…………….तब शताब्दी ट्रेन का विरोध हुआ था अब बुलेट ट्रेन का विरोध हो रहा है

लखनऊ। तब सरकार राजीव गांधी की थी। रेल मंत्री थे ग्वालियर के महाराजा माधवराव सिंधिया। 1986 से 1989 के बीच गजब का काम किया रेलवे में। हुलिया बदलकर रख दिया। उस समय भारतीय रेल का आधुनिकीकरण और कम्प्यूटराइजेशन संभव हुआ तो वह सिंधिया के विजन की बदौलत। सिंधिया सपने देखते थे। उसे धरातल पर उतारने के लिए बेचैन हो उठते थे। एक तो राजा थे, दूसरे रेल मंत्री। मगर, सफर करना होता था तो सैलून की सेवा नहीं लेते थे। उन्हें आम यात्रियों के बीच बैठकर सफर ज्यादा सुहाता था। करीबियों के पूछने पर कहते थे-इसी बहाने रेलयात्रियों का सुख-दुख पता चल जाता है। यात्रियों के सुझावों पर अमल करने से रेलवे की तस्वीर सुधारने में मदद मिलती है। सपने देखने की आदत थी। एक दिन सिंधिया ने ऐसा सपना देखा, जिसने भारतीय रेलवे को शानदार सौगात दी। सपने में सिंधिया ने देखा कि वह देश की सबसे तेज रेल में सफर कर रहे हैं। सोकर उठने के बाद सिंधिया ने ठान लिया कि वह देश में हाईस्पीड ट्रेन लाकर ही छोडेंगे। जो कम से 130 से 150 किमी घंटे की रफ्तार भरेगी। जिद्दी थे। जुनूनी थे। तो जुट गए अपने सपने को हकीकत बनाने में। मंत्री जी फॉर्म में आए तो पूरी मशीनरी एक्टिव मोड में आ गई।

आखिर आ ही गई वो तारीख। 11 अप्रैल 1988। जिस दिन सिंधिया के सपनों को पूरे देश ने जमीं पर उतरते देखा। नई दिल्ली से झांसी के बीच 130 किमी/घंटा की रफ्तार से देश की सबसे हाईस्पीड ट्रेन दौड़ी। यह वही ट्रेन थी, जिसे हम आज शताब्दी के नाम से जानते हैं। शताब्दी नाम इसलिए पड़ा, कि उस साल नेहरू की जन्म शताब्दी थी। उन्हें सिंधिया ने ट्रेन समर्पित कर दी। राजधानी से झांसी के बीच शुरू पहली शताब्दी बाद में भोपाल तक बढा दी गई। जिसे आज भोपाल शताब्दी के नाम से हम जानते हैं। नई दिल्ली और आगरा स्टेशनों के बीच रफ्तार करीब 150 किमी/घंटा है। शताब्दी एक्सप्रेस की पूरी एक सीरीज है। जिसे स्वर्ण शताब्दी एक्सप्रेस के नाम से जाना जाता है। यह गाडी़ भारतीय रेल की शानदार गाड़ी मानी जाती है। भारतीय रेल ने बाद मे शताब्दी एक्सप्रेस का एक बिना वातानुकूलन और कम किराए वाला संस्करण शुरू किया, जिसे हम जन शताब्दी के नाम से जानते हैं। भारतीय रेल, शताब्दी एक्सप्रेस की 12 और जनशताब्दी एक्सप्रेस की 16 जोड़ियों के साथ परिचालन करती है। शताब्दी एक्सप्रेस की 12 जोड़ियों मे से आठ नई दिल्ली से शुरु होती हैं।

जब माधवराव सिंधिया ने देश की सबसे फास्ट और सुख-सुविधाओं से लैस #शताब्दी_ट्रेन गुजारने की योजना बनाई, तब उन्हें भी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा। अंधविरोधियों ने तर्क-कुतर्क करने शुरू किए। कहा गया कि – जो देश गरीबी के दुश्चक्र में फंसा हो, जहां भारी बेरोजगारी हो, उस देश मे ऐसी विलासिता पूर्ण रेलगाड़ी चलाने की क्या जरूरत। सिंधिया ने इसकी परवाह नहीं की। बहरहाल, शताब्दी एक बार पटरी पर दौड़ना शुरू हुई तो अपनी सुविधाओं और टाइमिंग के कारण लोकप्रिय हो गई। यह सच है कि शताब्दी का किराया आम ट्रेनों से महंगा है। सबके बस की बात नहीं है सवारी करना। फिर भी आम ट्रेनों जैसी ही बुकिंग की मारामारी होती है। सीट पाना आसान नहीं रहता। मतलब तमाम आशंकाओं के बावजूद परियोजना सफल रही। अब देश में बुलेट ट्रेन की तैयारी शुरू हुई है। जिसे हवा-हवाई कहा जा रहा था, वह प्रोजेक्ट शिलान्यास तक पहुंच चुका है। सिंधिया के जमाने की तरह मोदी के जमाने में भी अब बुलेट ट्रेन की आलोचना हो रही है। यह सच है कि भारतीय रेलवे को बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने की जरूरत है। बूढ़ी पटरियों को बदलने की जरूरत है। ढीले नट-बोल्ट टाइट करने की जरूरत है। बुलेट ट्रेन भी दौड़े, मगर आम ट्रेनों का भी पुरसाहाल रहे। निजाम, को इसका ख्याल रखना चाहिए। मगर बुलेट ट्रेन की आलोचना सिर्फ राजनीतिक कारणों से नहीं होनी चाहिए।

ध्यान दीजिए। विकास एक सतत प्रक्रिया है। विकास आगे बढ़ने का नाम है। अभी इसकी जरूरत क्या थी….वगैरह…वगैरह की फेर में हम पड़ें तो फिर तो विकास हो ही न पाए। जैसै महंगी शताब्दी ट्रेन सफल हुई, वैसे ही बुलेट ट्रेन परियोजना भी सफल होगी। हमें लगता है, जो लोग विरोध कर रहे हैं, वह सबसे पहले टिकट बुक कराकर सफर करेंगे। खैर #बुलेट_ट्रेन के बहाने थोड़ा और #सिंधिया का किस्सा सुन लीजिए। क्योंकि सिंधिया की 14 दिन बाद पुण्यतिथि आने वाली है। 30 सितंबर 2001 को विमान हादसे में जान गंवानी पड़ी थी। 1961 में ग्वालियर के महाराजा बने सिंधिया नौ बार लोकसभा सदस्य रहे। 1984 के लोकसभा चुनाव में ग्वालियर सीट से अटल बिहारी #बाजपेयी को भारी मतों से हराने वाले सिंधिया ही थे।

 

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