डर है कि मीणा समाज को साधे बिना जीत पास आते-आते दूर छिटक सकती है.

..लेकिन बीजेपी वाले सीरियस नहीं !

कांग्रेस ने जहां काम शुरू कर दिया है, वही बीजेपी में ऊपर से ‘कंट्रोल’ के बावजूद गंभीरता में कमी देखने को मिल रही है. मंत्री, विधायक चुनावों के प्रति कितने लापरवाह हैं इसके नमूना एक ढूंढ़ो तो दर्जन भर मिल जाते हैं. राज्य में छह/सात महीने बाद चुनाव हैं. एंटी इंकमबैंसी के खतरे के बीच पार्टी ने अपने मंत्रियों को उनके निर्वाचन क्षेत्र से बाहर के जिलों का प्रभार दिया. उम्मीद की गई थी कि मंत्री इन क्षेत्रों का दौरा करेंगे और वहां पार्टी को मजबूत करेंगे.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक स्टेट मोटर गैराज के आंकड़े बताते हैं कि मंत्रियों ने 62 लाख किलोमीटर इलाका घूम डाला, 41 करोड़ रुपए से ज्यादा का सरकारी डीजल फूंक डाला लेकिन परफॉर्मेंस में रहे फिसड्डी के फिसड्डी. हैरान कर देने वाली बात ये है कि जनता का इतना पैसा उड़ाकर भी घूमा गया सिर्फ अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र में ही. जबकि जिम्मेदारी दी गई थी उन्हे अपने इलाके से बाहर की.

कई मंत्रियों का रिपोर्ट कार्ड तो और भी खराब बताया जा रहा है. ऐसे मंत्रियों की कोई कमी नहीं है जो अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाने की जहमत भी नहीं उठाते. फिर कैसे पार्टी जनता से वोट की उम्मीद कर सकती है. चिकित्सा राज्यमंत्री बंशीधर बाजिया पिछले डेढ़ साल में खंडेला सिर्फ एक बार गए हैं. मंत्री सुशील कटारा तो चौरासी, डूंगरपुर एक बार भी नहीं गए हैं. कमसा मेघवाल भोपालगढ़ एक बार भी नहीं गई हैं. श्रीचंद कृपलानी, पुष्पेंद्र सिंह या कृष्णेंद्र कौर दीपा जैसे मंत्री एकाध बार जाने का अहसान कर आए हैं.

हालांकि दूसरी ओर अरुण चतुर्वेदी, वासुदेव देवनानी, युनूस खान, कालीचरण सर्राफ, अनिता भदेल जैसे लोग भी हैं जो दो या तीन लाख किलोमीटर तक का सफर भी दौरों के रूप में कर चुके हैं. लेकिन अधिकतर मंत्रियों का रिपोर्ट कार्ड नेगेटिव ही है. ये हाल तब है जब अपने निर्वाचन क्षेत्र से बाहर के जिलों की टास्क मंत्रियों को खुद मुख्यमंत्री ने सौंपी थी. ऐसे में आप अंदाजा लगा सकते हैं कि क्यों नेतृत्व आने वाले चुनाव को लेकर सशंकित है. शायद अपने मंत्रियों का ऐसा हाल देखकर ही मुख्यमंत्री अब सीधे कार्यकर्ताओं से फीडबैक लेने लगी है.

मुख्यमंत्री को पता है इनकी कारगुजारी !

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पिछले हफ्ते जोधपुर में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने फीडबैक लेने के लिए मंत्रियों या विधायकों की बजाय जमीनी कार्यकर्ताओं को तरजीह दी. ये कार्यकर्ताओं को और जनता को एक संदेश देने की कोशिश है कि सरकार जमीन से जुड़े लोगों के प्रति लापरवाह नहीं हैं. राजे ने बंद कमरे में जोधपुर शहर और जिले से जुड़े पदाधिकारियों से चर्चा की. बताया जा रहा है कि कार्यकर्ताओं से विधायकों और मंत्रियों के बारे में जानकारी ली गई.

मुख्यमंत्री ने संगठन से जुड़े इन पदाधिकारियों से कहा कि उनकी बातों को गंभीरता से सुना जाएगा और उनपर सकारात्मक रूप से विचार भी किया जाएगा. संगठन से जुड़े अधिकतर लोग मंत्रियों की उपेक्षा से नाराज चल रहे हैं. इनका कहना है कि मंत्री न उनकी सुन रहे हैं और न ही उनके बताए काम ही कर रहे हैं. ऐसे में राजे उनके घावों पर मल्हम लगाने की कोशिश में हैं.

दरअसल, उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में हार की एक वजह ये भी माना जा रहा है कि बूथ स्तर का कार्यकर्ता रूठा हुआ था. जब बूथ स्तर पर कार्यकर्ता सक्रिय नहीं रहेगा तो लोगों को घरों से वोट दिलवाने के लिए कौन निकाल कर लाएगा? यही वजह है कि पिछले साल जयपुर दौरे पर अमित शाह ने भी बूथ मैनेजमेंट को मजबूत करने की बात कही थी. अब जोधपुर में खुद मुख्यमंत्री ने कार्यकर्ताओं से कहा है कि न सिर्फ उनके मांगों को पूरा किया जाएगा बल्कि कार्यकर्ता या पदाधिकारी के निकट रिश्तेदारों के तबादलों के मामलों को भी प्राथमिकता से निबटाया जाएगा.

तबादलों में बीजेपी वालों की बल्ले-बल्ले

4 साल से लगभग बंद पड़े तबादलों को अब तत्काल प्रभाव से खोल दिया गया है. पिछले दिनों फर्स्टपोस्ट पर हमने आपको बताया था कि कैसे सरकार की तरफ से बीजेपी विधायकों और पार्टी पदाधिकारियों को चिट्ठी भेजकर तबादलों की इच्छा की मांगी गई है. हालांकि मीडिया में मामला सामने आ जाने के बाद सरकार ने इस बारे में सफाई भी दी थी. लेकिन अब दोबारा से ऐसी ही चिट्ठी विधायकों और पार्टी पदाधिकारियों को भेजी गई है.

इस चिट्ठी के मुताबिक जहां बीजेपी के विधायक जीते हैं वहां वे खुद और जहां उनका विधायक नहीं है, वहां पार्टी के विधानसभा प्रभारी को तबादलों से जुड़ी डिजायर का अधिकार दिया गया है. यानी ये लोग सरकारी कर्मचारी के तबादला मांगपत्र पर अपनी अनुशंसा लिख सकेंगे और सरकार उसपर उचित कार्रवाई भी करेगी. संगठन से जुड़े एक नेता के मुताबिक ये ठीक भी है कि विधायकों और विधानसभा प्रभारियों को डिजायर का अधिकार दे दिया गया है. इससे लोगों को बेवजह भटकना नहीं पड़ेगा.

पहले कार्यकर्ता अपने या घर-परिवार के या फिर रिश्तेदार के तबादले के लिए सरकार और संगठन के बीच चक्करघिन्नी बना घूमता रहता था. उसे पता ही नहीं होता था कि तबादले के लिए वास्तव में डिजायर किसकी चलेगी. जहां पार्टी का विधायक होता था, वहां तो खास दिक्कत नहीं होती थी. लेकिन जहां पार्टी का विधायक नहीं होता था, वहां कार्यकर्ताओं के लिए मुश्किल हो जाती थी. लेकिन अब सरकार ने बाकायदा चिट्ठी भेजकर गैर विधायक क्षेत्रों में विधानसभा प्रभारियों यानी पिछले चुनाव में रनर अप रहे पार्टी नेता को तबादले की डिजायर का अधिकार दे दिया है.

तबादलों में जल्दबाजी न दिखाने के संकेत

कई लोग तबादलों की डिजायर में होने वाले पैसों के खेल से भी वाकिफ हैं. फर्स्टपोस्ट में हमने भी बताया था कि कैसे बाहरी लोगों को पार्टी पदाधिकारी अपना रिश्तेदार बताकर तबादले की डिजायर लिख सकते हैं. यही वजह है कि तबादलों पर रोक हटते ही कर्मचारियों से ज्यादा नेताओं के चेहरे खिल उठे हैं. और इस बार तो मौका डबल खुशी का है. सरकार ने बांसवाड़ा, डूंगरपुर जैसे प्रतिबंधित जिलों (TSP क्षेत्र) में भी तबादलों को खोल दिया है. अरसे से उन जिलों से अपने गृह जिलों में आने की बाट जोह रहे कर्मचारी ‘कुछ भी’ खर्च करने को तैयार हो ही जाएंगे.

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शायद यही वजह है कि तबादलों पर डिजायर लिखने से पहले विधायकों को ताकीद की  गई है कि 1 अप्रैल से अगले 10 दिन तक अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में दौरे पर रहें. इसके बाद अगले 3 दिन तक मंत्रियों को जिलों में जाने के निर्देश दिए गए हैं. इन दौरों की एक-एक सूचना और पूरी जानकारी बीजेपी मुख्यालय के साथ ही सीएमओ को भी भेजी जाएगी. पिछली लापरवाहियों को देखते हुए सीएमओ ने इसबारे में खास निर्देश दिए हैं.

लगता है तबादलों में जल्दबाजी न दिखाने और जमीनी दौरों में लापरवाही दिखाने वाले विधायकों-मंत्रियों को ‘कंट्रोल’ करने की कोशिश ऊपर से ही की जा रही है. बताया गया है कि मंत्रियों-विधायकों के दौरों से मिले फीडबैक के बाद ही तबादला सूचियां तैयार की जाएंगी. यानी कर्मचारी 15 अप्रैल से पहले तबादलों की उम्मीद नहीं कर सकते.

बहरहाल, राजनीतिक उठापटक के मामले में राजस्थान भले ही उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे राज्यों से कमतर हो. लेकिन 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले देश का ये सबसे बड़ा राज्य खासी अहमियत रखता है. कांग्रेस और बीजेपी, दोनों पार्टियां जानती हैं कि नवंबर, 2018 में विधानसभा चुनाव से बनी फिजा लोकसभा चुनाव में संजीवनी का काम करेगी. पिछले 2 चुनाव में ऐसा देखा जा चुका है. यही वजह है कि दोनों पार्टियां ऊपर से नीचे तक कोई कसर नहीं छोड़ना चाह रही हैं.

 

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