मध्यप्रदेश में कांग्रेस को चुनाव जीतना है तो बीजेपी की कमजोरी को हथियार बनाना होगा

संदीपन शर्मा 

मध्यप्रदेश में दिसंबर में चुनाव होने वाले हैं और ये देखना दिलचस्प होगा कि सेहरा इस बार किसके सिर बंधता है. लेकिन ये निर्भर करेगा इस बात पर कि 2003 की उस कथा से, जो हनुमान, उमा भारती, केक और अंडे से जुड़ी है, कौन सबक ले पाता है.

अब पहले ये समझ लीजिए कि ये ‘अंडे का फंडा’ है क्या ?

कहानी समझने के लिए थोड़ा पीछे यानी 2003 में चलना होगा, जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, हिंदूवादी दिखने की कोशिश करने लगे थे. कोशिश ये थी कि उनकी विरोधी और तेज़-तर्रार बीजेपी नेता उमा भारती की हिंदुत्व की छवि के मुकाबले दिग्गी राजा की हिंदुत्व की बेहतर छवि खड़ी हो सके. इस कोशिश में वे लोगों को ये बताने में जुट गए कि गो-मूत्र का सेवन स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है और बीफ के लिए गायों की हत्या पर बैन लगाना चाहिए. अब उमा भारती को इसकी काट खोजनी थी. लिहाज़ा उन्होंने फैसला किया कि सार्वजनिक तौर पर केक और मोमबत्तियों के साथ बजरंग बली हनुमान का जन्मदिन मनाएंगी. उमा भारती जब हनुमान जयंती के मौके पर छिंदवाड़ा के एक मंदिर पहुंचीं, तो उनके साथ अरुण जेटली भी थे. उमा ने केक पर मोमबत्तियां जलाईं, बुझाईं और केक काटा, और बाकायदा बजरंग बली के लिए ‘हैप्पी बर्थ डे टू यू’ गाया भी.

भला दुश्मन दिग्विजय सिंह पीछे कैसे रहते. उन्होंने तुरंत गो-मूत्र का मुद्दा किनारे रख दिया और केक का मुद्दा उठा दिया. ये कह कर कि उमा भारती ने अंडे से बना हुआ केक हनुमान मंदिर में ले जाकर पाप किया है, दिग्गी राजा ने इसे चुनावी मुद्दा बना लिया. उन्होंने कहा कि उमा भारती ने ऐसा कर मंदिर को अपवित्र कर दिया है और उमा ने दरअसल ये अंडा हिंदुओं के मुंह पर दे मारा है.

उमा भारती तुरंत बचाव की मुद्रा में आ गईं और सफाई देने लगीं. उनके तर्कों में से एक ये भी था कि, ‘ये केक तो दूध का बना हुआ था और इस तरह हनुमान जयंती पर पवनसुत के लिए एक आदर्श चढ़ावा था.’ लेकिन मामला यहीं नहीं रुका. दिग्गी राजा बीजेपी का ऑमलेट बनाते गए और उमा भारती अपनी सफाई देती रहीं. एक गंभीर चुनावी दृश्य, मज़ाकिया नज़ारे में बदल गया.

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लेकिन जब सवाल-जवाब का सिलसिला बढ़ता गया, तो बीजेपी के किसी समझदार बुज़ुर्ग नेता ने उमा से कहा कि वे अब दिग्विजय का जवाब देना बंद करें. और तब जाकर ये वाक-युद्ध समाप्त हुआ.

ठीक ऐसे ही 2018 की चुनावी जंग की तैयारी में जुटी कांग्रेस के किसी बुजुर्ग नेता को मध्य प्रदेश के नेताओं को समझाना चाहिए कि वे बीते पंद्रह सालों में प्रदेश में विकास को और बीजेपी सरकार की कथित उपलब्धियों को मुद्दा बनाएं. साथ ही अपने चुनावी अभियान को मज़ाक बनने देने से बचें. क्योंकि इससे जो सत्ता में है, उसे असल मुद्दों से भागने और भावनात्मक मुद्दों में जनता को उलझाने का मौका मिलेगा.

मध्य प्रदेश इस बार ‘एंटी इंकम्बेंसी’ की परिपक्व मिसाल है. बीजेपी के 15 साल के शासन के बाद लोग अब शिवराज सिंह चौहान से उनके कामकाज पर सवाल करना चाहते हैं. खास तौर पर किसानों और बेरोज़गार नौजवानों से जुड़े मुद्दों पर. लोग विकल्प तलाश रहे हैं और हर तरह की संभावनों पर सोच भी रहे हैं.

मतदाताओं के शिवराज सिंह चौहान से ऊबने के कई लक्षण भी मिल चुके हैं.

पहला- पिछले दो साल में बीजेपी लगातार चार उपचुनाव हार चुकी है.

दूसरा- स्थानीय निकायों के उपचुनाव में कांग्रेस को भारी बढ़त मिली है.

ये सारे लक्षण उसी ओर इशारा करते हैं, जिस तरफ मई 2018 में, सीएसडीएस के एक सर्वे ने संकेत दिए थे. सर्वे के मुताबिक इस बार चुनाव में 15 फीसदी वोटों से कांग्रेस आगे रहेगी. लेकिन लगता है कि कांग्रेस अंडे का फंडा समझने को तैयार नहीं है. कांग्रेस नेता भावनात्मक मुद्दे उछालकर, शिवराज चौहान को मौका दे रहे हैं कि वे अपनी सरकार की उपलब्धियां और असल मुद्दे छोड़कर बाकी हर गैरवाज़िब मुद्दे पर बात करें. इसकी जीती-जागती मिसाल है कांग्रेस के एक विधायक का शिवराज चौहान पर वो घृणित हमला, जिसमें उसने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की तुलना एक वेश्या से कर दी. इससे पहले, प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ भी शिवराज को मदारी और नालायक कह चुके हैं.

राजनीति में इस तरह के विशेषणों का इस्तेमाल काम तो करता है, लेकिन तभी, जब लोग उस नेता से घृणा करने लगे हों, जिसके लिए उन विशेषणों का प्रयोग हुआ हो. लेकिन अगर निशाने पर शिवराज सिंह चौहान जैसा शख्स हो, तो मामला कुछ और हो जाता है. शिवराज बेशक अब बहुत सम्मानित न रहे हों, लेकिन वे इतने तिरस्कृत भी नहीं है कि नालायक और मदारी जैसे विशेषण उनका कुछ बिगाड़ सकें. इसके ठीक उलट, वे इस हमले को चुनावी सभाओं में ये कह कर बेच लेंगे कि वे कांग्रेस की घृणास्पद राजनीति का शिकार हो रहे हैं. उन्हें इस मुद्दे पर सहानुभूति भी खूब मिल सकती है.

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लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस अपनी ग़लतियों से सीख लेने वाली नहीं है. कांग्रेस के एक नेता के मोदी पर हमले के बाद, गुजरात चुनाव में उसका जो असर हुआ, पूरी दुनिया उसकी गवाह है. जैसे मोदी ने अपने ऊपर हुए हमले का इस्तेमाल चुनावी सभा में कर, सहानुभूति बटोरी और चुनाव की तस्वीर बदल दी थी, शिवराज ने भी वही किया. अपने ऊपर हुए हमले का इस्तेमाल उन्होंने ये कह कर किया कि ये चुनाव नहीं है, उनकी अस्मिता के सवाल पर ‘जनमत-संग्रह’ है. शिवराज, मोदी का ही हथियार इस्तेमाल कर रहे हैं. यानी अपने ऊपर हो रहे घृणित व्यक्तिगत आरोपों को अपने सीने पर बिल्ले की तरह सजाकर इस्तेमाल करना. जैसे मोदी ने लगभग उसी समय, अविश्वास प्रस्ताव के दौरान, संसद में ये स्वीकारा था, ‘हां, मैं भागीदार हूं विकास का और विकास की खातिर और कांग्रेस से लड़ने के लिए कॉरपोरेट का साथ लिया भी तो ग़लत क्या किया.’

ठीक वैसे ही, उसी अंदाज़ में शिवराज ने आरोपों का जवाब दिया, ‘हां, मैं मदारी हूं, क्योंकि मैंने राज्य की तस्वीर जो बदल दी है.’

कांग्रेस को हमेशा वो चुनाव खल जाता है, जो किसी शख्सियत के इर्द-गिर्द लड़ा गया हो. और इसकी वजह ये कि बीजेपी के पास नेता सारे बड़े ज़बर्दस्त और भरोसेमंद हैं. दूसरी ओर कांग्रेस के पास मध्य प्रदेश में कोई बेहतर चेहरा नहीं है. इसीलिए पार्टी उन चेहरों को आगे कर रही है, जो सालों पहले जनता का विश्वास खो चुके हैं.

इस तरह मध्य प्रदेश चुनावों के मद्देनज़र बीजेपी ‘व्यक्तित्व का कार्ड’ काफी समझदारी से खेल रही है. जहां एक ओर मुख्यमंत्री पर कांग्रेस के हमलों का इस्तेमाल सहानुभूति बटोर कर किया जा रहा है, वहीं ज़मीनी स्तर पर बीजेपी, दिग्विजय सिंह पर हमले कर, कांग्रेस के प्रचार को बेकार करने में भी जुटी है. इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है, दिग्विजय सिंह पर शिवराज सिंह चौहान के ‘देशद्रोही’ वाले ताने का है. बीजेपी के भीतरी सूत्र बताते हैं कि वह दिग्विजय सिंह की ‘एकता यात्रा’ को बेकार करने की मंशा से, उनकी साख को नुकसान पहुंचाने के लिए और उन्हें एंटी हिंदू और भारत के खिलाफ साबित करने के लिए था. एकता यात्रा दरअसल कांग्रेस को पूरे सूबे में एकजुट करने के लिए थी और शिवराज की कोशिश उसका असर खत्म करने की थी, जिसमें वे सफल रहे.

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मध्य प्रदेश में जनता में सहमति इस बात पर दिखती है कि कांग्रेस को फायदा तभी होगा जब ऐसे मुद्दे उठाए जाएंगे जो बीजेपी को परेशान कर सकें. पार्टी को किसानों की तकलीफों की बात करनी चाहिए, जिन्हें लेकर न जाने कितने विरोध-प्रदर्शन हो चुके हैं. प्रदेश में बढ़ रही बेरोज़गारी पर सवाल उठाना चाहिए और पूछना चाहिए कि पिछले दो सालों में बेरोज़गारी में 50 फीसदी की बढ़ोत्तरी क्यों हो गई है. कांग्रेस को पूछना चाहिए कि पंद्रह सालों तक कुर्सी पर काबिज़ रहने के बाद शिवराज ने सूबे को क्या दिया है. उसे चाहिए कि वो मध्य प्रदेश में दिख रही ‘एंटी इनकम्बेंसी’ की फसल काटे, न कि शिवराज को सहानुभूति बटोरने के मौके दे.

वर्ना दीवार पर लिखी इबारत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. कांग्रेस नहीं संभली तो शिवराज सिंह चौहान चौथी बार भी मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करेंगे, मोमबत्तियों और केक के साथ जश्न मनाएंगे, बेशक वो केक अंडे वाला हो या बिना अंडे का.

 

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