गुजरात में गांव-गांव में फैला है कुपोषण का ‘दानव’, लगातार जान गंवा रहे हैं नौनिहाल

प्रतीकात्मक फोटो

वडोदरा। अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में नवजात बच्चों की मौत के बाद फिर से एक बार कुपोषण के मुद्दे पर बहस छिड़ गई है. बहस में गुजरात सरकार पर कोताही बरतने के गंभीर आरोल लग रहे हैं.

जब ‘आज तक’ की टीम ने कुपोषण के मामले में गुजरात का अन्य राज्यों की तुलना में कैसा प्रदर्शन है यह जानने की कोशिश की तो काफी चौंकाने वाले मामले सामने आए. खासकर उच्च मध्यम और निचले तबके के सभी लोग कहीं ना कहीं कुपोषण का शिकार हैं.

वडोदरा में सेंटर फॉर कल्चर एंड डेवलपमेंट के रिसर्च कंसल्टेंट डॉ जयेश शाह ने बताया, “ऐसा नहीं है कि सिर्फ आदिवासी इलाके में कुपोषण के मामले पाए जाते हैं. अर्बन इलाके में भी यह काफी गंभीर समस्या है. इसके लिए हमें फूड हैबिट को बदलना आवश्यक होगा.”

निवास के आधार पर कुपोषण

नगरीय- 38%

ग्रामीण- 49%

बच्चे की मां की शिक्षा के आधार पर कुपोषण

निरक्षर मां- 57%

हाई स्कूल तक पढ़ाई करने वाली मां- 41%

स्नातक तक की पढ़ाई करने वाली मां- 32%

मां के व्यवसाय के आधार पर कुपोषण

पारिवारिक खेती/व्यवसाय- 56%

घर के बाहर कार्यरत- 61%

खुद का व्यवसाय- 40%

 गृहणी- 37%

डॉ जयेश शाह ने बताया, “0 से 6 साल के ग्रुप में 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. ऐसे बच्चों की मृत्यु दर भी 45 प्रतिशत आंकी गई है. जो सही मायने में काफी गंभीर है. गुजरात में शहर और गांवों में कुपोषण की समस्या से जूझने के लिये सरकार ने बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स बना दी हैं मगर वहां स्टाफ ही नहीं हैं. मतलब सरकार हार्डवेयर बना रही है मगर उनको सॉफ्टवेर की अहमियत पता ही नहीं है.”

आय के आधार पर कुपोषण

ऊपरी आय समूह- 30%

मध्य आय समूह- 45%

निम्न आय समूह- 60%

जाति के आधार पर कुपोषण

अनुसूचित जाति- 45%

अनुसूचित जनजाति- 57%

अन्य पिछड़ा वर्ग- 42%

सवर्ण- 32%

अब आय और जाति आधारित आंकड़े पर डॉ जयेश शाह का संशोधन है उस पर गौर करते हैं. डॉ जयेश शाह के मुताबिक, “गुजरात सरकार जो पैसे खर्च करती है वो कुपोषण की समस्या से जूझने के लिए काफी कम है. ऐसे में विविध एनजीओ और प्रभावी लोगों के साथ ही इस समस्या के निर्मूलन के लिए हल्ला बोल करना पड़ेगा तभी गुजरात सशक्त हो पाएगा.”

 

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