गांधी हत्याकांड पर बड़ा खुलासा : “जलनखोर” नेहरू की साज़िश में फंसे वीर सावरकर!

प्रखर श्रीवास्तव

सेक्युलर, लिबरल, वामियों का ये कहना है कि वीर सावरकर को इसलिए भारत रत्न नहीं मिलना चाहिए क्योंकि वो महात्मा गांधी हत्याकांड के अभियुक्त थे। ये और बात है कि सावरकर 1949 में ही गांधी हत्याकांड में बरी हो गए थे। लेकिन आज जो मैं ऐतिहासिक तथ्य देने वाला हूं वो बहुत चौंकाने वाले हैं। ये तथ्य इस बात की और इशारा करते हैं कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक साज़िश रच कर वीर सावरकर का नाम गांधी हत्याकांड में घसीटा था। मैं जानता हूं, मेरे ये लिखने के बाद “नेहरू भक्तों” के नथुने फड़कने लगेंगे इसीलिए मैं उन्हे बता देना चाहता हूं कि ये कोई कपोल कल्पना नहीं है बल्कि नेहरू ने सावरकर के खिलाफ खुली साज़िश रची थी, इसका शक खुद डॉ भीमराव बाबासाहेब अंबेडकर को भी था। जी हां, अंबेडकर को लगता था कि नेहरू साजिश रच कर सावरकर को गांधी हत्याकांड में फंसाना चाहते हैं।

ये तब की बात है जब लाल किले की अदालत में महात्मा गांधी हत्याकांड का केस चल रहा था और वीर सावरकर की तरफ से केस लड़ रहे थे देश के जाने-माने वकील एल बी भोपटकर ट्रायल के दौरान अक्सर भोपटकर हिंदू महासभा के दफ्तर में रुकते थे। भोपटकर ने बताया था कि एक सुबह उनके लिए फोन आया। जब उन्होने फोन उठाया तो रिसीवर पर आवाज़ आई कि “मैं बी. आर. अंबेडकर बोल रहा हूं आज शाम क्या आप मुझसे मथुरा रोड के छठे मील पर मिल सकते हैं?’’ उस शाम को जब भोपटकर खुद कार चलाकर तय जगह पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि डॉ. अंबेडकर पहले से इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने भोपटकर को अपनी कार में बैठने को कहा जिसे वो खुद चला रहे थे। कुछ मिनटों के बाद, उन्होंने कार को रोका और भोपटकर को बताया कि – “तुम्हारे मुवक्किल सावरकर के खिलाफ कोई पुख्ता आरोप नहीं हैं, पुलिस ने बेकार के सबूत बनाये हैं। नेहरू कैबिनेट के कई सदस्य इस मुद्दे पर उनके खिलाफ हैं। लेकिन दबाव में कोई कुछ नहीं कर पा रहा, फिर भी मैं तुम्हें बता रहा हूं कि सावरकर पर कोई केस नहीं बनता, तुम जीतोगे” हैरान भोपटकर ने पूछा कि – “तो दवाब कौन बना रहा है, जवाहरलाल नेहरू? लेकिन क्यों?” अंबेडकर ने कोई जवाब नहीं दिया।

वकील भोपटकर और अंबेडकर की इस गुप्त वार्ता का जिक्र मनोहर मलगांवकार ने भी किया है। महात्मा गांधी हत्याकांड पर अगर इस देश में सबसे पहले निष्पक्ष रिसर्च किसी ने किया था तो वो थे देश के जाने माने लेखक मनोहर मलगांवकर। उनके इस रिसर्च को सबसे पहले 60 के दशक की शुरुआत में दुनिया की मशहूर पत्रिका लाइफ ने छापा था, और 1975 में उनकी किताब आई “The Men Who Killed Gandhi” जिसे छापा था लंदन के प्रकाशक मैक्मिलन ने, इसी किताब के पेज नंबर 284 पर ये पूरा खुलासा है, इस पेज की तस्वीर आप नीचे कमेंट बॉक्स में देख सकते हैं, और इसके बाद भी अगर किसी “नेहरू भक्त” को ये लगता है कि मनोहर मलगांवकर संघी थे तो वो अपना रिसर्च करने के आज़ाद है लेकिन उन्हे निराशा ही हाथ लगेगी, मनोहर मलगांवकर की निष्पक्षता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता।

दरअसल अगर आप गांधी हत्याकांड का सूक्ष्म अध्यन करेंगे तो पाएंगे कि सावरकर पर लादा गया केस सिर्फ एक व्यक्ति की गवाही पर आधारित था और वो था दिगंबर बड़गे, बड़गे गांधी हत्याकांड में शामिल था और पहली पूछताछ में ही वो सरकारी गवाह बन गया था। उसने ये दावा किया था कि जब गोडसे और आप्टे गांधी की हत्या से पहले सावरकर से मिलने गये थे तो वो उस मुलाकात का चश्मदीद था और उसने दूर से सुना था कि सावरकर ने गोडसे और आप्टे को मराठी में कहा कि ‘यशस्वी होऊन या’ मतलब कि “यशस्वी होकर आना”, सिर्फ इसी एक वाक्य की वजह से नेहरू सरकार ने सावरकर को गांधी हत्याकांड में अभियुक्त बना दिया, बाद में गांधी हत्या की जांच के लिए बने कपूर कमीशन ने माना है कि बड़गे एक अपराधिक किस्म का व्यक्ति था जो अवैध हथियारों का धंधा करता था, सोचिए एक उठाईगिरे की गवाही पर इस देश के लिए 11 साल तक कालापानी में अंग्रेज़ों के जुल्म सहने वाले क्रांतिकारी को हत्यारा साबित करने की कोशिश की गई, इससे शर्मनाक क्या हो सकता है?

खैर 10 फरवरी 1949 को लाल किले में लगी अदालत में जस्टिस आत्माचरण ने वीर सावरकर को गांधी हत्याकांड के आरोप से बरी कर दिया, लेकिन इस फैसले के 70 साल बाद भी तमाम सिकुलर, लिबरल और वामी बेहरुपिये, वीर सावरकर को बापू का हत्यारा मानते हैं। ऐसे में इनसे पूछना बनता है कि अगर सही में सावरकर बापू के हत्यारे थे तो इनके पितृ पुरूष चाचा नेहरू की सरकार ने हाईकोर्ट में सावरकर के खिलाफ अपील क्यों नहीं की? जबकि लाल किले की अदालत के फैसले के बाद शिमला में पंजाब हाईकोर्ट की बेंच में नाथूराम गोडसे, गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, दत्तात्रेय परचुरे की अपील पर केस चला, और इसी के बाद गोडसे-आप्टे को फांसी दी गई, तो मेरा सवाल ये है कि अगर सही में वीर सावरकर गांधी के कातिल थे तो नेहरू सरकार ने उन्हे फांसी पर टांगने के लिए कोशिश क्यों नहीं की ? जानते हैं क्यों… क्योंकि वीर सावरकर के खिलाफ कोई सबूत नहीं था और अपनी इस मजबूरी को नेहरू भी जानते थे।

आपके मन में ये सवाल ज़रूर उठ रहा होगा कि आखिर नेहरू को वीर सावरकर से दिक्कत क्या थी ? दरअसल उस दौर में देश बंटवारे की विभिषिका झेल रहा था और देश के एक बड़े तबके का भरोसा कांग्रेस की नीतियों से उठ गया था। दंगो के बाद आरएसएस और हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति लोगों का रूझान तेज़ी से बढ़ रहा था। नेहरू भी इसे महसूस कर रहे थे और वो अक्सर सार्वजनिक मंचों से आरएसएस और हिंदू महासभा को कुचलने का ऐलान करते थे। नेहरू के इन बयानों के सबूत आज भी मौजूद हैं, बहुत संभव है कि गांधी हत्याकांड ने नेहरू को ये मौका दे दिया और उन्होने हिंदुत्व के नायक वीर सावरकर को और आरएसएस कुचलने के लिए इसका इस्तेमाल किया हो?

आजादी के बाद नेहरू के लिए कोई चुनौती नहीं थी, बहुत बाद में जाकर उनके विरोधी बने कृपलानी, जेपी, लोहिया, टंडन, प्रसाद सब उस वक्त कांग्रेस में थे। उनके लिए सिर्फ दो लोग चुनौती थे और वो थे वीर विनायक दामोदर सावरकर और संघ प्रमुख गोलवलकर, संभव है कि नेहरू ने इसीलिए गांधी हत्याकांड में सावरकर को घसीटा हो और संघ पर प्रतिबंध लगा कर गोलवलकर को गिरफ्तार करवा दिया या हो?
इस बात की भी बहुत संभावना है कि पंडित नेहरू को सावरकर से बेहद जलन या ईर्ष्या हो, क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि, चाचा नेहरू के अंदर जलन और ईर्ष्या का भाव कूट-कूट कर भरा था, ये मैं नहीं कह रहा बल्कि खुद उनके सबसे कट्टर समर्थक मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपनी किताब “इंडिया विन्स फ्रीडम” के पेज नंबर 123 पर लिखा है कि “जवाहर लाल नेहरू ये सहन नहीं कर पाते कि कोई भी अन्य व्यक्ति उनके मुकाबले ज्यादा प्रशंसा हासिल कर पाए”

 

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