मिशन यूपी: इस बार लैपटॉप नहीं स्मार्टफोन

up-2017-akhilesh-yadavलखनऊ। मुफ्त लैपटॉप का वादा कर सत्ता में आई अखिलेश सरकार ने युवाओं को अगली सरकार आने पर स्मार्ट फोन का सपना दिखा दिया है। वोट के लिए गिफ्ट के वादे अभी तक चुनावी घोषणा पत्रों में किए जाते थे। यूपी के सीएम अखिलेश यादव ने अभी से कैबिनेट में फैसला कर अगले चुनाव में युवाओं को लुभाने का बड़ा दांव खेल दिया है। इसके साथ ही तोहफे बांटकर वोट हासिल करने की राजनीति पर बहस भी तेज हो गई है। देश में तोहफों की यह राजनीति नई नहीं है लेकिन इसके कानूनी और नैतिक पहलुओं पर पक्ष-विपक्ष में सबके अपने तर्क हैं।
अखिलेश सरकार ने कैबिनेट में प्रस्ताव पारित कर प्रावधान किया है कि स्मार्ट फोन 2017 की दूसरी छमाही में दिए जाएंगे। इशारा साफ है कि पहले सरकार बनाओ, उसके बाद ही स्मार्ट फोन मिलेंगे। प्रावधान यह किया गया है कि स्मार्ट फोन 18 साल से ऊपर के युवाओं को दिए जाएंगे, यानी नए मतदाता टारगेट पर हैं। इसके लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन इसी सरकार में अगले महीने से शुरू हो जाएंगे, जो ‘पहले आओ, पहले पाओ’ के आधार पर होगा। इसका मकसद भी यही माना जा रहा है कि भारी संख्या में रजिस्ट्रेशन कर लिए जाएं और स्मार्टफोन की उम्मीद में उनके वोट पक्के हो जाएं। सरकारी नौकरी वालों और उनके परिवार के सदस्य को इस योजना का लाभ नहीं मिलेगा। प्राइवेट नौकरी करने वालों के लिए शर्त यह है कि परिवार की वार्षिक आय छह लाख से कम होनी चाहिए।

समाजवादी पार्टी ने 2012 में अपने चुनावी घोषणा पत्र में इंटर पास सभी युवाओं को लैपटॉप और हाई स्कूल पास सभी युवाओं को टैबलेट देने का वादा किया था। इसके अलावा इंटर पास गरीब छात्राओं के लिए 30 हजार रुपये कन्या विद्याधन और बेरोजगारी भत्ते का वादा भी किया गया था। उससे पहले मुलायम सिंह यादव ने 20 हजार रुपये कन्या विद्याधन और बेरोजागरी भत्ता देने का वादा किया था। मायावती भी इसमें पीछे नहीं रहीं। उन्होंने कन्या विद्याधन योजना का नाम बदलकर सावित्रीबाई फुले बालिका शिक्षा मदद योजना करते हुए 20 हजार रुपये के अलावा छात्राओं को साइकल देने का भी ऐलान किया था। मजदूरों को 10 रुपये में भोजन, सरकारी स्कूलों में दूध और फल वितरण की योजनाएं चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा नहीं हैं लेकिन इसे अगले चुनाव में गरीबों को लुभाने के तौर पर ही देखा जा रहा है। नौकरियां देने, स्वरोजगार, पेंशन, किसानों को सब्सिडी और कर्ज माफी जैसी घोषणाएं और दावे तो हर राजनीतिक पार्टी करती ही रही है।

अखिलेश सरकार ने पहले साल सभी 15 लाख इंटर पास छात्रों को लैपटॉप बांटे। उसके बाद से सिर्फ एक लाख मेधावी छात्रों को ही लैपटॉप दिए जा रहे हैं। संख्या कम करके सभी वर्गों को लुभाने के लिए इसमें सीबीएसई बोर्ड, आईसीएसई बोर्ड, संस्कृत बोर्ड और मदरसा बोर्डों के छात्रों को शामिल कर लिया गया। हाईस्कूल पास छात्रों को टैबलेट बंटे ही नहीं। कन्या विद्याधन पाने वालों की संख्या भी एक लाख तय कर दी गई। मुलायम और मायावती सरकारों में कन्या विद्याधन और सावित्रीबाई फुले बालिका शिक्षा मदद योजना चलती रही लेकिन इसमें घपले भी सामने आए। बेरोजगारी भत्ता योजना की शुरुआत तो मुलायम और अखिलेश सरकार में हुई लेकिन कुछ समय के बाद युवाओं को निराशा ही हाथ लगी।

नीतीश कुमार ने छात्राओं को मुफ्त साइकल दी तो छत्तीसगढ़ में रमन सिंह ने गरीबों को एक रुपये किलो चावल देने का वादा किया। कॉलेज में दाखिला लेने वालों को लैपटॉप का वादा भी रमन सिंह ने पिछले चुनाव में किया था।

सरकारी पैसे से मुफ्त तोहफे बांटने पर सुप्रीम कोर्ट भी टिप्पणी कर चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में कहा था कि चुनाव घोषणा पत्र में राजनीतिक दलों का वादा करना भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में नहीं आता लेकिन इस हकीकत से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मुफ्त उपहार बांटकर वोटरों को प्रभावित किया जाता है। कोर्ट ने निर्वाचन आयोग को इस बारे में जरूरी कदम उठाने के निर्देश दिए थे। निर्वाचन आयोग ने भी सभी राजनीतिक दलों से कहा था कि उन्हें ऐसे वादों से बचना चाहिए, जिससे चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता प्रभावित होती है और वोटरों पर असर पड़ता हो।

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि चुनाव आयोग की अपनी सीमा है। वह सिर्फ एक ही स्थिति में किसी दल की मान्यता खत्म कर सकता है। अगर किसी दल ने फर्जी तरीके से या गलत जानकारी देकर रजिस्ट्रेशन कराया है, तो मान्यता खत्म हो सकती है। यही वजह है कि सामान्य निर्देश और सुझाव तक ही मामला सीमित रहता है।

देश में व्यापक चुनाव सुधार की जरूरत है। इसके लिए चुनाव सुधार संशोधन बिल भी लंबित है। उस बिल में प्रत्याशियों और पार्टियों के लिए कई ऐसे प्रावधान हैं जिनसे अवांछित गतिविधियों पर रोक लगेगी। यह बिल पास होने से चुनाव आयोग सशक्त होगा।

 

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