क्या 2019 में बीजेपी के राष्ट्रवाद पर भारी पड़ेगा क्षेत्रवाद
संदीपन शर्मा
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) राष्ट्रवाद की पैरोकार मानी जाती है लेकिन लगता है कि बीजेपी के राष्ट्रवाद का पहिया क्षेत्रवाद के अवरोधों के बीच उलझ गया है. देश के अधिकतर राज्यों पर कब्जे के बाद भी बीजेपी खुद को धीरे धीरे अकेला पाती जा रही है वहीं दूसरी तरफ उसके सभी विरोधी आपसी अंतर्विरोधों के बावजूद एकजुटता के धागे में बंधते चले जा रहे हैं.
चंद्रबाबू नायडू ने आखिरकार एनडीए से बाहर निकलने का फैसला ले ही लिया लेकिन टीडीपी का एनडीए छोड़ने का फैसला और केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को एक अलग नजरिए से विश्लेषित करने की आवश्यकता है. दरअसल ये पूरा मसला एक राष्ट्रीय पार्टी और क्षेत्रीय पार्टी के हितों की लड़ाई से जुड़ा हुआ है.
जैसे ही कोई अखिल भारतीय पार्टी क्षेत्रीय क्षत्रपों को नजरंदाज करने की कोशिश करती है या उसे कम आंकने की कोशिश करती है तो दोनों के बीच संघर्ष अवश्यंभावी हो जाता है. यहां अभी अखिल भारतीय पार्टी के रोल में बीजेपी है तो क्षेत्रीय दल तेलगु देशम पार्टी है.
टीडीपी बीजेपी के पुराने साथियों में से एक है लेकिन उसे भी बीजेपी पर हमला करने के लिए बाध्य होना पड़ा क्योकि इसके अलावा उसके पास कोई और चारा नहीं बचा था. आंध्र प्रदेश के विशेष राज्य के दर्जे की मांग ठुकरा कर बीजेपी ने उसे किनारे लगाने की कोशिश की जबकि ये मुद्दा फिलहाल उसके लिए राजनीतिक और भावनात्मक रुप से सबसे ज्यादा जरुरी है.
नायडू के साथ कई राज्यों के नेता हैं बगावत को तैयार
राज्य के बंटवारे के समय आंध्र प्रदेश को हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए नायडू राज्य के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग कर रहे हैं ऐसे में नायडू का राजनीतिक भविष्य क्षेत्रवाद के इस अहम मुद्दे के साथ जुड़ा हुआ है जिसकी अनदेखी करना नायडू के लिए इस समय संभव नहीं है. नायडू की अपनी महत्वकांक्षाएं और योजनाएं हैं जो कि बीजेपी से मेल नहीं खाती है ऐसे में दोनों के राहों का जुदा होना स्वाभाविक था.
नायडू ही नहीं अलग अलग राज्यों के क्षत्रप भी केंद्र से बगावत करने के लिए तैयार बैठे हैं. ममता बनर्जी, चंद्रशेखर राव, मायावती, अखिलेश यादव, नवीन पटनायक और यहां तक कि उद्धव ठाकरे भी बीजेपी के खिलाफ विरोध का बिगुल फूंक चुके हैं.
ये बीजेपी की आक्रामकता को अपनी क्षेत्रीयता से मात देने की कोशिश कर रहे हैं. बीजेपी अपने आप को अखिल भारतीय पार्टी घोषित कर चुकी है और राष्ट्र को सबसे ऊपर रखने का दावा भी करती है, लेकिन बीजेपी के राष्ट्रवाद के नारों के बीच क्षेत्रवाद की बुलंद आवाज ने आज अपनी अलग पहचान बना ली है.
आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग पर आपसी मतभेदों के बावजूद भी परस्पर विरोधी दलों का एकजुट हो जाना 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले का एक बड़ा संकेत है. जब एक ही राज्य आंध्र प्रदेश में एक दूसरे के कट्टर विरोधी टीडीपी और वायएसआर कांग्रेस एक साथ एक ही मंच पर आ सकते हैं तो ऐसा दूसरे राज्यों में भी हो सकता है. बीजेपी को मजबूत टक्कर देने के लिए एक दूसरे के प्रबल विरोधी भी आपस में हाथ थामे नजर आ सकते हैं.
वैसे ये तो स्पष्ट है कि अभी कोई चुनाव नहीं चाहता है यहां तक कि विपक्ष की भी फिलहाल इसमें दिलचस्पी नहीं दिखती है. अगर अविश्वास प्रस्ताव पर संसद में चर्चा भी होती है तो बीजेपी आसानी से विश्वास मत प्राप्त कर लेगी. लेकिन विपक्ष बीजेपी को सचेत करना चाहता है कि उन्हें हल्के में न लिया जाए. वो बीजेपी को ये संदेश देने के लिए तैयार बैठे हैं कि राज्य के क्षत्रपों की एकजुटता के सहारे वो एनडीए का मजबूत किला भी ढ़हा देने में सक्षम है.
बीजेपी को सत्ता से दूर करने के लिए विरोधी दलों का एक साथ आना जरूरी
भारतीय राजनीति में 1989 का बड़ा महत्व है क्योंकि उस समय एक दूसरे के धुर विरोधी लेफ्ट और भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिए आपस में हाथ मिला लिया था. अभी की राजनीति उसी तरह के बेमेल गठजोड़ का इशारा कर रही है और ये संभव है कि बीजेपी को सत्ता से दूर करने के लिए सभी विरोधी दल आपसी मतभेदों को दरकिनार कर एक मंच पर आ जाएं.
लेकिन ये भी हो सकता है कि बीजेपी को टक्कर देने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर कोई एक महागठबंधन न बनें. मोदी विरोधी बीजेपी को परास्त करने के लिए अलग अलग फार्मूले बना सकते हैं. जैसे राज्य दर राज्य या क्षेत्र दर क्षेत्र अलग अलग रणनीति तैयार कर बीजेपी की उम्मीदों पर पलीता लगाया जा सकता है. मतलब उनका मकसद भले ही राष्ट्रीय हो लेकिन बीजेपी को हराया स्थानीय तरीके से ही जाए.
मजेदार बात ये है कि बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति के खिलाफ क्षेत्रवाद को मैदान में उतारने वाली पार्टी भी एक राष्ट्रीय पार्टी ही है. सबसे पहले कांग्रेस ने ही बीजेपी के खिलाफ क्षेत्रीयता की लड़ाई का झंड़ा बुलंद किया है. अगर आप कर्नाटक की राजनीति को करीब से देखें तो पाएंगे कि वहां कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय पार्टी के दावे को पीछे छोड़ते हुए क्षेत्रीयता को तरजीह देना शुरु कर दिया है. वहां के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने राज्य हित को सर्वोपरि मानते हुए राज्य का एक अलग झंडा बनाया है और वहां पर लिंगायत को एक अलग धर्म के रुप में मान्यता देने की बात कर रहे हैं.
अब जबकि फिलहाल देश की राजनीति का विषय क्षेत्रवाद बन गया है तो आने वाले कुछ महीनों में भारतीय राजनीति में कुछ और फेरबदल होते दिखाई दे सकते हैं. जब सभी राज्य अपने अपने हितों की मांग को लेकर दिल्ली दरबार से उलझने में जुटे होंगे तो सभी की नजर एनडीए के एक और सहयोगी नीतीश कुमार पर भी होगी.
नीतीश ने भी अलापा पुराना राग, कहा विशेष राज्य दर्जे की मांग बरकरार
नीतीश भी नायडू जैसा ही विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग काफी समय से कर रहे हैं. नीतीश की निष्ठा फिलहाल तो बीजेपी के साथ दिख रही हैं लेकिन जैसे ही देश की राजनीति में राज्य प्रथम का वातावरण बनना शुरु होगा वैसे ही उनपर भी दबाव बढ़ने लगेगा. ऐसे में उनका बीजेपी के साथ बने रहना पूरी तरह से उनके राजनीतिक कौशल पर निर्भर करेगा.
ऐसे में जहां तक चुनाव की बात है तो मैदान पूरी तरह से खुला हुआ है. लगभग हर राज्य में बीजेपी को वहां के क्षेत्रीय गठंबधन के साथ कड़े मुकाबले में जूझना पड़ेगा चाहे वो स्थानीय दल हो या फिर कांग्रेस से जुड़े गठबंधन. अगर ऐसा होता है तो 2019 में चुनावी परिदृष्य पूरी तरह से बदल सकता है जिसमें सभी मोदी विरोधी दल एक दूसरे का हाथ थामे नजर आ सकते हैं.
विरोधी दलों की कोशिश होगी कि वो मोदी विरोधी वोटों को एकजुट करें और पूरी तरह के मुकाबले को आर पार की लड़ाई में तब्दील कर दें. अगर वास्तविक रुप से ऐसा हुआ तो 2014 की तरह महज 31 फीसदी वोट प्राप्त करके 2019 में भी दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा करना आसान नहीं होगा.
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