राहुल गांधी सही हैं, लोकतंत्र खतरे में है, लेकिन बीजेपी से नहीं, मौकापरस्त विपक्ष से
स्रीमोय तालुकदार
राजनीतिक बहस के बीच हम अक्सर सुनते हैं कि ‘लोकतंत्र खतरे में है’, ‘धर्मनिरपेक्षता खतरे में है’, ‘संविधान और संस्थानों पर हमला किया जा रहा है.’ ये सब कोई नई बात नहीं हैं. लेकिन हाल के दिनों में इन मुहावरों के प्रयोग में उल्लेखनीय वृद्धि देखने को मिल रही है. बीजेपी की बढ़ती ताकत और कांग्रेस की राष्ट्रव्यापी मौजूदगी में लगातार आ रही कमी के दौर में, इन मुहावरों के इस्तेमाल में अच्छी-खासी वृद्धि हुई है. ऐसा दिखाया जा रहा है कि भारत की घेराबंदी हो रही है और नरेंद्र मोदी सरकार से लोकतांत्रिक भारत का भविष्य खतरे में है. यह कहानी कितनी न्यायसंगत है?
इन उपायों का अधिक इस्तेमाल हानिकारक है
नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में, बीजेपी न सिर्फ कांग्रेस की कीमत पर विस्तार कर रही है, बल्कि धीरे-धीरे उन राज्यों और क्षेत्रों में भी शक्तिशाली हो रही है, जहां ऐतिहासिक रूप से इसका बहुत कम प्रभाव रहा है. यह विस्तार किसी भी तरह से गैरकानूनी नहीं है. लेकिन इसने क्षेत्रीय क्षत्रपों को एक मौका दे दिया है कि वे बीजेपी को खुद के अस्तित्व के लिए खतरे के रूप में पहचानने का कारण मान ले.
अनिवार्यत: लोकतंत्र में अंतर्निर्मित चेक एंड बैलेंस प्रणाली होती है. ये सिस्टम खुद ही बीजेपी को नियंत्रित करता है. जैसे, सहयोगियों के बीच बढ़ती बेचैनी और विपक्षी एकता में तेज वृद्धि. सुरक्षा के ये उपाय जरूरी हैं और लोकतंत्र को बहुमतवाद के जाल में फंसने से रोकते हैं. हम अभी भारत में जो देख रहे हैं, वह एक अलग तरह का खतरा है. बीजेपी के खिलाफ आक्रामक राजनीतिक ताकतों ने अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पाने के लिए इन ‘सुरक्षा उपायों’ को तेजी से हथियार बनाने का काम किया है. इससे वे इन सुरक्षा उपकरणों की महत्ता ही घटा रहे हैं. लंबे समय तक चलने वाली ऐसी गिरावट लोकतंत्र के लिए हानिकारक है.
विपक्ष द्वारा इन सुरक्षा उपायों का हथियार बनाने का काम रणनीतियों का सिर्फ एक हिस्सा है. पहला एक व्यवहार्य गठबंधन रणनीति बनाने की दिशा में वे काम कर रहे हैं. जैसे, राहुल गांधी का ‘कर्नाटक मॉडल’, जहां वे एक जूनियर क्षेत्रीय साथी के जूनियर सहयोगी बनने को तैयार है. या फिर, 2019 के लिए ममता बनर्जी का 1:1 फॉर्मूला. इस फॉर्मूले के तहत बीजेपी उम्मीदवार को हराने के लिए विपक्ष का एक ही एकीकृत उम्मीदवार हो.
दूसरी रणनीति ये है कि राजनीतिक लक्ष्य पाने के लिए डर को एक साधन के रूप में अपनाया जाए. उदाहरण के लिए राहुल के आरोप को लें, जिसमें वे कहते हैं कि आरएसएस ‘न्यायपालिका, मीडिया और सेना’ जैसे सार्वजनिक संस्थानों पर कब्जा जमा रहा है. या फिर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री अक्सर ये आरोप लगाती हैं कि बीजेपी एक ‘सांप्रदायिक पार्टी’ है, मोदी सरकार आधार के माध्यम से ‘पति और पत्नी के बीच निजी बातचीत’ को भी टैप करने की कोशिश कर रही है.
नेता इन अधिकतर तथ्यहीन आरोपों को नजरअंदाज कर के बच सकते है. ऐसे आरोपों पर ध्यान देने से और जवाब देने से सामने वाले को ही फायदा होगा (कानूनी रूप से या अन्य तरीके से उत्पन्न होने वाले विवाद से). इन आरोपों को यदि ऐसे ही छोड़ दिया जाता है, तो ये निष्प्रभावी हो जाएंगे.
मीडिया की बड़ी भूमिका
‘लोकतंत्र’, ‘संविधान’, ‘धर्मनिरपेक्षता’, ‘सार्वजनिक संस्थान’ ऐसे चतुर बयान हैं, जिसका इस्तेमाल पार्टियों द्वारा इसके मूल्यों में आने वाले विचलन को वैध बनाने के लिए किया जाता है. विडंबना यह है कि जो खुद इसके लिए दोषी है, वे ही इसका सबसे ज़्यादा विरोध करते हैं. मीडिया रणनीति के तहत ऐसे पाखंड को उजागर करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है. जैसाकि तवलीन सिंह ने द इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में लिखा है: ‘नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हमारे लोकतंत्र में यह बीमारी शुरू नहीं हुई है. यह कहानी है तब से शुरू होती है, जब से कांग्रेस पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा छिपाने के लिए सेकुलर, वामपंथी राजनीतिक टिप्पणीकारों द्वारा शुरू की गई थी. यह ‘सेकुलर’ गिरोह ही है, जो अक्सर लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों का उपयोग करता है.’
सुविधा की शादी को नैतिक वैधता
हम दो हालिया घटनाओं का निरीक्षण करेंगे ताकि यह दिखाया जा सके कि विपक्षी पार्टियां कैसे रक्षा के नाम पर लोकतंत्र के उपकरणों को कमजोर बनाने का काम कर रहा है. कर्नाटक चुनाव पहला मामला है. चुनाव प्रचार अभियान से ही, लोकतांत्रिक सिद्धांत, लोकतंत्र के स्वघोषित रक्षकों के रूप में कार्यरत पार्टियों का शिकार बन गए.
चुनाव से दो महीने पहले, जेडी(एस) के राज्य अध्यक्ष एचडी कुमारस्वामी, जो अब जेडी(एस)-कांग्रेस गठबंधन के नामित मुख्यमंत्री हैं, ने कांग्रेस को ‘भारत के लोकतांत्रिक व्यवस्था में बीजेपी से ज्यादा खतरनाक’ कहा था. राहुल गांधी के ये कहने पर कि ‘जेडी (एस) बीजेपी की बी टीम है’, कुमारस्वामी ने एक साक्षात्कार में लाइवमिंट को बताया: ‘राहुल गांधी कर्नाटक की राजनीति का एबीसीडी नहीं जानते हैं. वे (कांग्रेस) जब आवश्यक हो तो हमारा इस्तेमाल करते हैं और अब हमें बीजेपी की ‘बी’ टीम बता रहे है. मेरा बीजेपी के साथ पहले (2008 में) हाथ मिलाने का कारण कौन है? हमारी आलोचना करने से पहले राहुल गांधी को अपनी मां के पास जा कर पूछना चाहिए कि क्या वादा किया गया था और क्यों लोगों ने उस पार्टी को खारिज कर दिया था जो (केंद्र में) सत्ता में थी.’
कांग्रेस ने बीजेपी और जेडी (एस) के बीच गठजोड़ का आरोप लगाया और कहा कि जेडी (एस) में ‘एस’ ‘संघ परिवार’ है न के ‘सेकुलर’. 2013 की तुलना में राहुल गांधी की पार्टी को 44 कम सीटें मिलीं (और बीजेपी की तुलना में 26 कम, एकमात्र सबसे बड़ी पार्टी). जेडी(एस) को 2013 की तुलना में तीन कम सीटें मिलीं, जबकि इसके वोट शेयर में तीन प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई.
दोनों पार्टियां विरोधियों के रूप में चुनाव लड़ीं. उन्हें बीजेपी के मुकाबले जनादेश नहीं मिला. कम सीटें मिली. लेकिन, चतुराई से बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए वे ‘लोकतंत्र के रक्षक’ बन गए. एक हताश कांग्रेस को अपने अंतिम बड़े राज्य में सत्ता बरकरार रखने की जरूरत थी. जबकि जेडी (एस), जो रेस में तीसरे स्थान पर रही, ने महसूस किया कि राज्य की राजनीति में प्रासंगिक बने रहने का एकमात्र तरीका कांग्रेस से हाथ मिलाना है. मुख्यमंत्री की कुर्सी बोनस के रूप में मिल रही थी. समस्या अवसरवादी गठबंधन में नहीं है, (क्योंकि राजनीतिक दलों को अपनी संभावनाओं का उपयोग करना ही चाहिए) लेकिन सुविधा की शादी को नैतिक वैधता देने की कोशिश गलत है.
निंदा अभियान
राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ अपना निंदा अभियान जारी रखा. राहुल ने उन पर ‘हर संस्थान को कमजोर करने’ का आरोप लगाया, उन्होंने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को हत्या का आरोपी भी कहा. कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला द्वारा कम संख्या होने के बाद भी बीएस येदियुरप्पा को सरकार बनाने के लिए निमंत्रित करने के कारण ‘कमजोर संस्थान’ का आरोप लगाया गया. इस कदम को पहले की घटनाओं द्वारा समर्थन दिया गया और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत साबित करने के लिए आवंटित समय को कम जरूर कर दिया. यह शायद ही कभी ‘कमजोर संस्थान’ का मामला हो. तथ्य यह है कि कांग्रेस शासन इस कला की जन्मदाता है. उदाहरण के लिए, कांग्रेस ने 54 वर्षों के अपने शासन के दौरान राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए 88 बार आर्टिकल 356 का इस्तेमाल किया है. राहुल की दादी इंदिरा अकेले इन 88 मामलों में से 50 के लिए जिम्मेदार हैं.
नकली आरोप, नकली टेप
जहां तक ‘हत्या के आरोप’ का सवाल है, शाह को विशेष सीबीआई अदालत द्वारा सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया है. जैसाकि अजय सिंह फ़र्स्टपोस्ट में लिखते हैं: ‘शाह को गुजरात पुलिस द्वारा मुठभेड़ में हुई हत्या के लिए आरोपी बनाया गया था. तब शाह राज्य के गृह मंत्री थे. यह तब हुआ, जब राहुल की पार्टी दिल्ली में सत्ता में थी और सीबीआई का तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी को फंसाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. मोदी को कुचलने के लिए कांग्रेस की आक्रामकता के कारण शाह को नुकसान हुआ. मुंबई की एक विशेष सीबीआई अदालत ने सभी आरोपों से मुक्त कर दिया. देश के किसी भी पुलिस स्टेशन में कहीं भी, किसी भी अपराध में वह ‘आरोपी’ नहीं है, सिवाए राहुल के अनुमानों को छोड़कर.’
संयोग से, राहुल गांधी कई करोड़ के नेशनल हेराल्ड घोटाले में अभी जमानत पर हैं. शनिवार को येदियुरप्पा के इस्तीफा देने के कुछ ही समय बाद कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया और मीडिया से कहा: ‘आपने खुले तौर पर देखा है कि प्रधानमंत्री ने कर्नाटक में विधायकों की खरीद के लिए कैसे अनुमति दी.’
सोमवार को एक कांग्रेस विधायक ने फेसबुक पोस्ट में दावा किया कि उनकी पार्टी द्वारा ‘बीजेपी को फ्रेम’ करने के लिए जारी ऑडियो टेप फर्जी है. पीटीआई के मुताबिक, बीजेपी के खिलाफ ‘हॉर्स ट्रेडिंग’ के आरोप साबित करने के लिए, कांग्रेस द्वारा जारी ऑडियो टेपों में से एक में, येदियुरप्पा के बेटे और एक सहयोगी के बीच एक कथित बातचीत है. इसमें कांग्रेस विधायक हैबर की पत्नी से बात करते हुए वे सुने गए कि उनके पति को पैसा और मंत्री पद दिया जाएगा, अगर वह फ्लोर टेस्ट के दौरान बीजेपी के पक्ष में क्रॉस वोटिंग करते है.’ हैबर ने कहा: ‘यह मेरी पत्नी की आवाज़ नहीं है और उसे ऐसी कोई कॉल नहीं आई. ऑडियो टेप नकली है. मैं इसकी निंदा करता हूं.’
इन उदाहरणों से पता चलता है कि मीडिया या चुनाव जैसे लोकतंत्र के औजारों को कमतर बनाने वाले और लोकतंत्र के स्वयंभू रक्षक कैसे लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर इसे ही कमजोर बनाने का काम कर रहे हैं.
मूल्य-आधारित राजनीतिक व्यवस्था!
पश्चिम बंगाल में भी इसी तरह का एक उदाहरण देखा गया. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जो खुद को लोकतंत्र के दूसरे ‘उद्धारकर्ता’ के रूप में खुद को देखना पसंद करती हैं, के शासन में हाल के दिनों के सबसे हिंसक पंचायत चुनाव हुए. फिर भी इसके लिए उनकी निंदा नहीं हुई.
फिर भी, ममता बनर्जी बीजेपी और प्रधानमंत्री को उन मूल्यों के नुकसान के लिए दोषी ठहराती है, जिसके क्षरण के लिए वो खुद दोषी है. वह ऐसा करने में सक्षम है, क्योंकि लोकतंत्र की खामियों (जो एक राष्ट्रीय प्रभुत्व वाली पार्टी के खिलाफ पक्षपातपूर्ण है) का इस्तेमाल उन पार्टियों द्वारा किया जाता है, जो एक साफ-सुथरी राजनीतिक खेल खेलने में असमर्थ हैं. लंबे समय में एक मूल्य-आधारित राजनीतिक व्यवस्था अपने ही विरोधाभासों के वजन से कुचलने जा रहा है.
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