विधि आयोग ने सरकार से कहा, अदालत की अवमानना की परिभाषा को सीमित मत कीजिए

नई दिल्ली।  विधि आयोग ने  ‘अदालत की अवमानना’ की परिभाषा सीमित करने के कानून मंत्रालय के सुझाव का समर्थन नहीं किया. आयोग ने कहा है कि कानून में संशोधन के बावजूद अदालतें अपनी अवमानना के लिए लोगों को सजा देने की शक्ति का प्रयोग अब भी कर सकती हैं क्योंकि इसका अधिकार उन्हें किसी कानून से नहीं अपितु संविधान से प्राप्त होता है.

मंत्रालय के न्याय विभाग ने आयोग से अवमानना की परिभाषा को केवल ‘अदालत के निर्देश या फैसले की जानबूझकर अवज्ञा’ तक सीमित करने के लिए अवमानना अधिनियम 1971 में संशोधन पर विचार करने का अनुरोध किया था. विभाग ने एक अन्य उपबंध ‘ आपराधिक अवमानना ’ को हटाने का भी अनुरोध किया था जिसमें ‘अदालत को बदनाम करना’ भी शामिल है.

आयोग ने मंगलवार को सरकार कौ सौंपी अपनी रिपोर्ट
आयोग ने मंगलवार को सरकार को सौंपी एक रिपोर्ट में कहा ,’… ‘ आपराधिक अवमानना ’ से संबंधित प्रावधान हटाने के सुझाव का उच्च अदालतों ( उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायलय ) की अवमानना ( आपराधिक अवमानना सहित ) करने पर सजा देने की शक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि उनके पास अंतर्निहित संवैधानिक शक्तियां हैं और ये शक्तियां वैधानिक प्रावधानों से अलग हैं.’ अवमानना के लिए सजा की शक्ति कानून से नहीं आती है बल्कि यह प्रक्रियागत व्यवस्था है जो इसे लागू करती है.

आयोग ने सरकार को आगाह करते हुए कहा कि कानून लागू होने से पहले से उच्च अदालतों द्वारा इन अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग किया जा रहा था. अत : उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की अवमानना की शक्तियां कानून से स्वतंत्र हैं , इसलिए इस तरह का कोई संशोधन संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 के तहत अवमानना के लिए सजा देने की उच्च अदालतों की शक्ति को कमतर या इसे खत्म नहीं किया जा सकता.

कानून के अनुसार , आपराधिक अवमानना का तात्पर्य ऐसी किसी भी चीज से है जो किसी अदालत को ‘अपमानित’ या ‘अपमानित करने का प्रयास’ करती हो.

 

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