सुरक्षित है राजकपूर का कैमरा, सहगल का हारमोनियम व प्राण की शायरी

मुंबई: यू-ट्यूब  बाकी माध्यम पर आपको दादा साहेब की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के विजुअल्स नजर आ जाते होंगे  अगर आप यह मान बैठे हैं कि वह ओरिजिनल फिल्म है, तो आप गलत हैं. चूंकि वह फिल्म तो बर्बाद हो चुकी थी. मगर ज़रा सोचिये, आर के स्टूडियो के कई हिस्से बर्बाद होने के बावजूद राज कपूर के वो स्पेशल कैमरे अब भी किसी इंसान ने सुरक्षित रखे हैं. के एल सहगल का हारमोनियम, देवदास की पीसी बरुआ वाली स्टॉप वाच आज भी उपलब्ध है तो जाहिर है कि सिनेमा से अत्यधिक लगाव रखने वाले सिने प्रेमियों की बांछें ख़ुशी से खिल उठेगी. संजोना सरल नहीं होता, लेकिन इसके बावजूद किसी एक आदमी ने इसे संभव कर दिखाया है.

Image result for सुरक्षित है राजकपूर का कैमरा

फिल्में बनने में कई वर्ष लगते हैं. थियेटर तक पहुंचने के बाद सिर्फ तीन घंटे. अच्छी रही तो चंद हफ्ते.बहुत अच्छी रही तो कुछ महीने  फिर उस फिल्म का चैप्टर क्लोज़. फिर वो फिल्म इतिहास का पन्ना बन जाती है. दिलचस्पी हुई तो कभी सैटेलाइट चैनलों के माध्यम से दोबारा देख लिया लेकिन इसके बाद आगे? आगे कुछ नहीं. फिर कई वर्षों बाद जब वह फिल्में कल्ट बन जायें, जो कभी बॉक्स ऑफ़िस पर सफल नहीं हुई थीं. चाह कर भी अगर उसे इतिहास के पन्नों में तलाशने की प्रयासकी जाये तो कहीं कोई दस्तावेज नहीं मिलता. अभी हाल ही में 14 मार्च 2018 में हिंदुस्तान की पहली बोलती फिल्म आलम आरा ने 87 साल पूरे किये लेकिन दुर्भाग्य है कि इस फिल्म के कोई भी दस्तावेज आज मौजूद नहीं हैं. यहां तक कि पोस्टर भी नहीं. आलम आरा ही नहीं, ऐसी कई फिल्में प्रिर्जवेशन के बगैर आज अस्तित्व में हैं ही नहीं लेकिन इसी बीच एक बड़ी उम्मीद की किरण बन कर शिवेंद्र सिंह डुंगरापुर आये हैं, जिनका जुनून फिल्में बनाना तो हैं ही लेकिन उन्होंने इस बात को अधिक तवज्जो दी है कि इतिहास को समेटना  संजोना कितना महत्वपूर्ण है. फिल्मों के प्रति इसे शिवेंद्र का सिर्फ जुनून नहीं बोला जा सकता, बल्कि सिनेमा के प्रति यह उनका सम्मान भी है, कि उन्होंने सिनेमा के इतिहास को यूं सहेजने की एक बड़ी प्रयास को मुक्कमल किया है. फिल्म हेरिटेड फाउंडेशन, जो कि एक नॉन प्रोफिट फाउंडेशन है, शिवेंद्र ने इसका गठन साल 2014 में किया हिंदुस्तान की उन तमाम फिल्मों से जुड़े कैमरे, कॉस्टयूम, माइक, पोस्टर्स, रील्स  निगेतिव्स को सहेजना प्रारम्भ किया.

शिवेंद्र की फिल्म ‘द सेल्योलॉयड मैन’ पीके नायर को समर्पित थी. पीके नायर वह शख्स थे, जिन्होंने पुणे फिल्म इंस्टीटयूट में फिल्मों के संग्राहालय पर अनूठा कार्य किया. शिवेंद्र को यह सोच वही से मिली. साथ ही उन्हें खुद फिल्मों को देखने का शौक रहा. यही वजह रही कि अपने जुनून को ही एक आकार देकर उन्होंने फिल्म हेरिटेज का निर्माण किया  आज उन्हें हिंदुस्तान के ही विश्व सिनेमा के भी कई फिल्मकारों का सपोर्ट मिल रहा है. आपको जानकार हैरानी हो सकती है कि शान-ओ-शौकत  कई शौक रखने वाले शहर मुंबई में शिवेंद्र के शौक कार या बंगला नहीं बल्कि फिल्मों की सुरक्षा को लेकर समर्पण है. चौकीदार के रूप में शिवेंद्र ने अपनी फिल्मेकिंग की कमाई से इस महंगे शौक को पाला है  वह बिना किसी बड़े बजट के जी जान से जुटे हैं. फिल्मों का संरक्षण सस्ता कार्य नहीं है.इसके बावजूद शिवेंद्र के हौसले नहीं टूटे हैं. श्याम बेनेगल, गुलजार, जया बच्चन, विशाल भारद्वाज, मणिरत्नम जैसे निर्देशकों का साथ मिल रहा है. लेकिन खास बात यह है कि सिर्फ हिंदी सिनेमा नहीं बल्कि विश्व सिनेमा की संसार के हस्ताक्षर रहे निर्देशकों ने भी योगदान के लिए हाथ आगे बढ़ाया है.यह शिवेंद्र की मेहनत का ही नतीजा है कि क्रिस्टोफर नोलान जैसे निर्देशक हिंदुस्तान आने का न्यौता स्वीकार कर रहे हैं  न सिर्फ वह हिंदुस्तान आ रहे हैं, बल्कि फिल्म प्रेसेर्वेशन को लेकर चर्चा करने वाले हैं. 30मार्च से लेकर 1 अप्रैल तक क्रिस्टोफर नोलान कई गतिविधियों का भाग होंगे. इस पूरे प्रोग्राम का आयोजन शिवेंद्र कर रहे हैं  उन्हें कई निर्देशक सपोर्ट कर रहे हैं.

खुद श्याम बेनेगल यह बात स्वीकारते हैं कि फिल्म के संरक्षण का कार्य एक सरल कार्य नहीं है  कोई भी आदमी इसे तब तक नहीं कर सकता  इसके महत्व को नहीं समझ सकता जब तक वह इसे लेकर पैशिनेट न हो. वो कहते हैं “ शिवेंद्र में मुझे वह पैशन नजर आया  इसलिए मैंने उन्हें सपोर्ट करने का फैसला लिया अन्यथा कितने लोग हैं, जो बिना किसी फायदे के अपने खर्चे  मेहनत पर छोटी सी टीम के साथ इस तरह का कार्य करने निकल पड़े हैं. श्याम कहते हैं “मैं शिवेंद्र को कई वर्षों से जानता हूं  वह अपने कार्य में ईमानदार हैं, यह भी जानता हूं. इसलिए मैंने मेरे पास जो भी चीजें थीं, वह मैंने इन्हें दे दी”. श्याम बेनेगल  शिवेंद्र ने मीडिया रिपोर्टर को बताया –

कैसे पड़ी नींव?

शिवेंद्र बताते हैं कि 2014 में उन्होंने इस फाउंडेशन की आरंभ की थी. मेरी फिल्म थी सेल्युलाइड मैन.बहुत कम होता है कि आप किसी अपने कार्य से ही प्रभावित होते हैं  उसे लेकर आगे बढ़ते हैं इस फिल्म में मैंने पीके नायर का सहयोग दिखाया था कि किस तरह वह सिनेमा से जुड़ीं चीजें संजोते हैं.उनसे ही मुझे प्रेरणा मिली कि मुझे ऐसा कार्य करना करना चाहिए. शिवेंद्र कहते हैं कि फिल्में खो जाती हैं, ये कभी सोचते नहीं थे हम. लोग फिल्में बनाते हैं  फिर भूल जाते हैं लेकिन मुझे लगा कि फिल्मों में इतना कुछ खो चुका है इतनी फिल्में थीं, जिन्हें देख कर हम बड़े हुए हैं. उन फिल्मों का नामोंनिशाँ भी अब नहीं है. मेरा बचपन फिल्मों के साथ बीता है. मेरे लिए यह दर्पण था. मैं हाथी मेरे साथी से लेकर संतोषी माता तक देखा करता था. इसी वजह से मैंने इस फाउंडेशन की आरंभ की.श्याम बेनेगल इसके एडवाईजर प्रमुख बने. फिर गुलजार साहब, कमल हसन जैसे नाम जुड़े. यह जब स्थापित हुआ तो मुझे यह समझ आया कि यह सिर्फ मुंबई फिल्म इंडस्ट्री तक सीमित नहीं रखना है.पूरे भारत के लिए हैं. यह चैलेंज था. हम 2000 फिल्में बनाते हैं लेकिन बचाते कितनी हैं? ऐसे में मैंने तय किया कि हम इस संगठन से सिर्फ फिल्मों को ही नहीं, लॉबी कार्ड्स, स्क्रिप्ट्स, दुर्लभ फोटोज़जैसी चीजें, पोस्टर्स, शूटिंग ऑब्जेक्ट्स, शूटिंग के सामान, सब कुछ इकठ्ठा करेंगे. इसमें सबसे बड़ी कठिनाई है कि हमें सपोर्ट बहुत कम मिलता है लेकिन श्याम बेनेगल जैसे लोगों का साथ मिला.

शिवेंद्र बताते हैं कि श्याम बाबू से उनका जुड़ना गुलजार के वजह से हुआ. गुलजार ने उन्हें राय दी थी कि अगर फिल्मों के बारे में सीखना है तो आपको फिल्म संस्थान जाना ही होगा तो मैं वहां गया लेकिन मैं वापस आ गया. फिर गुलज़ार जी ने श्याम जी को फोन कर दिया कि ये बच्चा जा रहा है.श्याम बाबू ने बाद में अपनी सारी चीजें मुझे दे दी. अपनी फिल्में, डाक्यूमेंट्री मुझे सौंप दी.

जया बच्चन ने सौंपी अमिताभ की फिल्में

शिवेंद्र बताते हैं कि जया बच्चन ने उन्हें अमिताभ  अपनी कई फिल्मों से जुड़ी चीजें मुहैया कराई हैं.शिवेंद्र ने बताया कि उन्हें बहुत ज्यादा आश्चर्य हुआ जब वह अमिताभ के घर गए तो उन्होंने देखा कि बकायदा फिल्मों के डाक्यूमेंटेशन के लिए उन्होंने एक कमरा बनवा रखा है, जिसे प्रॉपर तरीके से मौसम के अनुकूल सारी सुविधाएं देकर रखी गई हैं, ताकि फिल्में सुरक्षित रहें.

के एल सहगल का हारमोनियम , पीसी बरुआ की स्टॉप वाच

शिवेंद्र बताते हैं कि कुंदन शाह के देहांत से एक महीने पहले उनकी मुलाक़ात कुंदन से हो गई थी उन्होंने अपनी सारी फिल्में, स्क्रिप्ट  फिल्म से जुड़ीं चीजें मुझे सौंप दी. उनके अतिरिक्त आपको जानकार हैरानी होगी, मगर हकीकत है कि शिवेंद्र अपने हेरिटेज में के एल सहगल का हारमोनियम संजोने में सफल रहे हैं. वहीं पी से बरुआ जैसे निर्देशक जिन्होंने देवदास जैसी फिल्म बनाई उस फिल्म के सेट पर जो स्टॉप वाच का प्रयोग हुआ था, वह भी अब तक सुरक्षित रखने में सफल हो गए हैं. वह कहते हैं कि डबिंग उस दौर में उस स्टॉप वाच इसलिए थी कि सहगल  जमुना को टाइम कर पाएं. बरुआ के नोट्स, उनके टाई,पोशाक, वह सब कुछ बहुत ज्यादा हिफाजत से शिवेंद्र ने संभाल कर रखा है. शिवेंद्र कहते हैं कि यह मेरा लक रहा  सिनेमाप्रेमियों के लिए एक बड़ी धरोहर रही कि आरके स्टूडियो में आग लगने  बहुत ज्यादा कुछ बर्बाद होने के पहले ही शिवेंद्र को रणधीर कपूर से मिलने का मौका मिला. उन्हें राज कपूर का एक बहुत ही जरूरी कैमरा मिला, जो उनकी फिल्में श्री 420, आवारा के दौरान प्रयोग हुआ था. वह भी अब सुरक्षित है.

प्राण की लाइफ़ का डाक्यूमेंटेशन

शिवेंद्र बताते हैं कि प्राण के बारे में लोग कम जानते होंगे कि उन्होंने अपनी जिंदगी को  उससे जुड़ी अहम चीजों का सही तरीके से डाक्यूमेंटेशन किया है. उनके परिवार ने सोचा कि सबसे अच्छी स्थानफिल्म हेरिटेज फाउन्डेशन ही हो सकता है. प्राण साहब के लेटर्स हैं उर्दू की उनकी पोएट्री है. उनके फोटोग्राफ, उनकी पेंटिंग्स है, उनकी ट्रॉफीज़, उनके फैन मेल्स सब हैं. प्राण साहब को आदत थी कि वह अपने साइनिंग अमाउंट के बारे में लिख कर रखा करते थे. उन्होंने हर वस्तु संभल कर रखी  अब सब कुछ शिवेंद्र के पास सुरक्षित हैं.

सुनील दत्त की डायरी

शिवेंद्र बताते हैं कि सुनील दत्त को डायरी लिखने का शौक हमेशा से था. वह जब किसी फिल्म की शूटिंग पर जाते थे तो वहां वह इसे लिखा करते थे. सुजाता के दौरान जो कुछ भी था. साधना जो कि कम लोगों से मिला करती थीं, उन्होंने शिवेंद्र को कई चीजें सौंपी है. साधना का हेयर कट क्यों फेमस हुआ  उन्होंने क्यों वैसा कट लिया था. इसका पूरा रिसर्च मैटर उनके पास है. उनकी पूरी स्टडी उनके पास हैं. तरुण बोस, जो को बिमल रॉय से जुड़े रहे, उनकी बेटी ने सत्यकाम के कॉस्टयूम  लेटर्स दिए.तरुण  बिमल बहुत ज्यादा अच्छे फोटोग्राफर थे.

क्यों महत्वपूर्ण है संरक्षण

शिवेंद्र बताते हैं कि इन सबके अतिरिक्त उनके पास 500 से अधिक फिल्में हैं. फरहान  जोया की फिल्में हैं. मणिरत्नम ने अपनी फिल्में दी हैं. शिवेंद्र कहते हैं कि वर्ल्ड के इतने बड़े निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन ने खुद हमारे कार्य को देख कर अपनी तरफ से ख़त लिखा था कि आप जो कार्य कर रहे हैं, वह बहुत जरूरी है  हम आपके कार्य से बहुत प्रभावित हैं, हम चाहते हैं कि हम आकर आपको सपोर्ट करें  इसके अतिरिक्त हमारा एक कार्यक्रम है रेफ्रेनिंग ऑफ़ थे फ्यूचर, तो इस पर हम बात करना चाहेंगे  यही वजह है कि इस प्रोग्राम का आयोजन हो रहा है.

आलम आरा न होने का अफ़सोस

श्याम बंगाल बताते हैं कि यह एक जरूरी बात है कि इस पर भी सोचा जाये कि आप कितने वक़्त तक  किस कन्डीशन में फिल्मों को संरक्षित कर सकते हैं. श्याम की यह चिंता है कि मुंबई जो कि चारों तरफ से समुद्र से घिरा है, ऐसे में फिल्मस करेक्ट कन्डीशन रख पाना कितना मुश्किल है. यह एक बड़ी चिंता है. श्याम कहते हैं कि चाहे कितना भी हो, चीजों को नमी से बचाना टफ है लेकिन वह शिवेंद्र की तारीफ़ करते हैं कि उन्होंने अब तक बिना किसी योगदान के सारा बंदोवस्त किया है  वह हर हाल में फिल्मों को बचाने की प्रयास कर रहे हैं. शिवेंद्र  श्याम कहते हैं कि इस बात का सबसे बड़ा अफ़सोस है कि आलम आरा को हमने खो दिया. आज हमारे पास कुछ भी नहीं. दुःख इस बात का भी है कि उस दौर के लोग खुद ही सबकुछ डिस्ट्रॉय कर देते थे क्योंकि सिल्वर  नाइट्रेट इतनी मात्रा में होता था कि वह बर्बाद कर दिया जाता था या लोग उसको बेच देते थे. सर्देशर ईरानी के बेटे शापूर थे ने बताया था कि पिताजी को मालूम नहीं है, लेकिन उन्होंने सिल्वर के लिए बहुत ज्यादा कुछ बेंच दिया है. श्याम बताते हैं कि उस वक़्त लोग ये खूब बेचा करते थे. शिवेंद्र बताते हैं कि जब न्यूमेटिक आया तो टेलीविजन  फिर डिजिटल का महत्व जाना लेकिन तब तक बहुत ज्यादा कुछ बर्बाद हो चुका था. वह कहते हैं कि 1700 फिल्में बनी हैं साइलेंट फिल्मों में. सिर्फ चार  पांच ही फिल्में बची हैं. आप कह सकते हैं साइलेंट इरा की 99 प्रतिशःत फिल्में खो चुकी हैं. शिवेंद्र कहते हैं कि सिर्फ इंडिया में नहीं वर्ल्ड में लोगों ने साइलेंट एरा को नहीं सहेजा है. सिर्फ यादें रह गयी हैं.

राजा हरिश्चंद्र की फिल्म 1913 वाली नहीं 1917 वाली है

शिवेंद्र कहते हैं कि जो सेल्युलाइड रहता है, उसमें तीन लेवल में आपको उसको बचाना होता है. आपके पास पहले जो फिल्में बनती थीं, वह अति ज्वलनशील होती थीं तो जल्दी आग पकड़ लेती थीं लेकिन जिनके पास आज भी वह नेगेटिव नाइट्रेट फिल्म है उसकी क्या क्वालिटी होती है. शिवेंद्र एक दिलचस्प बात यह बताते हैं कि लोग मानते हैं कि दादा साहेब फाल्के की फिल्म राजा हरिश्चंद्र1913 में आयी थी. लोग मानते हैं कि आज जो भी फूटेज मौजूद हैं. वह आज संरक्षित हैं. शिवेंद्र दावा करते हैं कि ये वो फिल्म नहीं है क्योंकि दादा साहेब जब बैलगाड़ी से यह फिल्म लेकर जा रहे थे तो वहां आग लग गई थी. तब 1917 में वह पूरी फिल्म रीशूट हुई थी  फिर उस फिल्म को हम देखते हैं.वह ओरिजिनल नहीं है लेकिन कम लोगों को ही इस बात की जानकारी होगी. हमारे पास जो कलियाँ मर्दन है वह 1919 में आयी. उसकी भी ऐसी ही कहानी है.

उधर फिल्में जल रही थीं, इधर देव आनंद खुश थे

शिवेंद्र कहते हैं कि मुंबई के एवेरेस्ट इलाके में ही राजकपूर की सारी फिल्में बनती थीं. कई बड़े लोगों की फिल्में यहीं प्रोसेस होती थी. याद हो तो देव आनंद की फिल्म थी फंटूस, उसमें एक सीन था, देव आनंद फायर में घुसते थे. वह यही पर हुआ था. वहां नाइट्रेट की बिल्डिंग थी. वह 1950 में जल गई थी. देव आनंद बहुत खुश हुए थे कि वहां आग लगी जो कि दरअसल, सारी फिल्में थीं. वहां आकस्मितआग लगी  देव आनंद इस बात से अनजान थे कि कि ओरिजिनल आग लग गई है. फायर के अधिकांश सीन वही होते थे. श्याम बताते हैं कि हालत यह हुई थी कि बहुत ज्यादा वक़्त तक वहां बिल्डिंग नहीं बन पायी. श्याम कहते हैं किसी दौर में मुंबई के ताड़देव इलाके में ही फिल्मों की पूरी शूटिंग होने के बाद पोस्ट प्रोडक्शन का कार्य होता था. अर्देशर ने सारी फिल्मों का कार्य यही किया था.रिकॉर्डिंग स्टूडियोज होते थे. धीरे-धीरे दादर  अँधेरी तो बहुत बाद में शिफ्ट हुए. यह सेंटर हुआ करता था. ज्योति स्टूडियो जहां आलम आरा शूट हुई थी, ज्योति सबसे पहला स्टूडियो था मुंबई में.फिर सोहराब मोदी का स्टूडियो भी इसी इलाके में था. पतेल्स का स्टूडियो यही था. श्याम कहते हैं कि यह भी एक दिलचस्प बात है कि साइलेंट सिनेमा की सारी फिल्में मुंबई के ताड़देव इलाके में ही शूट हुई थी.

फिल्म आर्काइव्स में फिल्में यूं ही पड़ी बर्बाद हो रही थी

शिवेंद्र बताते हैं कि 1931 के बाद नित्रेट को काउन्टर करने के लिए एसिटेट होता था, जो कि एक विनेगर सिंड्रोम में लाया गया. अगर उसे सही तरीके से न रखा जाए तो फिल्में गल जाती थीं  स्मेल आ जाती थी. श्याम कहते हैं कि उनकी अपनी फिल्में भी एसिटेट पर शूट होती थीं तो कई फिल्में उनकी भी समाप्त हो चुकी हैं. हालांकि जो भी मेरे पास है अब वह डीवीडी के रूप में बची हैं  कुछ ओरिजनल शिवेंद्र के साथ हैं. मंडी नेगेटिव, सुषमा बुरे कंडीशन में है, आरोहन अच्छा कंडीशन में है.बहुत सारे नेगेटिव नहीं हैं. जुबैदा के नेगेटिव उसके प्रोड्यूसर के पास हैं. श्याम मानते हैं कि 20 वीं सदी की तकनीक सिनेमा के लिए बनी थी. तकनीक थी, अन्यथा कोई सिनेमा नहीं होता. पेंटिंग बाकी चीजों का समय समाप्त हो सकता है लेकिन साउंड को आप संरक्षित कर सकते हैं. सिनेमा के साथ जो होना चाहिए, इसे कई उपायों से  बेहद ही सोफिस्केटेड तरीके से संजोने की आवश्यकता है  सिर्फ नेशनल फिल्म आर्काइव पर हम निर्भर नहीं रह सकते, क्योंकि गवर्नमेंट कभी भी सिनेमा को लेकर उस कद्र गंभीर नहीं होगी कि उसे संरक्षित करे. सिनेमा को संरक्षित करने के लिए हर हाल में वैसे आदमी की जरुरुत है जो इसे व्यक्तिगत रूप से सँभालने की प्रयास करे  शिवेंद्र वह कर रहे हैं.श्याम कहते हैं कि मुझे याद है कि मैंने खुद देखा है कि नेशनल आर्काइव्स के बरामदे में फिल्में पड़ी थीं  उसका ख्याल रखने वाला कोई था. सूरज की तपिश में फिल्में सड़ रही थीं.

 

देश-विदेश की ताजा ख़बरों के लिए बस करें एक क्लिक और रहें अपडेट 

हमारे यू-टयूब चैनल को सब्सक्राइब करें :

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें :

कृपया हमें ट्विटर पर फॉलो करें:

हमारा ऐप डाउनलोड करें :

हमें ईमेल करें : [email protected]

Related Articles

Back to top button