सोनिया का मायावती के साथ दिख रहा अपनापन कितना असरदार रहेगा?

अमितेश

बेंगलुरु में एच डी कुमारास्वामी के शपथ ग्रहण समारोह के मौके पर सोनिया गांधी और मायावती के बीच बेहतर केमेस्ट्री देखने को मिली. मंच पर साथ आते ही मायावती ने सोनिया गांधी का हाथ पकड़कर काफी देर तक थामे रखा. वैसा ही अपनापन का अंदाज सोनिया का भी था. दोनों एक साथ मंच पर बैठे भी और विपक्षी एकता को दिखाने की बारी आई तो हाथ उठाकर एक सीरिज बनाने के वक्त भी सोनिया गांधी ने मायावती का हाथ पकड़ रखा था.

सोनिया और मायावती के बीच दिख रही गर्मजोशी में वो बात दिख रही थी जिसे आने वाले दिनों में एक बेहतर रिश्ते की शुरुआत माना जा सकता है. मंच राजनीतिक था, लिहाजा इस रिश्ते को राजनीतिक नजरिए और उसी चश्मे से ही देखा जाना चाहिए.

ममता ने बनाई दूरी लेकिन सोनिया और मायावती में दिखी गर्मजोशी

मोदी सरकार के चार साल पूरा होने के मौके पर सरकार जश्न की तैयारी में है. एक साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव की उल्टी गिनती भी शुरू हो चुकी है. ऐसे वक्त में विपक्षी नेताओं के जमावड़े और उसमें एक-दूसरे के प्रति दिख रही केमेस्ट्री का महत्व बढ़ जाता है. मंच पर मौजूद ममता बनर्जी कांग्रेस के नेताओं से दूरी बनाती दिखी, लेकिन, मायावती का एक अलग अंदाज था जो आने वाले लोकसभा चुनाव से पहले यूपी के भीतर बीजेपी को घेरने की कोशिश का ट्रेलर दिखा रहा था.

लेकिन, सोनिया गांधी के साथ गलबहियां करने वाली मायावती का अखिलेश यादव के प्रति भी व्यवहार दिखा रहा था कि अब बुआ और बबुआ के बीच की दूरी खत्म हो गई है. वर्षों पुरानी दरार जो अबतक दिख रही थी, वो खत्म हो गई है. शपथ ग्रहण समारोह में मायावती और अखिलेश भी एक साथ ही बैठे दिखे. दोनों ने मंच पर पहुंचने के बाद लोगों का हाथ हिलाकर एक साथ अभिवादन भी स्वीकार किया. तस्वीरें बता रही थी कि बीती बातों को भुलाकर आगे साथ मिलकर चलने की तैयारी हो रही है.

मायावती, अखिलेश और अजीत जोगी का साथ

इसकी एक झलक यूपी में गोरखपुर और फूलपुर में दिखी थी जब मायावती ने एसपी उम्मीदवार को समर्थन देने का फैसला किया था. नतीजा सामने था, बीजेपी की मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की रही लोकसभा सीट हाथों से निकल गई. अब चौधरी अजित सिंह की पार्टी आरएलडी के साथ मिलकर फिर से कैराना में इसी तरह की रणनीति बनाई गई है.

मायावती के साथ-साथ अखिलेश यादव और चौधरी अजित सिंह अगर साथ आ जाते हैं तो अगले लोकसभा चुनाव के पहले एक बड़ा गठबंधन दिख सकता है. कांग्रेस को भी इस बात का एहसास हो चला है. गोरखपुर और फूलपुर में कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ा था, लेकिन, चुनाव नतीजे आने के बाद उसे अपनी गलती का एहसास हुआ था. कांग्रेस के रणनीतिकार अब उस गलती से सबक लेने की तैयारी में हैं.

कांग्रेस की भी कोशिश है कि मायावती, अखिलेश और अजित सिंह के साथ मिलकर यूपी में महागठबंधन बनाया जाए जिससे मोदी लहर को 2019 में रोका जा सके. 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त सबने अलग-अलग चुनाव लड़ा था, जिसमें मायावती की पार्टी का खाता तक नहीं खुल पाया था. फिर 2017 के विधानसभा चुनाव के वक्त भी माजरा कुछ वैसा ही था. हालाकि इस बार विधानसभा चुनाव के वक्त एसपी के साथ कांग्रेस का समझौता हुआ था. नतीजा आने के बाद विपक्ष के सारे दावों को झुठलाते हुए बीजेपी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी.

2014 और 2017 से सबक लेकर अब तैयारी 2019 की हो रही है. मायावती और अखिलेश दोनों के बीच इस मुद्दे पर सहमति बनती भी दिख रही है. लेकिन, इस कोशिश में कांग्रेस की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है. कांग्रेस भी मोदी को रोकने के नाम पर मायावती और अखिलेश के पीछे चलने को तैयार दिख रही है.

सोनिया गांधी के साथ मायावती की गलबहियां और मायावती का भी उसी अंदाज में सोनिया गांधी के साथ गर्मजोशी से मिलना इस बात को दिखा रहा है कि भले ही ममता-सोनिया की केमेस्ट्री ठीक से नहीं बन पा रही हो, लेकिन, मायावती-सोनिया की केमेस्ट्री यूपी के भीतर बदलते सियासी समीकरण का एहसास कराने वाला है.

क्यों जरूरी है गठबंधन?

इसके पहले बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त भी जब धुर-विरोधी लालू और नीतीश ने हाथ मिलाया था तो उस वक्त भी दोनों के मिलने पर कांग्रेस उसमें जूनियर पार्टनर बनकर रह गई थी. लेकिन, बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस ने इसे सहजता से स्वीकार कर लिया था. महागठबंधन ने बीजेपी को पटखनी भी दी. ये बात अलग है कि बाद में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महागठबंधन से अलग होकर बीजेपी के साथ हाथ मिला लिया था.

यूपी विधानसभा चुनाव के वक्त भी जब महागठबंधन की बात चली तो उस वक्त भी नीतीश कुमार का नजरिया बिल्कुल साफ था. उनका मानना था कि यूपी में एसपी-बीएसपी के साथ आए बगैर महागठबंधन की कल्पना बेकार है. ऐसा नहीं होने पर नीतीश कुमार ने यूपी में महागठबंधन में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई. उस वक्त नीतीश कुमार विपक्षी कुनबे के केंद्र में माने जा रहे थे.

इतिहास भी इसका गवाह है जब 90 के दशक में मंदिर आंदोलन चरम पर था और हिंदुत्व की झंडाबरदार बन रही बीजेपी ने यूपी के भीतर ध्रुवीकरण के दम पर अपने-आप को बड़ी ताकत के तौर पर खड़ा किया था, तो फिर उसे रोकने के लिए मायावती-मुलायम ने हाथ मिला लिया था. ये दांव कारगर रहा और उस वक्त ताकतवर बीजेपी को दोनों ने मिलकर सत्ता से बाहर कर दिया था.

एक बार फिर से इतिहास ने करवट ली है. फिर से यूपी में बीजेपी मोदी लहर पर सवार है. जाति के बैरियर को तोड़कर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की राजनीति करने वाली बीजेपी ने यूपी में बड़ी ताकत के तौर पर अपने को खड़ा कर लिया है.

अब अखिलेश और मायावती दोनों की साथ आने की मजबूरी भी हो गई है. दोनों को अपने वजूद का खतरा भी नजर आ रहा है. कांग्रेस भी मोदी को हराने के लिए इन दोनों के पीछे-पीछे चलने को तैयार है. लिहाजा अब मायावती भी नरम दिख रही हैं और सोनिया भी. दोनों के बीच की केमेस्ट्री आने वाले दिनों में यूपी की सियासत की एक झलक पेश कर रही है.

 

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