अब होगी PM मोदी की ‘अग्निपरीक्षा’

चैतन्य कालबाग
अगर कोई सावन का अंधा न हो तो इस बात की पूरी गुंजाइश है कि वह इन दिनों भविष्य को लेकर चिंतित होगा। दरअसल यह अनिश्चितता का दौर है।
पिछले कुछ दिनों में स्टॉक मार्केट्स में भारी गिरावट से हम सब अवाक रह गए। बिकवाली तो दुनियाभर में हुई, लेकिन हमारे शेयर सूचकांक लगभग उसी लेवल पर हैं, जहां वे एक साल पहले थे। तो हम कह सकते हैं कि घबराने की कोई वजह नहीं है। हमारा विदेशी मुद्रा भंडार बड़ा है, चालू खाते का घाटा कम है, खाने-पीने की कुछ चीजों के दाम उछले हैं, लेकिन महंगाई काबू में ही है। फिर चिंता क्यों?
चीन का मौजूदा संकट तो आना ही था क्योंकि इसके एक्सपोर्ट मार्केट्स सिकुड़ रहे थे। चीन का देसी बाजार इतना बड़ा और परिपक्व नहीं है कि वह मैन्युफैक्चरिंग की उसकी तूफानी रफ्तार से निकलने वाला माल खपा सके। यही वजह है कि उसे 11 अगस्त को यूआन की वैल्यू घटानी पड़ी और फिर इस हफ्ते ब्याज दर कम करनी पड़ी।
एक्सपोर्ट के मामले में भारत को चीन जैसा खतरा नहीं है। हालांकि खपत करने वाली आबादी के मुताबिक मैन्युफैक्चरिंग के इसके चक्कों ने रफ्तार नहीं पकड़ी है। इसलिए ही अपनी मशीनरी को तेज करना जरूरी हो गया है। अच्छी बात है कि सरकार जीएसटी बिल पास कराने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने की सोच रही है।
पीएम नरेंद्र मोदी किसी ऐसे परेशान सीईओ की तरह प्राय: नहीं दिखते हैं, जो अपनी टीम की सुस्ती भगाने की कोशिश में हो, लेकिन 24 अगस्त को एक सरकारी बयान में यही बात झलकी। इसमें कहा गया, ‘पीएम ने कहा कि इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के लिए पर्याप्त फंड दिया जा रहा है, लिहाजा संबंधित मंत्रालयों की जिम्मेदारी है कि वे इन आवंटनों से वांछित परिणाम सुनिश्चित करें।’ यही नहीं, पीएम ने ‘कॉल ड्रॉप्स’ की समस्या पर भी चिंता जताई।
टेलिकॉम ऐसा मोर्चा था, जहां मोदी सरकार साहसिक निर्णय कर सकती थी। यह ऑमलेट तो बना रही है, लेकिन नए अंडे नहीं फोड़ रही। यह यूपीए का माल ही इस्तेमाल कर रही है।
करीब 95 करोड़ मोबाइल सब्सक्राइबर्स के लिए और टेलिकॉम स्पेक्ट्रम रिलीज करने के बजाय सरकार ने यह शेखी बघारी कि इस साल स्पेक्ट्रम ऑक्शन से उसने एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा पैसा जुटाया।
अपने कार्यकाल के दूसरे साल में मोदी सरकार के सामने सामाजिक-राजनीतिक चुनौतियां बढ़ रही हैं। गुजरात में ओबीसी कैटिगरी में आरक्षण पाने के लिए पाटीदारों के आंदोलन से बड़ी उलझन की बात मोदी के लिए और क्या हो सकती थी। दुखद यह है कि मोदी जातिगत आरक्षण की चुनौती को समझने की कोशिश करते नहीं दिख रहे। पिछली सरकार ने जाटों को ओबीसी कैटिगरी में डाला था और फिर इसी साल मोदी सरकार ने उसे जारी रखने की कोशिश की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे झिड़क दिया। उधर जनगणना के आंकड़े बता रहे हैं कि बिहार में 2001 से 2011 के बीच आबादी 25.4% बढ़ी। बिहार गहरे जातिगत और धार्मिक पूर्वग्रहों का इलाका है। बिहार में चुनाव होना है। यह मोदी ब्रैंड राजनीति के कड़े इम्तिहान का वक्त है।
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