गुजरात में बदलाव सम्भव नहीं, रज़िया फंस गई……. हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के जाल में

नई दिल्ली। सरकार के खिलाफ एक कार्यकाल के बाद ही जिस तरह से लोगों का सत्ता विरोधी रुझान बन जाता है,और  एक ही पार्टी की सरकार के खिलाफ माहौल आसानी से बनता नही दिखाई देता है वैसा गुजरात मे तो कतई नही है। गुजरात चुनाव का माहौल जिस प्रकार टीवी चैनलों पर अधिक जोर शोर से दिखाई दे रहा है वैसा गुजरात पहुंचने पर वहां का माहौल ठीक इसका उल्टा ही दिखाई देता है।  गुजरात में आने पर साफ दिखता है कि सामान्य तौर पर यहां गुजराती चुनाव को लेकर यूपी, बिहार की तरह  उत्साहित नहीं है।  चुनाव का उत्साह तभी दिखता है जब आम जनता सरकार को बदलने का मन बना लेती है।

2017 के विधान सभा चुनाव में यह उन सभी राज्यो में देखने को मिला था जहां सत्ता बदलने की लड़ाई चल रही थी। उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावो को ले तो आम जनता चुनाव में बढ़ चढ़ कर रुचि ले रही थी। चाय, कपड़े या बारबर की दुकान हो या परिवहन सेवाओ में, लगता है कि सरकार बनाने का ठेका उन्ही लोगो के पास है जो इस विषय पर चर्चा करते थे।

गुजरात का माहौल इसके विपरीत है। गुजराती चुनाव से पहले अपने काम के प्रति निष्ठावान दिखाई देते है।इसका एक मात्र कारण उसकी सरकार से संतुष्टि है।नोटबन्दी हो, जीएसटी या कानून व्यवस्था किसी को भी सरकार से शिकायत नही।सभी गुजरात के विकाम से खुश और संतुष्ट दिखाई देते है। कपड़ा व्यापारियों को भी जीएसटी से कोई परेशानी नही रहती है। गुजरातियों को इस बात पर गर्व है कि उनके गुजरात  का एक व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री है और  गुजराती प्रधानमंत्री की वजह से दुनिया में गुजरातियों की हैसियत बढ़ी है।

अल्पेश-जिग्नेश-हार्दिक की साझा ताकत को इस्तेमाल करने में कांग्रेस चूक गई है। यह बात भी गुजरात में साफ समझ में आती है। अब गुजरात चुनाव के नतीजे ही तय करेंगे कि क्या अल्पेश-जिग्नेश-हार्दिक के नेतृत्व वाले समूहों के आपसी विरोध की वजह से ही तीनों एक साथ मिलकर कांग्रेस के साथ नहीं आ पाए। हार्दिक की उम्र चुनाव लड़ने की नहीं है, इसलिए सवाल है कि उनके पीछे खड़ी भीड़ किसे वोट करेगी?

इस प्रश्न पर कि पाटीदार को भाजपा से कुछ नही मिला । लोगो से ओरशन के रूप में जवाब मिलता है कि  पाटीदारों को नहीं मिला तो मिला किसको? भाजपा के राज में पाटीदारों की हैसियत सबसे ज्यादा रही है। कारोबार से लेकर सरकार तक पाटीदारों को ही भाजपा के राज में तवज्जो मिली है। ऐसे में हार्दिक के साथ भीड़ तो इकट्ठा हो रही है, लेकिन सीधे तौर पर लाभ पाए इस समूह के लोग मतदान केंद्र में कमल के निशान को अनदेखा कर पाएंगे, ऐसा कहना मुश्किल है।

2002 के बाद मोदी की अगुवाई में भाजपा के राज में गुजरातियों की जीवनशैली में जो स्थिरता आई है, उसे तोड़ने की मन:स्थिति गुजरातियों की बनती नहीं दिख रही है। रात के 11 बजे महिलाएं जिस तरह से गुजरात के शहरों में अपने लिए खरीदारी करती नजर आ जाती हैं, वह दूसरे राज्यों के लिए कल्पना नहीं की जा सकती है। गुजरात को देखः पूरे देश की महिलाएं नारी सुरक्षा के लिए भाजपा की ही सराहना करती दिखाई देती है। इस बार गुजरात मे भाजपा की जीत निश्चचित रूप से 2019 के लोक सभा चुनाव के लिए भाजपा को बहुत कुछ देने वाला है।

अब सीधे तौर पर यह  कहा जा सकता है कि गुजरात में दंगे अब नहीं होते और गुजरात में सुरक्षा का अद्भूत भाव है। इसके खिलाफ दिल्ली में बैठकर सबसे बड़ा तर्क यही आता है कि गुजरात में मुसलमानों में जो असुरक्षा का भाव है, उसकी बात कोई नहीं करता है। 2002 के दंगे दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक हैं। उस दौरान हिंदू-मुसलमान के बीच की खाई भी बढ़ी। मगर पिछले 15 सालों में हिंदू-मुसलमान की एक से ज्यादा पीढ़ियां बड़ी हो गई हैं और उनको मीडिया सतर्क न करे तो उनके लिए हिंदू-मुस्लिम विभाजन रोजमर्रा में लगभग न के बराबर है।

 

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