आरोपी ही करने लगा आरोप की जांच

प्रभात रंजन दीन
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल में विधानसभा सचिवालय में की गई नियुक्तियों में धांधली की जांच कराई जा रही है. मुख्यमंत्री ने ये भी कहा कि अवैध नियुक्तियां रद्द की जाएंगी और दोषी पाए गए लोगों के खिलाफ कार्रवाई होगी. उधर, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी यूपी विधानसभा सचिवालय में हुई अवैध नियुक्तियों की जांच कराने का आदेश दिया है. यह दो सूचनाएं हैं जो खबर की तरह सामने दिखती हैं, लेकिन इसके अंदर का जो ‘लोचा’ है, असली खबर वह है. सत्ता व्यवस्था को अपने चंगुल में जकड़े लोगों ने हाईकोर्ट और मुख्यमंत्री दोनों को अपनी सुविधा के मुताबिक फिरकी पर रख कर घुमा दिया. हाईकोर्ट का आदेश भी रह गया और मुख्यमंत्री की बात भी रह गई, और घोटालेबाजों ने अपने बचाव का मक्कार रास्ता भी निकाल लिया.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सोमवार 29 मई 2017 को अपने एनेक्सी दफ्तर में ‘चौथी दुनिया’ से कहा कि विधानसभा सचिवालय में हुई नियुक्तियों में अनियमितता की जांच प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी से कराई जा रही है. उधर, इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश अमरेश्वर प्रताप शाही और दयाशंकर त्रिपाठी ने 18 मई 2017 के अपने फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा था कि उत्तर प्रदेश सरकार अपने स्तर पर विधानसभा सचिवालय में हुई नियुक्तियों में धांधली की शिकायतों की जांच करेगी. हाईकोर्ट के फैसले के दूसरे अंश में लिखा है कि राज्य सरकार और विधानसभा सचिवालय के प्रमुख सचिव (क्रमशः प्रतिवादी नंबर 1 व 2) शिकायतों की जांच करे और अगर जांच में शिकायतों की पुष्टि होती है तब उस अनुरूप कानूनी कार्रवाई की जाएगी. बस, घपला करने वालों को इस मामले में ‘लोचा’ दिख गया. विधानसभा सचिवालय के प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे (रेस्पॉन्डेंट नंबर-2) ने मामले को आनन-फानन लपक लिया और नियुक्तियों में धांधली की जांच शुरू कर दी. राज्य सरकार (रेस्पॉन्डेंट नंबर-1) हक्का-बक्का रह गई. प्रदीप दुबे ने मौका ही नहीं दिया कि राज्य सरकार इस मामले में अपने स्तर से जांच शुरू करे, जबकि हाईकोर्ट ने साफ-साफ कहा था कि राज्य सरकार अपने स्तर पर जांच कराए. दुबे ने शासन से यह बताया भी नहीं कि नियुक्ति विवाद में वे खुद एक पक्ष हैं, लिहाजा जांच शासन स्तर पर किसी अन्य सक्षम अधिकारी से कराई जाए. खैर, नैतिकता का इतना ऊंचा स्तर ही होता तो घोटाला क्यों होता! हाईकोर्ट का फैसला भी लोकतंत्र की मुख्यधारा जैसा ही है, जांच के लिए तो कहा लेकिन कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की. जांच करते रहो अनवरत…

अब इस पूरे प्रकरण का एक और दुखद-हास्य देखिए. समाजवादी शासनकाल के विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय और विधानसभा सचिवालय के प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे ने मिल कर सैकड़ों अवैध नियुक्तियां कीं. इस बारे में सरकार, राज्यपाल से लेकर विभिन्न अदालतों तक शिकायतें गईं. आम लोगों ने भी जाना कि नियुक्ति घोटाले के केंद्र में विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय और प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे हैं. लेकिन यह भारतीय लोकतंत्र और न्यायतंत्र का असली रूप है कि घोटाले की जांच भी वही करेगा, जो घोटाला करने का आरोपी है. विचित्र किस्म का दिलचस्प तथ्य यह भी है कि नियुक्ति घोटाले के अभियुक्त प्रदीप दुबे रिटायर हो चुके, लेकिन ‘सिस्टम’ को तो ऐसे ही लोग पसंद हैं. सो, प्रदीप दुबे इस 15 अप्रैल को 60 साल की उम्र प्राप्त कर लेने के बाद भी विधानसभा सचिवालय के प्रमुख सचिव के पद पर विराजमान हैं, उसी जगह, जिस जगह विधानसभा अध्यक्ष की पीठ पर विद्वान और ईमानदार छवि के हृदय नारायण दीक्षित विराजमान हो चुके हैं. लेकिन ‘यह सत्ता का गलियारा है, जरा संभल कर चलिए’ के शाश्वत-संदेश की तरफ दीक्षित जी ने भी ध्यान नहीं दिया और न अपनी छवि का ही ध्यान रखा. …और नियुक्ति-घोटाले की जांच घोटाले के आरोपी प्रदीप दुबे कर रहे हैं. विधायी पीठ पर कानून की धज्जियां खुलेआम उड़ रही हैं. विधानसभा सचिवालय में धांधली हुई और विधानसभा सचिवालय ही उस धांधली की जांच भी कर रहा है. यह विचित्र किंतु सत्य है. प्रमुख सचिव दुबे ने बाकायदा अपनी अध्यक्षता में जांच कमेटी गठित कर दी है और अपने मातहतों को जांच कमेटी में सदस्य बना डाला है. मातहत अपने आका के खिलाफ क्या जांचेंगे, उस जांच का आकलन जन-अदालत में तो अभी ही हो गया है. जांच कमेटी में विधानसभा सचिवालय के संयुक्त सचिव अमरेश सिंह श्रीनेत, उप सचिव राजेंद्र सिंह और अनुसचिव अशोक कुमार को सदस्य बनाया गया है. ऐसी भी सूचना है कि उप सचिव राजेंद्र सिंह ने विवादास्पद जांच कमेटी में शामिल होने से इन्कार कर दिया है. अब उनकी जगह किसी दलित अधिकारी को सदस्य बनाने का उपक्रम हो रहा है, जो दुबे के खास हैं. कमेटी के दो अन्य सदस्य भी दुबे की हां में हां मिलाने वाले लोग हैं. ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष दोनों को अंधेरे में या भ्रम में रख कर जांच की औपचारिकता शुरू कर दी गई हो, या यह भी हो सकता है कि सत्ता और विधायी अलमबरदारों ने ‘मूंदहुं आंख कतहुं कुछ नाहि’ का सूत्र-वाक्य धारण कर लिया हो. यह जांच का नतीजा आते ही लोगों के सामने साफ हो जाएगा.

अब एक बार फिर समाजवादी काल के विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय और दोनों काल में समायोजित विधानसभा के प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे के कृत्यों का एक बार फिर दर्शन करते चलें. पांडेय ने तो दुबे के साथ मिल कर विधानसभा सचिवालय को अपने रिश्तेदारों, इलाकाइयों और चाटुकारों का अड्डा बना दिया. पांडेय के साथ-साथ सपा के कई नेताओं और विधानसभा सचिवालय के अधिकारियों ने भी बहती गंगा में हाथ धोया. प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए आचार संहिता लागू होने के बाद भी माता प्रसाद पांडेय ने विधानसभा सचिवालय में नियुक्तियां जारी रखीं और अपने लोगों को भर्ती करने का सिलसिला चुनाव परिणाम आने तक जारी रखा. इन अवैध नियुक्तियों के बारे में चुनाव आयोग से शिकायत भी की गई थी, लेकिन आयोग ने इसमें हाथ डालने से परहेज किया.

निवर्तमान विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय खुद भी इटवा विधानसभा (305) सीट से समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी थे. उन पर आचार संहिता के पालन का दोहरा दायित्व था, इसे ताक पर रख कर वे विधानसभा सचिवालय में अपने नाते-रिश्तेदारों और पैरवी-पुत्रों की नियुक्ति करने में लगे थे. प्रदेश में चुनाव आचार संहिता चार जनवरी 2017 से लागू हो गई थी. आप विधानसभा सचिवालय के दस्तावेज खंगालें तो पाएंगे कि आचार संहिता के दौरान खूब नियुक्तियां की गईं. आचार संहिता के बीच 12, 13, 16, 17, 18 और 27 जनवरी 2017 को विधानसभा के समीक्षा अधिकारियों और सहायक समीक्षा अधिकारियों की नियुक्तियां की गईं. इनसे सम्बन्धित दस्तावेज ‘चौथी दुनिया’ के पास उपलब्ध हैं. आचार संहिता के दौरान विधानसभा सचिवालय में जिन समीक्षा अधिकारियों और सहायक समीक्षा अधिकारियों की नियुक्तियां की गईं, उनमें से कुछ नाम हम पाठकों की संतुष्टि के लिए छाप रहे हैं. इस फेहरिस्त में उपेंद्रनाथ मिश्र, रुद्र प्रताप यादव, नरेंद्र कुमार यादव, मान बहादुर यादव, रजनीकांत दुबे, राकेश कुमार साहनी, वरुण दुबे, रवींद्र कुमार दुबे, भास्करमणि त्रिपाठी, वीरेंद्र कुमार पांडेय, जय प्रकाश पांडेय, आदित्य दुबे, नवीन चतुर्वेदी, प्रवेश कुमार मिश्र, मनीराम यादव, दुर्गेश प्रताप सिंह, सुधीर कुमार यादव, संदीप कुमार दुबे, राजेश कुमार सिंह, राकेश कुमार सिंह, सुनील सिंह, विजय कुमार यादव, विवेक कुमार यादव, अमिताभ पाठक, राहुल त्यागी, अविनाश चतुर्वेदी, पुनीत दुबे, शलभ दुबे, प्रशांत राय शर्मा, आदित्य कुमार द्विवेदी, श्रेयांश प्रताप मिश्र, काली प्रसाद, विपिन वर्मा, सोनी कुमार पांडेय, संजीव कुमार सिंह, सिद्धार्थ धर्मराजन, चंद्रेश कुमार पांडेय, सतीश कुमार सिंह, कीर्ति प्रधान, शिशिर रंजन, वरुण सिंह, पीयुष दुबे, अरविंद कुमार पांडेय, औरंगजेब आलम, सलमान, करुणा शंकर पांडेय, दिलीप कुमार पाठक, प्रवीण कुमार सिंह, भूपेंद्र सिंह, सुष्मिता गुप्ता, अभिषेक कुमार सिंह, अंकिता द्विवेदी, हिमांशु श्रीवास्तव, पार्थ सारथी पांडेय, प्रशांत कुमार शर्मा, राहुल त्यागी और हरिशंकर यादव के नाम शामिल हैं. इनमें से अधिकतर लोग माता प्रसाद पांडेय के विधानसभा क्षेत्र के रहने वाले, उनके या उनके करीबी नेताओं के रिश्तेदार या उनके जिले के रहने वाले समर्थक हैं. माता प्रसाद पांडेय ने नियुक्तियों को और पुख्ता करने के लिए कुछ अन्य दस्तावेजी खुराफात भी किए, जिसमें विधानसभा के प्रमुख सचिव प्रदीप कुमार दुबे और विशेष सचिव प्रमोद कुमार जोशी खास तौर पर उनका साथ देते रहे. 27 फरवरी 2017 को माता प्रसाद पांडेय ने विधानसभा सत्र में ओवरटाइम काम करने वाले 652 अधिकारियों/कर्मचारियों के लिए 50 लाख रुपये का अतिरिक्त मानदेय मंजूर किया और बड़ी चालाकी से उस लिस्ट में उन लोगों के नाम भी घुसेड़ दिए जिनकी नियुक्ति ही चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद की गई थी.

उल्लेखनीय है कि विधानसभा सचिवालय में समीक्षा अधिकारियों और सहायक समीक्षा अधिकारियों की नियुक्ति के लिए 12 जून 2015 को विज्ञापन प्रकाशित किया गया था. इसमें करीब 75 हजार अभ्यर्थियों ने आवेदन भरा था. विधानसभा ने उनसे फीस के बतौर कुल तीन करोड़ रुपये वसूले थे. नियुक्ति के लिए परीक्षा कराने का जिम्मा टाटा कंसल्टेंसी सर्विस (टीसीएस) को दिया गया था. इसके लिए टीसीएस को एक करोड़ 52 लाख 33 हजार 700 रुपये फीस के बतौर दिए गए. टीसीएस ने 29/30 दिसम्बर 2015 को 11 जिलों में बनाए गए केंद्रों पर ऑनलाइन परीक्षा ली. इस परीक्षा के रिजल्ट की लोगों को प्रतीक्षा थी. लेकिन सात महीने के इंतजार के बाद अभ्यर्थियों को पता चला कि वह परीक्षा तो विधानसभा अध्यक्ष द्वारा रद्द की जा चुकी है. 27 जुलाई 2016 को विधानसभा के नोटिफिकेशन के जरिए विशेष सचिव प्रमोद कुमार जोशी ने टीसीएस की ऑनलाइन परीक्षा रद्द किए जाने और दोबारा परीक्षा में शामिल होने के लिए उन्हीं अभ्यर्थियों से फिर आवेदन दाखिल करने का फरमान जारी किया. परीक्षा रद्द करने का कोई कारण भी नहीं बताया. इस अधिसूचना में यह बात भी गोल कर दी गई कि अब कौन सी कंपनी परीक्षा कराएगी. देश-प्रदेश से आवेदन करने वाले अभ्यर्थियों में भगदड़ जैसी स्थिति बन गई. हजारों अभ्यर्थियों को तो दोबारा परीक्षा की जानकारी भी नहीं मिल पाई. उनकी फीस का पैसा डूब गया. परीक्षा रद्द होने और उसे दोबारा आयोजित करने के बारे में नियमतः विज्ञापन प्रकाशित कराया जाना चाहिए था, लेकिन विधानसभा ने ऐसा नहीं किया. कहीं कोई पारदर्शिता नहीं. दोबारा परीक्षा देने के लिए 60 हजार अभ्यर्थी ही आवेदन दाखिल कर पाए. अभ्यर्थी और उनके अभिभावक परेशान और बेचैन थे, लेकिन विधानसभा के अंदर षडयंत्र का खेल बड़ी तसल्ली से खेला जा रहा था. इस बार परीक्षा कराने का ठेका गुपचुप तरीके से ‘ऐपटेक’ को दे दिया गया. इस बार महज छह जिलों में बनाए गए केंद्रों पर ऑफलाइन परीक्षा कराई गई. इसमें ओएमआर शीट पर जवाब के खानों में पेंसिलें घिसवाई गईं, ताकि आसानी से हेराफेरी की जा सके.

और ऐसा ही हुआ. करीब 60 समीक्षा अधिकारियों (आरओ) और 80 सहायक समीक्षा अधिकारियों (एआरओ) की ऐसे समय नियुक्तियां की गईं, जब उत्तर प्रदेश में चुनाव आचार संहिता लागू थी. ऐसे भी लोगों को नियुक्त किया गया जो परीक्षा में पास नहीं थे और निर्धारित उम्र सीमा से काफी ऊपर के थे. माता प्रसाद पांडेय को आभास था कि चुनाव परिणाम आने के बाद प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार नहीं बचेगी. विधानसभा सचिवालय के प्रमुख सचिव प्रदीप कुमार दुबे भी 30 अप्रैल 2017 को रिटायर होने वाले हैं. लिहाजा, बहती गंगा में हाथ धोते हुए 25-30 सहायक समीक्षा अधिकारियों की भी भर्ती कर ली गई. इसके लिए विधानसभा सचिवालय ने विज्ञापन प्रकाशित करने के नियम का पालन करना उचित नहीं समझा. इन नियुक्तियों में ऐसे लोग भी शामिल हैं जो शैक्षिक रूप से अयोग्य हैं और निर्धारित उम्र से बहुत अधिक उम्र के हैं. चपरासी की नियुक्ति का विज्ञापन एक सांध्य अखबार में प्रकाशित कराया गया और इसमें माता प्रसाद पांडेय ने अपने क्षेत्र के लोगों को भर दिया. अनाप-शनाप तरीके से पदोन्नतियां भी दी गईं. सपा नेता रामगोपाल यादव के करीबी बताए जाने वाले रमेश कुमार तिवारी को विधानसभा पुस्तकालय में विशेष कार्य अधिकारी (शोध) के पद पर बिना किसी चयन प्रकिया का पालन किए नियुक्त कर दिया. इसी तरह रिटायर हो चुके रामचंद्र मिश्र को फिर से ओसएसडी बना कर ले आया गया. इस तरह की कई बानगियां हैं. विचित्र किंतु सत्य यह भी है कि जिन 40 समीक्षा अधिकारियों की नियुक्ति वर्ष 2005 में हुई थी, उन्हें नियमित नहीं किया गया और वर्ष 2007 के चुनाव के समय आचार संहिता लागू होने के दरम्यान ही उन्हें निकाल बाहर किया. तब भी विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय ही थे. वर्ष 2011 में उन्हीं में से कुछ पैरवी-पुत्रों को फिर से नियमित कर दिया गया और बाकी लोगों को सड़क पर धक्के खाने के लिए छोड़ दिया गया. माता प्रसाद पांडेय को चुनाव आचार संहिता के दरम्यान ही नापंसद अधिकारियों को नौकरी से बाहर निकालने और आचार संहिता की अवधि में ही अपने पसंदीदा लोगों को नौकरी देने में विशेषज्ञता हासिल है.

माता प्रसाद पांडेय के दो दामादों और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर के दामाद की अवैध नियुक्तियों से विधानसभा का मजाक पहले ही उड़ चुका है. पांडेय ने अपने दो दामादों प्रदीप कुमार पांडेय और नरेंद्र शंकर पांडेय को सारे कानून ताक पर रख कर नियुक्त किया था. बड़े दामाद प्रदीप कुमार पांडेय 22 मार्च 2013 को विधानसभा में संपादक के पद पर और छोटे दामाद नरेंद्र शंकर पांडेय 12 मई 2015 को ओएसडी के पद कर नियुक्त किए गए थे. इसी तरह बसपा के शासनकाल में विधानसभा अध्यक्ष रहे सुखदेव राजभर ने भी अपने दामाद राजेश कुमार को विधानसभा सचिवालय में शोध और संदर्भ अधिकारी के पद पर बिना न्यूनतम योग्यता (अर्हता) और बिना प्रक्रिया का पालन किए हुए नियुक्त कर दिया था. माता प्रसाद पांडेय ने नियुक्तियों के लिए विधानसभा की नियमावली की उन धाराओं को भी संशोधित कर दिया जिसे संशोधित करने का अधिकार विधानसभा अध्यक्ष को है ही नहीं. विधानसभा में सूचनाधिकारी कर्मेश प्रताप सिंह की अवैध नियुक्ति के प्रसंग में इस संशोधन का भांडा फूटा. लेकिन तब तक पांडेय सूचनाधिकारी की नियुक्ति कर चुके थे.

माता प्रसाद पांडेय ने विधानसभा सचिवालय में समीक्षा अधिकारियों और सहायक समीक्षा अधिकारियों की भर्ती का लक्ष्य 2006 से ही साध रखा था. उस समय भी मुलायम के शासनकाल में माता प्रसाद पांडेय ही विधानसभा अध्यक्ष थे और उन्होंने 50 समीक्षा अधिकारियों और 90 सहायक समीक्षा अधिकारियों की नियुक्ति के लिए 12 मार्च 2006 को परीक्षा कराई थी. नियुक्तियों में विलंब हुआ और 2007 में सत्ता बदल गई. बसपा सरकार ने आते ही सारी परीक्षाएं रद्द कर दी थीं. बसपा काल में विधानसभा अध्यक्ष रहे सुखदेव राजभर ने समीक्षा अधिकारियों की नियुक्ति के लिए 14 अप्रैल 2011 में फिर से परीक्षा कराई. बसपाई विधानसभा अध्यक्ष ने वह परीक्षा उत्तर प्रदेश टेक्निक्ल युनिवर्सिटी (यूपीटीयू) से कराई. इसमें 48 लाख 50 हजार रुपये खर्च हुए. उस खर्च का हिसाब आज तक वित्त विभाग के पास जमा नहीं किया गया है. खैर, 2012 में फिर सत्ता बदली, माता प्रसाद पांडेय फिर विधानसभा अध्यक्ष बन गए. पांडेय ने फिर बसपा काल की परीक्षा रद्द कर दी. उसे टीसीएस से कराया. फिर रद्द कर दिया. फिर ‘ऐपटेक’ से कराया और सत्ता जाने के ऐन पहले अपनी मर्जी की भर्तियां कर डालीं, आचार संहिता का भी ध्यान नहीं रखा. माता प्रसाद पांडेय ने अपने कार्यकाल में विधानसभा सचिवालय में जितनी भी नियुक्तियां कीं, उनमें से कौन उनके रिश्तेदार हैं, कौन उनके विधानसभा क्षेत्र के हैं, कौन उनके जिले के नजदीकी हैं, कौन किस नेता के सगे हैं और कौन विधानसभा के किस अधिकारी के नातेदार हैं, इसका भी हम आगे विस्तार से खुलासा करेंगे.

अभी 18 मई 2017 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में दाखिल जिस याचिका पर फैसला आया है, उस याचिका में ऐसे कम से कम आधा दर्जन लोगों की लिस्ट संलग्न की गई थी, जिनके नाम सफल उम्मीदवारों की सूची में नहीं होने के बावजूद उन लोगों का चयन कर लिया गया. इस याचिका के जरिए भी हाईकोर्ट को यह जानकारी दी गई कि चयनित उम्मीदवारों में से दर्जनभर से अधिक उम्मीदवार तो एक ही जिले सिद्धार्थनगर के इटवा तहसील के हैं और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता से जुड़े हैं. ‘चौथी दुनिया’ पहले ही यह उजागर कर चुका है कि विधानसभा में नौकरी के लिए चुने गए सारे ‘योग्य’ लोग निवर्तमान विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय के करीबी हैं और पांडेय के गृह जनपद सिद्धार्थनगर जिले की ईटवा तहसील से हैं. हाईकोर्ट को यह जानकारी दी गई कि महज चार दिनों में आनन-फानन एक हजार 113 उम्मीदवारों के इंटरव्यू कराए गए. यानि, एक दिन में 278 उम्मीदवारों का इंटरव्यू निपटाया गया. अंतिम सूची में सफल उम्मीदवारों के अंक और जाति के विवरण का भी खुलासा नहीं किया गया. इसमें से एक उम्मीदवार की उम्र फॉर्म भरते समय केवल 19 साल थी, लिहाजा वह परीक्षा में शामिल होने के लिए भी पात्र नहीं था, लेकिन उसका भी चयन कर लिया गया. निर्धारित उम्र सीमा से कम उम्र के लड़कों की नियुक्ति करने में प्रदीप दुबे पुराने विशेषज्ञ हैं. बसपा के शासनकाल में जब सुखदेव राजभर विधानसभा अध्यक्ष हुआ करते थे, तब भी निर्धारित उम्र से कम के पैरवी-पुत्र नीरज अवस्थी को सहायक समीक्षा अधिकारी पर नियुक्त कर लिया गया. इस नियुक्ति पर आधिकारिक विरोध दर्ज करने वाले एक उप सचिव की फाइल दुबे ने गायब कर दी. विधानसभा सचिवालय के पुराने कर्मचारी कहते हैं कि वरिष्ठ आईएएस विजय शंकर पांडेय का भतीजा भी उक्त पद के लिए अभ्यर्थी था. उसके दस्तावेज फाइल से गायब करा दिए गए जिस वजह से वह साक्षात्कार में शामिल नहीं हो सका था.

समाजवादी शासनकाल में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय के निर्देश पर विधानसभा सचिवालय में 47 समीक्षा अधिकारी और 60 सहायक समीक्षा अधिकारियों की भर्ती का विज्ञापन निकाला गया था. 18 अक्टूबर 2016 को इसका परिणाम घोषित किया गया. लिखित परीक्षा में सफल अभ्यर्थियों के साक्षात्कार के लिए चार पैनल बनाए गए. कुल 1113 लोगों का साक्षात्कार लिया गया. चयन परिणाम जारी होने पर पता चला कि कई अयोग्य अभ्यर्थियों का चयन कर लिया गया. इनमें कई लोग पूर्व विधानसभा अध्यक्ष के नजदीकी और रिश्तेदार हैं. ऐसे लोगों को भी नियुक्ति दे दी गई जिनका नाम अंतिम चयन सूची में शामिल नहीं था. एक अभ्यर्थी सौरभ सिंह की आयु 19 वर्ष है, जबकि चयन में न्यूनतम आयु 21 वर्ष होनी चाहिए. 18 अक्तूबर 2016 को परिणाम घोषित होने के 24 घंटे के भीतर ही कई लोगों की ताबड़तोड़ ज्वाइनिंग करा दी गई. आरक्षण नियमों की भी अनदेखी गई. अकेले सिद्धार्थनगर से 13 लोगों की नियुक्ति की गई. याचिका में 45 चयनित अभ्यर्थियों को भी पक्षकार बनाया गया है. याचिकाकर्ताओं ने विधानसभा सचिवालय में हुई भर्ती-घोटाले से जुड़े कई दस्तावेज हाईकोर्ट को दिए, इनमें माता प्रसाद पांडेय के रिश्तेदारों को नौकरी देने के साक्ष्य भी शामिल हैं. इसके बावजूद हाईकोर्ट ने मामले की जांच के लिए कोई समय निर्धारित नहीं किया, न सरकार से या विधानसभा सचिवालय से इस सिलसिले में कोई रिपोर्ट तलब की और न जांच के लिए किसी निष्पक्ष एजेंसी को जिम्मा देने का ही राज्य सरकार को कोई निर्देश दिया.

बंसल जी के ‘अनमोल’ वचन…
आपको यह भी बता दें कि प्रदेश सत्ता के सूत्रधार भाजपा के संगठन मंत्री सुनील बंसल ने भी पिछले दिनों एक मुलाकात के दौरान ‘चौथी दुनिया’ से कहा कि उन्होंने विधानसभा सचिवालय में की गई नियुक्तियों में धांधली को उजागर करने वाली खबरें ‘चौथी दुनिया’ के कई अंकों में देखी हैं. यह मामला अत्यंत गंभीर है. इस मसले पर वे मुख्यमंत्री और नए विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित से बात करेंगे. बंसल ने अपने पास ‘चौथी दुनिया’ की कुछ प्रतियां भी रखीं और इस संवाददाता से कहा कि वे आज ही मुख्यमंत्री से मिलने जा रहे हैं और यह मुद्दा उनके समक्ष रखेंगे. बंसल जी ने यह मुद्दा मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष रखा या नहीं, इस बारे में उनसे दोबारा तो बात नहीं हुई, लेकिन जिस तरह के नतीजे सामने दिख रहे हैं उससे नहीं लगता कि बंसल जी ने मुख्यमंत्री या विधानसभा अध्यक्ष से इस मसले पर कोई बात की. बंसल जी का आश्वासन भी उनका राजनीतिक यानि, असत्य-वचन ही समझिए.

हाईकोर्ट के आदेश पर भी एक निगाह
विधायी पीठ के अंदर पीठाधीश और पीठाधिकारी द्वारा विधानसभा सचिवालय में की गई नियुक्तियों में घोर धांधली और भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की तरफ से क्या फैसला आता है, इस पर निगाह डालना और निगाह रखना दोनों ही आवश्यक है. इलाहाबाद हाईकोर्ट में दीपक कुमार राय और 18 अन्य द्वारा दाखिल याचिका (संख्या- 20423/2017) पर न्यायाधीश अमरेश्वर प्रताप शाही और दयाशंकर त्रिपाठी ने 18 मई 2017 को फैसला दिया…
‘हम लोगों ने याचिकाकर्ता की तरफ से वकील समीर श्रीवास्तव और प्रतिवादी की तरफ से अतिरिक्त महाधिवक्ता नीरज त्रिपाठी को सुना. याचिका में आरोप है कि विधानसभा सचिवालय में नियमों, योग्यता और निर्धारित आयु के प्रावधानों को ताक पर रख कर नियुक्तियां की गईं. राज्य सरकार द्वारा किसी सक्षम पदाधिकारी से इस मामले की जांच कराए जाने की आवश्यकता है. इस मत के साथ हम इस याचिका को निस्तारित करते हैं और प्रतिवादी नंबर-एक और प्रतिवादी नंबर-दो को यह निर्देश देते हैं कि याचिकाकर्ताओं की शिकायतों की जांच करे और अगर इसमें कोई अनियमितता पाई जाती है, जो संज्ञान लेने लायक होगी, तब वादी के लिए आगे की कार्रवाई का रास्ता खुल सकेगा, लेकिन चयनित उम्मीदवारों को पहले इस बारे में सूचित करना होगा.’

जब शनिवार को सचिवालय खुलवा कर गायब की गई फाइलें!
22 अप्रैल को शनिवार का दिन था. सरकारी दफ्तर बंद थे. अचानक विधानसभा सचिवालय का दफ्तर खोला गया. प्रमुख सचिव प्रदीप कुमार दुबे के कुछ खास अधिकारी कर्मचारी फाइलें और दस्तावेज टटोलते दिखे. शनिवार को दफ्तर खोलने का आदेश किसने जारी किया और क्यों जारी किया इसका आधिकारिक स्पष्टीकरण अब तक सामने नहीं आया. शनिवार को विधानसभा सचिवालय का दफ्तर खुलवा कर कुछ दस्तावेज गायब करने की खबर उड़ी और ट्विटर से लेकर फेसबुक और सोशल मीडिया के दूसरे माध्यमों से यह खबर चर्चा में आ गई. विधानसभा सचिवालय नियुक्ति-घोटाले का शिकार कुछ बच्चों ने इस संवाददाता को भी फोन पर यह सूचना दी. इस संवाददाता ने भी ट्विटर पर यह सूचना प्रसारित की. इसके बावजूद विधानसभा सचिवालय की ओर से कोई सार्वजनिक स्पष्टीकरण जारी नहीं किया गया. इस मौन को स्वीकारोक्ति के बतौर माना जा रहा है.

सभार: चौथी दुनिया

 

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