लोकतंत्र पर कांग्रेसी उपदेश, जैसे शैतान खुद आयतें पढ़कर सुना रहा हो

अजय सिंह

साल 1996 का था. उस वक्त यूपी में विधानसभा के चुनावों के हुए बस चंद रोज बीते थे. कल्याण सिंह के आवास पर रिपोर्टरों की भीड़ थी. इस भीड़ में मैं भी शामिल था —हम सब यह टोहने में लगे थे कि देखें बीजेपी आगे क्या कदम उठाती है. बीजेपी को 425 में से 174 यानि सबसे ज्यादा सीटें हासिल हुई थीं लेकिन वह बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच पायी थी. अभी वो वक्त नहीं आया था कि न्यूज कवरेज के लिए सार्वजनिक जगहों पर टीवी वालों के कैमरे चारो तरफ से छा जायें सो खबर बटोरने वालों की उस भीड़ में एक तरतीब कायम थी. यही वजह रही जो सफेद एम्बेस्डकर कार एक आईएएस ऑफिसर को लेकर गेट तक पहुंची तो कहीं अफरा-तफरी ना मची, कोई शोर ना उठा.

यह ऑफिसर राज्यपाल रोमेश भंडारी का संदेशा लेकर आया था. उसने कल्याण सिंह से कुछ बातचीत की, कहा कि आप शपथ-ग्रहण समारोह की तैयारी करें. ‘ क्या आप बुलावे की कोई चिट्ठी लेकर आये हैं ? ‘ कद्दावर नेता कल्याण सिंह ने तनिक शंका के भाव से पूछ लिया था. ‘बुलावे की चिट्ठी आपको जल्दी ही मिल जायेगी,’ ऑफिसर ने उस जगह से अपनी रवानगी में कदम बढ़ाने से पहले जवाब दिया.

साल 1996 का अक्तूबर का महीना चल रहा था, यह 17 तारीख थी. 17 अक्तूबर की यह तारीख बहुत अहम थी क्योंकि संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति शासन को अधिकतम एक साल तक ही जारी रखा जा सकता है और 17 तारीख को वो समय समाप्त हो रहा था. साफ-साफ दिख रहा था कि राष्ट्रपति शासन खत्म हो जायेगा और राज्यपाल नये हुए चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें लेकर आने वाली पार्टी को सरकार बनाने का बुलावा देंगे.

लेकिन जो हुआ वो एकदम ही अप्रत्याशित था. घंटे भर के भीतर राज्यपाल रोमेश भंडारी ने निलंबित विधानसभा को एक खास फरमान के जरिए बहाल कर दिया, इसके बाद फिर से उसके निलंबन को जारी रखने का फैसला करते हुए राष्ट्रपति शासन को बहाल रखा. यह सारा कुछ एक झटके में हुआ, उन्होंने संविधान और अपने कदम के जायज-नाजायज होने के बारे में सोचा तक नहीं. भारतीय संविधान के इतिहास में यह एकलौता वाकया है जब एक निलंबित विधानसभा कुछ सेकेंड के लिए बहाल की जाती है और फिर उसे बगैर किसी कामकाज का मौका दिए फिर से निलंबित कर दिया जाता है.

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रोमेश भंडारी ( पिक्चर सोर्स: यूट्यूब )

रोमेश भंडारी ने ऐसे छल-छद्म का सहारा लेकर राष्ट्रपति शासन अगले छह माह तक जारी रखा और इस काम में उनके साथी कोई और नहीं बल्कि कांग्रेस तथा एचडी देवगौड़ा थे. देवगौड़ा 1996 के जून महीने में प्रधानमंत्री बन चुके थे. तब राज्यपाल के फैसले के समर्थकों ने उनके कदम को एक मास्टर स्ट्रोक माना था, सोचा था कि अयोध्या आंदोलन से पैदा सांप्रदायिकता की लहर को रोक लिया गया है. अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे बीजेपी के दिग्गज नेता एक अर्जी लेकर राष्ट्रपति- भवन जाने के सिवाय कुछ खास नहीं कर पाये थे और राष्ट्रपति अपनी तरफ से उन्हें कुछ खास दे नहीं पाये थे, बस धीरज के साथ दोनों की फरियाद सुन भर ली थी.

लेकिन उस घड़ी से अब तक बहुत कुछ बदला है. बीजेपी आज भारतीय राजनीति की धुरी बनकर उभरी है. बीते वक्त के शिष्ट-शालीन नेताओं के उलट पार्टी का नयी पीढ़ी का नेतृत्व अपने सियासी विरोधियों को उसी की जबान में सबक सिखाने को अब तैयार दिखता है.

यही वजह है जो आज कांग्रेस और जनता दल(सेक्यूलर) खुद को परम पवित्र जताते हुए हाय-तौबा मचा रहे हैं तो जनता पर इसका असर होने से रहा. बेशक, बीजेपी इस बात से आगाह है कि 224 सीटों वाली विधानसभा में पार्टी बहुमत के आंकड़े से सात सीटें पीछे रह गई है. लेकिन व्यावहारिक बात ये है कि पार्टी ने बीएस येदियुरप्पा को अपनी तरफ से मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी के रुप में पेश किया था और लोगों की एक बड़ी तादाद ने पार्टी की इस पसंद पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी है.

फर्स्ट-पास्ट द पोस्ट यानी सबसे ज्यादा वोट पाने वाले की जीत वाली पद्धति के दायरे में बीजेपी ने करीब-करीब बहुमत के आंकड़े तक पहुंचती तादाद में सीटें हासिल की हैं और पार्टी जनता की पहली पसंद बनकर उभरी है. यह तो निहायत भोलेपन की निशानदेही करती नाजायज सी दलील है कि कांग्रेस का वोटशेयर ज्यादा है. अगर इस दलील में दम होता तो फिर कांग्रेस ने सन् 1960 के दशक के बाद बहुत कम चुनाव जीते होते क्योंकि तब एकसाथ मिलाकर देखें तो लगभग तमाम दफे विपक्षी दलों को कांग्रेस से ज्यादा वोट मिले.

भले ही खतरा लगा हो कि येदियुरप्पा सरकार सदन में बहुमत साबित ना कर पाये लेकिन अपने बूते सरकार बनाने का यह मौका पार्टी हाथ से गंवा बैठती तो यह बड़ी बेवकूफी भरा कदम होता. इसकी वजह तलाशने के लिए बहुत दूर देखने की जरूरत नहीं. अगर पार्टी का नेतृत्व अपना दम-खम नहीं दिखाता और आगे बढ़कर सरकार बनाने की दावेदारी नहीं जताता तो जो मतदाता बीजेपी चुनाव में बीजेपी के साथ दिखे थे उन्हें गहरी निराशा होती. स्थिति 1996 में उत्तरप्रदेश मे हुए विधानसभा चुनावों से अलग है. तब पार्टी(यूपी में) बहुमत के आंकडे से दूर रह गई थी लेकिन कर्नाटक में पार्टी बहुमत के आंकड़े को छूने के एकदम करीब है.

उधर येदियुरप्पा के सीएम बनने के बाद अब कांग्रेस और जेडीएस को अपने विधायकों की सुरक्षा की चिंता और अधिक सताने लगी है. खबर है कि दोनों पार्टियां अपने विधायकों को ईगलटन रिज़ॉर्ट से किसी दूसरी जगह शिफ्ट करने की सोच रही हैं.

जो लोग सोच रहे हैं कि कांग्रेस और जेडीएस लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहे हैं वे या तो बेवकूफों के बहिश्त में रहते हैं या फिर वे जानते-बूझते नैतिकता और सदाचार का भरम पाल रहे हैं. अगर आप कांग्रेस और जेडीएस के नेताओं की जगजाहिर तूतू-मैंमैं को सुनें तो आपके आगे आईने की तरह साफ हो जायेगा कि दोनों दलों में विचार की जमीन पर रत्ती भर भी मेल नहीं है. दोनों दल अभी साथ आये हैं तो इसलिए कि सियासत के महाभोज में जमकर खायें-अघायें और ऐसे महाभोज की कर्नाटक में कोई कमी नहीं है.

जो लोग कर्नाटक को करीब से जानते हैं वे इस बात को जरूर ही मानेंगे कि कांग्रेस-जेडीएस का गठजोड़ अंदरूनी तौर पर बहुत नाजुक है और दोनों का मेल प्रशासन का भट्ठा बैठाने की कीमत पर ही कायम रह सकता है. ऐसी स्थिति में, बीजेपी का सरकार बनाने की कोशिश उतना खराब नहीं जितना कि एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठाना. और, इसमें कोई शक नहीं कि बीजेपी अपनी रणनीति में कामयाब रहती है तो वह कर्नाटक में एक स्थिर सरकार देगी.

एक ऐसे वक्त में जब सियासी तिकड़मों ने करीब-करीब वही शक्ल अख्तियार कर ली है जो अंडरवर्ल्ड की दुनिया में चला करती है, एक नये किस्म के व्याकरण का जन्म हुआ है जिसने चलती हुई कहानी को सिरे से बदलकर रख दिया है. सच्चाई ये है कि यह सबसे खर्चीला चुनाव था और इस सच्चाई के बरक्स कांग्रेस का नैतिकता, सदाचार तथा लोकतंत्र का उपदेश कुछ वैसा ही जान पड़ता है जैसे कि शैतान खुद आयतें पढ़कर सुना रहा हो.

कांग्रेस ने सियासत को अंडरवर्ल्ड की दुनिया में चलने वाले दांव-पेंच में तब्दील करने में जितनी बड़ी भूमिका निभायी है, शायद उतनी किसी और पार्टी ने नहीं. यह मानकर चलना कि कर्नाटक में सियासत आदर्श की राह पर चलेगी- सोच का भोलापन है. बहरहाल, कांग्रेस अगर सचमुच इस बात को लेकर संजीदा है कि राजनीति आदर्शों की राह पर चले तो फिर वो आगे बढ़े और बीते वक्त के अपने कुकर्मों के लिए प्रायश्चित करे, कसम उठाकर ऐलान करे कि चाहे जो भी हो जाये लेकिन आगे के वक्त में कांग्रेस सिर्फ सच्चाई, नैतिकता और सदाचार के रास्ते पर चलेगी ! क्या राहुल गांधी ऐसा कर सकते हैं ?

 

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