संविधान को ताक पर रख इंदिरा गांधी ने लगाई थी इमरजेंसी

नई दिल्ली। 43 साल पहले की ‘इमरजेंसी’ घोर राष्ट्रीय विपदा थी, जिसे इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए लगवाया था। वैसे तो उसकी कोई जरूरत नहीं थी, अगर उनकी तानाशाही को कांग्रेस रोक पाती। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी माना है कि वह टालने योग्य घटना थी। वह घटना थी या दुर्घटना। इसके बारे में अलग-अलग मत हैं।

जबकि इमरजेंसी के बारे में सारे तथ्य हमारे सामने हैं तब उसके हर स्याह-सफेद पक्ष से नई पीढ़ी को अवगत कराया जा सकता है। पहली बात जो बतायी जानी चाहिए वह यह है कि इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर इमरजेंसी लगाई थी। दो काम किए थे। पहला कि राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद को गहरी नींद से आधी रात में जगाया गया।

तारीख थी 25 जून, 1975 उनसे जबरन दस्तखत करवाए गए। दूसरा कि मंत्रियों को अगले दिन सुबह नींद से जगा-जगा कर बुलाया गया। मंत्रिमंडल की जैसे तैसे बैठक हुई। उसमें इमरजेंसी लगा दिए जाने की सूचना दी गई। किसी मंत्री ने कोई सवाल नहीं पूछा। सब बहुत भयभीत थे। तब विपक्ष असावधान था। असंगठित था। लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व को वह अपने लिए और लोकतंत्र के लिए रामबाण समझता था।

इसके अनेक प्रामाणिक तथ्य आ गए हैं। इमरजेंसी की आहट को विपक्ष ने अपनी असावधानी में नहीं सुना। इलाहाबाद का मुकदमा जैसे-जैसे आगे बढ़ा यह बात साफ हो गई थी कि इंदिरा गांधी हार सकतीं हैं। लोकतंत्र का गला घोंटकर प्रधानमंत्री पद पर बने रहने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकतीं हैं। इसके लक्षण आकाश में तैर रहे थे। विपक्ष ने उसे समझने की कोशिश नहीं की। तथ्य आ गए हैं कि इंदिरा गांधी ने बेहद सावधानी से चतुर चाल चली।

इंदिरा गांधी के लिए तीन दुखद घटनाएं

एक पखवाड़े पहले ही इमरजेंसी के लक्षण प्रकट होने लगे थे। शुरूआत हुई, 12 जून, 1975 से। वह इंदिरा गांधी के लिए गहरी उदासी का दिन था। उनके लिए तीन दुखद घटनाएं हुई। डीपी धर का देहांत, इलाहाबाद हाईकोर्ट का खिलाफ फैसला और गुजरात विधानसभा में कांग्रेस की पराजय। इन घटनाओं का क्रम भी उसी तरह है जिस तरह यहां उल्लेख किया गया है। उस दिन के बाद से जो प्रायोजित प्रदर्शन इंदिरा गांधी के समर्थन में हो रहे थे वे यह जानने के लिए साफ संकेत थे कि प्रधानमंत्री का इरादा क्या है।

चंडीगढ़ की जेल में जेपी ने अपनी और विपक्ष की असावधानी को स्वीकार भी किया। उन्होंने माना कि ‘मैं सोच नहीं सका कि इंदिरा गांधी इस हद तक जा सकती हैं। अगर वे इमरजेंसी लगाने की सोचेंगी और लोकतंत्र की हत्या करेंगी तो मैं समझता था कि कांग्रेस वैसा होने नहीं देगी।’ इस कबूलनामे में यथार्थ को झुठलाया गया है।

उसकी अनदेखी की गई। यह सही है कि जवाहर लाल नेहरू की बेटी से जेपी को इसकी आशंका नहीं रही होगी। लेकिन यथार्थ तो कुछ और था। कई सालों से कांग्रेस इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी की घरेलू पार्टी हो गई थी। उसमें लोकतंत्र कहां बचा था? जहां असहमति की कोई गुंजाइश न हो वहां इमरजेंसी स्वाभाविक परिणति थी। विपक्ष से उम्मीद थी कि वह इसे सबसे पहले समझेगा।

वह असावधान रहा। तभी तो विपक्ष के सारे नेता औचक पकड़े गए। अगर वे सावधान होते तो देश को आगाह करते। जरूरत पड़ने पर संघर्ष के लिए एक संदेश छोड़ जाते। जैसा 8 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी कर गए थे। तब लोगों ने अपने विवेक से स्वतंत्रता संग्राम की आखिरी लड़ाई को अंजाम दिया।

1975 में स्वाधीनता संग्राम से निकले लोकतंत्र को जब इंदिरा गांधी ने नष्ट कर दिया तब सन्नाटा छा गया। पूरे देश को गहरा सदमा लगा। उससे उबरने में छ: माह लग गए। तब कहीं जाकर लोकतंत्र की वापसी का संघर्ष प्रारंभ हुआ। लेकिन उस संघर्ष के परिणाम स्वरूप इमरजेंसी नहीं हटी। वह तो हटी इसलिए कि इंदिरा गांधी को भरोसा हो गया था कि उनकी तानाशाही पर लोकतंत्र की मुहर लोग लगा देंगे। इसलिए चुनाव करवाया, जो उनकी पराजय का कारण बना। लोकतंत्र लौट आया।

 

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