…’आरक्षण के खिलाफ’ शुरू हुआ है पटेलों का आंदोलन?

गुजरात में हिंसात्मक हो चुके पटेलों के आरक्षण आंदोलन की पूरे देश में निंदा की जा रही है। 9 लोगों की मौत, और लाखों करोड़ों रुपये की सरकारी संपत्ति के नुकसान के साथ पूरे राज्य में दहशत का माहौल पैदा हो गया है। व्यापार, उद्योग धंधों के सामान्य परिचालन ठप्प होने से व्यापारियों को खासा नुकसान हुआ है और जिस तरह से गुजरात में पटेलों ने आरक्षण की मांग की है और उसके लिए जो रास्ता चुना है, उसका पूरे देश में विरोध हो रहा है। लेकिन कमाल है कि पटेलों की इस आरक्षण की मांग के पक्ष में कोई भी खुलकर नहीं आया है।
सबसे बड़ी बात यह है कि पहले जहां गुजरात के इस अति संपन्न वर्ग के रूप में पहचान रखने वाले पटेलों की आरक्षण की मांग को ही गलत ठहराया जा रहा था, वहीं आंदोलन के हिंसात्मक होने से अब दबे मन से आरक्षण को ही पूरी तरह ही खत्म करने की चर्चा सुनाई देने लगी है। यानी की जहां पटेलों की आरक्षण की मांग गलत थी ही, अब सभी जगह आरक्षण को ही खत्म करने की बातें सामने आने लगीं हैं। तो क्या इसे आरक्षण को ही खत्म करने की साजिश के तौर पर देखा जाए? जैसा की ग्राउंड लैवल पर और गुजरात में चर्चा चल रही है।
एक तरह से देखा जाए तो क्या आरक्षण के इस मामले पर राजनीति ने अपने व्यापक दायरे में सीधे न पहुंचकर, थोड़ा तिरछा और घूमकर अपना काम शुरू कर दिया है। मतलब कि विरोधी से आमने-सामने न होते हुए पीछे जाकर उसकी नब्ज को पकड़ा है। यानी आरक्षण की सार्थकता, प्रासंगिकता को लेकर हार्दिक जिस भी रूप में सामने आए हैं, वे अपने जरिये चलाई जा रही सियासत और उनके बहाने चल रही राजनीति दोनों के केंद्र बन रहे हैं।
यकीनन दबी जुबान से इस समय फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप और अखबारों में आरक्षण को खत्म करने की चर्चा सुनाई दे रही है। ये सोचने वाली बात है कि पिछले तीन-चार दिनों से आरक्षण की आग में जल रहे गुजरात में पटेलों के आरक्षण के मुद्दे पर किसी भी टीवी पर जो चर्चा चल रही है, उसमें ना तो कांग्रेस की ओर से और ना ही भाजपा के साथ अन्य दलों (केवल नीतीश कुमार को छोड़ संभव हो वह भी मजबूरी रही हो, जब जीएमडीसी मैदान से हार्दिक ने नीतीश कुमार को अपना कहा था, सो नीतीश ने हार्दिक का हार्दिक स्वागत कर दिया) का कोई प्रतिनिधि किसी टीवी डिबेट में नहीं पहुंचा है। सोचने वाली बात यह भी है कि रोजाना पाकिस्तान से लेकर अमेरिका तक और प्याज से लेकर दालों तक, हर मु्द्दे पर बिना मांगे राय देने वाले, बिन बोले बड़बोले बने फिरने वाले भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों के छोटे-बड़े सभी नेता, आखिर इस मुद्दे पर कुछ बोल क्यों नहीं रहे हैं?
यही नहीं हिंदुओं और मुस्लिमों को फ्री की एडवाइज देने वाले किसी नेता की भी इस मुद्दे पर बयान के तौर पर किसी न्यूज वेबसाइट, और अखबार में बड़ी हेडलाइन नहीं बनी है। जबकि इसके ठीक विपरित न्यूज चैनल अपने-अपने पैनलों में, जिन विशेषज्ञों को लेकर बैठ रहे हैं, वहां से भी ऐसी कोई बात सामने निकलकर नहीं आ रही है कि कोई राय बनाई जाए। वहीं ऊपर से कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने कुछ कहा भी तो बचते हुए यही कहा कि पटेलों की यह मांग गलत है, जबकि सुप्रीम कोर्ट इस पर निर्णय दे चुका है। बकौल मनीष तिवारी- फिर तो कल, क्षत्रिय, ब्राह्मण और भूमिहार भी आरक्षण लेने के लिए खड़े होंगे।
चौंकाने वाली बात यह है कि मेरे विश्वसनीय सूत्र बताते हैं कि हार्दिक की रैली के पहले ही अहमदाबाद में ब्राह्मण, क्षत्रिय और कोली समाज की आरक्षण को लेकर रैली निकाली जा चुकी थी। तो क्या इसे इस बात के संकेत के रूप में नहीं देखना चाहिए कि यह आंदोलन दरअसल आरक्षण का विरोध करने वाले उस खाए-पीए संपन्न वर्ग का आरक्षण के खिलाफ बढ़ाया गया पहला कदम है, क्योंकि दबी जुबान में ही सही आरक्षण को पूरी तरह खत्म करने चर्चा तो हो रही है।
यकीनन जैसा की पहले कहा इस आंदोलन की शुरुआत आरक्षण को लेकर हुई थी और बाद में इसके हिंसात्मक होने के बाद लोग खुलकर आरक्षण को ही पूरी तरह से खत्म करने के पक्ष में आ गए हैं। हर तीसरा, चाहे वह ट्रेन में हो, बस में हो, फोन पर हो, या घर-परिवार में, गुजरात की खबरें देखते ही आरक्षण को पूरी तरह से खत्म करने की बात बिना पूछे ही जप रहा है। कमाल तो यह है कि आरक्षण खत्म करने वाली पोस्ट चाहे वह फेसबुक पर हो या फिर ट्विटर की बहुत लाइक की जा रही है। यहां तक की वॉट्सएप्प पर भी इसके पक्ष में एक वातारण बन रहा है। ब्लॉग्स इसमें बड़ा माध्यम साबित हो रहे हैं।
ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि गुजरात में पटेलों के आरक्षण को लेकर नेताओं की चुप्पी और जनता की फुसफुसाहट को किस रूप में देखा जाना चाहिए? क्या यह माना जाए कि हार्दिक पटेल के पीछे लगी शक्तियों, (जो अभी तक सामने नहीं आ पाई हैं, हालांकि कोई न कोई तो है क्योंकि महीनों में लाखों की भीड़ जुटाना हवाबाजी नहीं है, प्रकारांतर में संभव हो यह सामने आए। ) का उद्देश्य पूरा हो गया है, जो दरअसल यही चाह रहीं थी कि कम से कम इसी बहाने यह चर्चा तो शुरू हो कि आरक्षण को समाप्त ही किया जाना चाहिए। भले ही यह प्रैक्टिकली संभव न हो, लेकिन एक शुरुआत तो की ही जा सकती है। यदि ऐसा है, तो क्या गुजरात के संपन्न तबके की आरक्षण की मांग को देश में एक संपन्न और आरक्षण विरोधी तबके की प्रतीकात्मक आवाज के रूप में देखना चाहिए? इन सवालों के साथ की इस आंदोलन में पैसे क्या वही पटेल समुदाय दे रहा है, जो अमीर है, साधन संपन्न है और जो सरदार पटेल को इस देश की एकता और उसे ही राष्ट्रभक्ति का सच्चा प्रतीक मानकर अपनी देशभक्ति कुछ इस रूप में प्रदर्शित कर रहा है?
हार्दिक गुजरात में 2017 में जिस कमल को नहीं उगने देने के बात कर रहे हैं, तो फिर वे किसी हाथ को लहराने देने की बात भी नहीं कर रहे हैं? या फिर इसे पूरे पटेल समुदाय की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की तरह देखा जाना चाहिए? क्या यह मान लिया जाए कि साधन संपन्न वर्ग सबकुछ होने के बाद अब सत्ता को अपने बेहद करीब देखना चाहता है। सरकार में हिस्सेदारी के रूप में नहीं बल्कि एक नई पार्टी के रूप में? सवाल हैं और कई तरह से उठ रहे हैं।
इधर, इस पूरी खबर पर काम के दौरान अहमदाबाद में लगातार समाजशास्त्रियों, पत्रकारों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात करते हुए इस आंदोलन को आरक्षण के ही खिलाफ बनाने वाली राय को बल मिलता दिखाई देता है। यही नहीं बल्कि कम से कम एक बार उस दिशा में सोचने के लिए माहौल और जनमानस तैयार बनता दिखाई देता है। सवाल फिर इस रूप में भी उठ रहे हैं कि गुजरात में हार्दिक पटेल जिस पिछड़े और गरीब पटेलों के आरक्षण की बात कर रहे हैं, उसके लिए वह सरकार को एक मौका भी नहीं देना चाहते हैं कि वह उसे लेकर सरकार को कम से कम बात करने का मौका दे। वे सरकार से एक सर्वे करने की अपील करें, क्योंकि इस पूरी आंदोलन समिति की ओर से किसी भी तरह के आरक्षण का प्रस्ताव ओबीसी कमीशन के पास पहुंचा ही नहीं है।
इस पूरे मामले में गुजरात यूनिवर्सिटी के जाने-माने समाजशास्त्री और प्रोफेसर गौरंग जानी, जो गुजरात में ओबीसी कमीशन में विशेषज्ञ के रूप में शामिल हैं, वे इस बात से साफ इंकार करते हैं कि अनामत आंदोलन समिति की ओर से कोई अपील नहीं की गई। गौरांग यह भी कहते हैं कि आरक्षण हमें भी दो या किसी को भी मत देने की बात दरअसल यह लोग डिफेंसिव होने के लिए कर रहे हैं। जबकि सच्चाई इसके विपरित यह है कि यदि इन्हें वाकई में आरक्षण चाहिए होता तो वे बाकायदा प्रक्रिया के तहत सरकार के पास जाते।
गौरांग कहते हैं कि समाज में किसी भी तबके को आरक्षण देने के लिए लंबे समय तक सर्वे होता है, पूरी जांच परख के बाद ही आरक्षण का अपील की जाती है और इसमें 8 से 9 साल का समय लगता है, जबकि यहां तो पटेल कम्युनिटी केवल एक ही दिन में आकर आरक्षण मांग रहे हैं, जो सही नहीं है। वे कहते हैं कि वे बातचीत इसलिए नहीं करना चाहते हैं कि क्योंकि वे इस पूरी प्रक्रिया को समझते ही नहीं हैं और समझना चाहते भी नहीं हैं क्योंकि चाहते तो सड़कों पर नहीं उतरते।
जाहिर है इस तरह की तमाम बातों के बीच सवाल यह उठते हैं कि क्या यह पूरा आंदोलन हवा में खड़ा हो गया है? और वह भी एकाएक? कमाल तो यह भी है कि गुजरात में पटेलों की सामाजिक हैसियत भले ही कुछ भी हो, लेकिन उनकी संपन्नता और मजबूत आर्थिक हैसियत किसी भी स्तर से कमतर होने की बात कोई स्वीकार नहीं कर रहा है। उलटा जो वास्तव में गुजरात में ओबीसी हैं, वे भी पटेलों के आरक्षण की बात को ही गलत बता रहे हैं और उनके खिलाफ अहमदाबाद में विरोध रैलियां निकाल रहे हैं।
सवाल इस रूप में भी उठ रहे हैं कि पूरे गुजरात में तकरीबन 10 से 12 लाख की आबादी वाली पटेल कम्युटी यदि गांवों में खेती, किसानी से संबंधित समस्याओं से दो चार हो ही रही है कि तो फिर वह इस बात को क्यों नहीं समझ रही है कि इस समस्या का हल आरक्षण नहीं है बल्कि उन्हें तो खेती में हो रहे नुकसान के लिए सरकार से मुआवजा मांगना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है।
अहमदाबाद में इस पूरे आंदोलन को कवर कर रहे स्वतंत्र पत्रकार कुलदीप ने आंदोलन वाले दिन ही यह बताया कि जीएमडीसी मैदान में ऐसे लोग भी हैं, जो बीएमडब्ल्यू जैसी महंगी कारों से आए हैं, मोटरसाइकिलों की तो भरमार है ही। यकीनन आंदोलन में पटेलों की वह संपन्नता का चेहरा दिख रहा था। तो क्या यह सुविधा के मानक नहीं हैं? और यदि यह सुविधा के मानक नहीं हैं, तो फिर महाराष्ट्र में नागपुर और विदर्भ के पूरे इलाकों में गरीब, वंचित और आत्महत्या के शिकार हो रहे किसान तबके की रैलियां और उसमें बैठे लोगों को क्या कहेंगे? जहां सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं। फिर महाराष्ट्र ही क्यों बिहार से लेकर, छत्तीसगढ़ और कई जगह लोगों की हालत ठीक नहीं है, तो फिर वे क्या करेंगे?
चलिए इस मामले में कुछ बातों को समझने की कोशिश करते हैं- 25 अगस्त को अहमदाबाद में ही अनामत आंदोलन समिति के संयोजक धार्मिक मालवीया से फोन पर जब मैंने पूछा कि आपके पीछे आम आदमी पार्टी का हाथ बताया जा रहा है, तो उनकी जुबान लड़खड़ा गई और वे बोले कि हम पर तो कांग्रेस का होने का भी आरोप लगा है। दिमाग में थोड़ा खटका आया और सोचने लगा कि कांग्रेस का नाम तो मैंने लिया नहीं, (संभव हो वे ज्यादा सफाई देना चाहते हों! बहरहाल, संदेह पत्रकार के पेशे का जरूरी हिस्सा है।) फिर वे बोले की हमें किसी पार्टी का कोई समर्थन नहीं है।
कमाल तो तब हुआ जब मैंने उनसे पूछा कि सरकार तो आपको बातचीत के लिए बुला रही है, तो फिर आप बातचीत करने क्यों नहीं बैठते? तो धार्मिक बोले की 17 अगस्त को हमें सरकार ने बुलाया था, लेकिन हम नहीं गए? मैंने पूछा तो ये तो आपकी गलती है न फिर, क्यों नहीं गए आप? आपको जाना चाहिए था। तो वे फिर खुदसे ही कहने लगे कि सरकार हमारी बातें नहीं सुनेगी। मैं चौंका और जवाब दिया, ये तो आप बोल रहे हैं। सरकार को उनका सोचा हुआ बोलने दो, आप पहले से ही तय कर लोगे की वह क्या बोलेगी और क्या नहीं? इसके बाद धार्मिक फिर बोले कि नहीं सरकार से हम तब भी मिलेंगे जब सरकार इस पूरे मामले पर अपना स्टैंड क्लीयर करेगी।
यकीनन धार्मिक की बात सुनकर मैंने फिर एक सवाल दागा कि ओबीसी कमीशन तो यह भी कह रहा है कि आपने आरक्षण के लिए उनके पास अपील ही नहीं की है। आपको अपील करनी चाहिए थी, यह तो पूरी एक प्रक्रिया है, यदि आप गरीब हैं, सुविधाओं से वंचित हैं, तो फिर सरकार सर्वेक्षण करेगी, और उसके बाद आपको सुविधा की जरूरत होगी तो सरकार देगी। इसके बाद धार्मिक ने किसी 146 आवेदनों की बात की और भी अधूरे विश्वास के साथ, यह कहते हुए कि सरकार के पास से इसका कोई जवाब नहीं आया है। जबकि वहीं दूसरी ओर ओबीसी कमीशन में गौरांग विशेषज्ञ के तौर पर पहले ही कह चुके हैं कि इस तरह की कोई अपील समिति की ओर से नहीं आई है। सवाल फिर उठता है कि आखिर क्या आंदोलन हवा हवाई था? या फिर यह आरक्षण के खिलाफ प्रतीक के रूप में शुरू होने वाली राजनीति और बहस का हिस्सा भर था?
बहरहाल, इन सारी ही बातों से पता चलता है कि गुजरात में पटेलों द्वारा आरक्षण को लेकर मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों की खामोशी कुछ दूसरी ही बातों की ओर इशारा कर रही हैं। अब यदि खामोशी को द्वीअर्थी माना जाए तो, यह भी माना जा सकता है कि क्या वाकई में इस आंदोलन का उद्देश्य आरक्षण को खत्म करने की दबी हुई राय को सामने लाना था? और इससे क्या देश से आरक्षण ही खत्म किए जाने को लेकर माहौल बनाना था? यदि ऐसा है, तो फिर उस तबके का क्या होगा जिन्हें वाकई में इसकी आज भी जरूरत है? और जिन्हें मिल गया है, क्या वे इसे छोड़ने के लिए राजी होगें? और क्या नेता और राजनीतिक पार्टियां वोट बैंक के लिए आरक्षण की सियासत बंद करने के लिए राजी होंगी? क्योंकि आरक्षण का सबसे ज्यादा इस्तेमाल उन्होंने वोट बैंक के लिए ही किया है। वह एक तरह से टूल बन गया है अपनी सियासत चमकाने का।
निश्चित ही यह इस तरह का कोई राजनीतिक गणित है, तो इसके परिणाम बहुत ही दूरगामी होंगे, कैसे होंगे और क्या होंगे? फिलहाल इस पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन कम से कम इस दिशा में की मंडल कमीशन द्वारा आरक्षण देने का एक प्रमुख उद्देश्य धीरे-धीरे आरक्षण को खत्म भी करना था, इस पर भी बहस शुरू के रूप में तो होगा ही, लेकिन फिलहाल यह जिस हिंसात्मक रूप में सामने है वह वर्तमान के लिए ठीक नहीं है।
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