………….तो मायावती भी चाहती हैं प्रशांत किशोर जैसे चुनावी प्रबंधक
लखनऊ । मायावती नोटबंदी के मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरने वाली पहली नेता रही हैं। 8 नवंबर को केंद्र सरकार के इस बड़े फैसले के बाद इस दलित नेता ने दूसरे ही दिन बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर सरकार को आड़ेे हाथों लिया। वे विपक्ष की ओर से भी ऐसी पहली नेता थीं, जिसने नोटबंदी पर सरकार को घेरने के लिए तेजी दिखाई, जबकि शुरुआत में वामदल से लेकर कांग्रेस तक इस मुद्दे को लेकर अपनी रणनीति बना रहे थे और अपने स्टैंड को लेकर लगभग कंफ्यूज ही थे जबकि माया अपना काम करके जा चुकी थीं। इधर, इस मुद्दे पर संसद में भी जितनी मुखरता मायावती ने दिखाई वह किसी और ने नहीं दिखाई, हालांकि ममता, जंतर-मंतर से लेकर संसद तक में सरकार को घेरती रहीं और राहुल गांधी बैंकों की लाइन में प्रतीकात्मक विरोध करते दिखाई दिए, लेकिन माया की तुलना में वे लेट हो गए।
दरअसल, यह मायावती की राजनीतिक दूरदृष्टि रही है कि वे सरकार के हर फैसले को दलितों, वंचितों और शोषित जन के जीवन में महत्व और उन पर होने वाले प्रभाव के रूप में देखती रहीं हैं और जहां भी इसमें लूप होल दिखाई देता है, वे सत्ता को निशाने पर लेती हैं।
बहरहाल, बात यूपी विधानसभा की करें, तो मायावती की यह राजनीतिक दूरदृष्टि सूबे में सत्तासीन अखिलेश सरकार की विकास रथयात्रा, राहुल गांधी की किसान यात्रा और बीजेपी की परिवर्तन यात्रा की तुलना में बेहद मंद और फीकी पड़ती जा रही है। यूपी की सियासत में अपना एक अलग मुकाम रखने वाली मायावती की ओर से इन दिनों राज्य की सत्ता में ऐसा कोई भी चुनाव अभियान नजर नहीं आ रहा जो इस चुनावी महासमर में उनकी उपस्थिति पैदा करता हो।
यही नहीं, हाल ही के दिनों में, ना तो वे अपनी रैलियों के जरिये मीडिया में सुर्खियां हासिल कर पाईं हैं और ना ही उनके पास ऐसे राष्ट्रीय प्रवक्ता, नेता हैं जो उनकी पार्टी के स्टैंड का व्यापक प्रभाव पैदा करते हों। ले-देकर वे बसपा का एकमात्र ऐसा चेहरा रहीं हैं, जो पार्टी का परिचय हैं, यानी की वे पार्टी से बड़ी हो चुकी हैं और पूरी पार्टी ही उनके ईर्द-गिर्द घूमती है, यही वजह है कि वे देश में सुर्खियों में रहने के लिए राष्ट्रीय स्तर से मुद्दे चुराती हैं और उन्हें सूबे में भुनाती हैं और इसमें उनका कोई सानी नहीं। नोटबंदी का मुद्दा इसी की बानगी है।
खास बात यह है कि मायावती खुद भी अब इस चीज को समझने लगी है कि ये स्थिति अब ज्यादा दिन तक चलने नहीं वाली, लिहाजा वे भी अब पार्टी के लिए नई रणनीतियां तैयार करने के लिए एक मैकेनिज्म तैयार करना चाह रही हैं। वे चाह रही हैं कि उनके पास भी पार्टी में हर मोर्चे पर विवेकवान, तीक्ष्ण बुद्धि के वक्ता, प्रवक्ता हों, जो देश भर में ध्यान खींचने की ताकत रखते हों। कुल मिलाकर मायावती प्रशांत किशोर जैसे चुनावी प्रबंधक चाहती हैं जो सारे काम संभाल लें, क्योंकि 2017 में केवल यूपी ही नहीं, बल्कि 2019 तक देश में चुनाव ही चुनाव हैं, लेकिन ऐसा फिलहाल तो संभव नहीं दिखाई दे रहा है।
दरअसल, मायावती को बसपा के लिए चुनावी रणनीतिकार और प्रबंधक की जरूरत इसलिए लगने लगी है क्योंकि उन्हें भी यह महसूस होने लगा है कि जिस प्रशांत किशोर के बूते पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रचण्ड बहुमत प्राप्त किया, उसी पीके के नेतृत्व में बिहार में नीतीश-लालू की जोड़ी ने भी विरोधियों को परास्त कर बहुमत प्राप्त किया और इस बार पीके कांग्रेस की डूबती नैय्या के खेवनहार हैं, तो बसपा की नाव को भी ऐसे ही किसी माझी के जरिये पार लगाने की जरूरत है। वैसे सूत्रों की मानें तो प्रशांत किशोर जैसी करामाती शख्सियत को बहुजन समाज पार्टी में लाने का प्रयास पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व भी कर रहा है। बसपा सुप्रीमो मायावती खुद भी अपनी पार्टी के लिए एक ऐसे ही प्रशांत किशोर की तलाश कर रही हैं।
सूत्रों के अनुसार आने वाले विधानसभा चुनावों में बसपा भी ठीक वही रणनीति अपनाना चाहती है, जैसी भाजपा और कांग्रेस ने अपनाई है। हालांकि बसपा का दलित वोट बैंक तो कहीं खिसकने वाला नहीं, लेकिन ऐसा भी नही है कि सिर्फ इसी वोट बैंक के बल पर बसपा यूपी की सत्ता का स्वाद चख पाए। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि असल में प्रशांत किशोर का ज्यादातर दखल सोशल मीडिया द्वारा प्रभावित होने वाले वोटर्स पर होता है, जिसकी मौजूदा समय में सबसे अधिक संख्या है, इसलिए अब दूसरी पार्टियां भी इस अश्वमेघ के घोड़े को दौड़ाना चाहती हैं, लेकिन समस्या ये है कि अश्वमेघ का घोड़ा तो सिर्फ एक ही होता है।
जानकारों की मानें तो बसपा की नजर उस बौद्धिक तबके के वोटर्स पर है, जो बाबा साहब आंबेडकर और कांशीराम के प्रशंसक हैं। यही नहीं बसपा का थिंक टैंक भी एक ऐसी टीम की तलाश में है, जो इलेक्ट्रानिक, प्रिंट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक विरोधियों के आरोपों का जवाब दे सके। आपको बता दें कि भारत में इस समय इंटरनेट यूजर की संख्या लगभग 30 करोड़ है, और सोशल मीडिया पर लगभग 15 करोड़ लोग हैं। जबकि बहुजनों की ज्यादातर आबादी सोशल मीडिया से अभी बाहर है, लेकिन ऐसा नहीं है कि वे सोशल मीडिया पर होंगे ही नहीं, क्योंकि जिस तरह से डिजिटल इंडिया का नारा फल फूल रहा है, आने वाले समय में दलित भी सोशल मीडिया पर होंगे, ऐसे में मायावती ये चाहती हैं कि जब वे डिजिटल इंडिया का हिस्सा बनकर सोशल मीडिया पर दस्तक दें तो उनका चेहरा उन्हें ट्विटर और फेसबुक पर दिखाई दे।
दरअसल, बसपा के थिंकटैंक माने जाने वाले एक ब्राह्मण् नेता का कहना है कि इस बार बसपा का बदला रूप विरोधी पार्टियों और जनता को सोचने पर मजबूर कर देगा। उनके अनुसार बसपा ही एकमात्र पार्टी है, जो जनता को हर मामले में राहत दिला सकती है। बसपा को लेकर विरोधी पार्टियों ने खूब अफवाहें फैला रखी है, जिसका पार्टी उन्हीं की भाषा में जवाब देगी। अगर 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारी की बात करें, तो इस मामले में बीजेपी सबसे आगे चलती दिखाई दे रही है, और उसके पीछे कांग्रेस और सपा में नजदीकी लड़ाई है। 2014 चुनाव में केंद्र की सत्ता से बाहर जाने वाली कांग्रेस को भी धीरे-धीरे इसकी ताकत का अंदाजा लगने लगा है, जिससे वो पीके के नेतृत्व में सक्रिय तो हुई है, लेकिन अभी भी कम है।
फ़िलहाल राष्ट्रीय दलों की तुलना में यूपी की क्षेत्रीय पार्टियां इस मामले में अब भी पीछे चल रही हैं। सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की तरफ से सिर्फ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ही सोशल मीडिया पर सक्रिय दिखते हैं, जबकि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सक्रियता ना के बराबर है। यूं कहें तो सोशल मीडिया में मायावती की पार्टी सबसे कमजोर साबित हो रही है। देखना दिलचस्प होगा की बसपा की इस नई चाल का विरोधियों के कॉफिडेंस पर क्या असर पड़ता है क्योंकि सभी अपनी जीत के प्रति लगभग आश्वस्त हैं।
इधर, जहां तक प्रशांत किशोर जैसे चुनावी और राजनीतिक प्रबंधक की बात करें तो ऐसा तो संभव नहीं दिख रहा है कि मायावती उसे जल्द ही तलाश लें, लेकिन इस बात में भी कोई दो राय नहीं कि आने वाले समय में बसपा के पास भी एक नया चुनावी प्रबंधक हो, जो यकीनन प्रशांत किशोर तो नहीं होंगे, लेकिन उनके जैसा ही कोई होगा, क्योंकि मायावती इस बात को ठीक से जान गईं हैं कि यदि उन्होंने आने वाले में पार्टी और उसके काम करने का तरीका नहीं बदला, तो डिजिटल इंडिया की क्रांति में पैदा होने वाला नया दलित वोटर उनसे छिटक जाएगा और ना केवल उनके राजनीतिक वजूद पर, बल्कि पूरी बसपा की सियासी प्रासंगिकता की जमीन ही खिसक जाएगी।
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