प्रेस क्लब में गौरी लंकेश की हत्या पर शोक जताने की नहीं, मोदी विरोध की सभा थी !

जिस वक्त पत्रकारिता जगत के तमाम पुरोधा शोकसभा में पत्रकारों की हिफाजत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पत्रकारों के उत्पीड़न को लेकर बड़े बोल बोल रहे थे, उसी वक्त रिपब्लिक टीवी चैनल के एक संवाददाता के साथ प्रेस क्लब के परिसर में ही जेएनयू की एक छात्रनेता ने ना सिर्फ बदसलूकी की बल्कि उनको गेट आउट तक कह डाला। पर, वहां मौजूद पत्रकारिता जगत के तमाम मठाधीश इतना साहस नहीं जुटा पाए कि वो जेएनयू की छात्र नेता को ये बता पाते कि प्रेस क्लब पत्रकारों के लिए बना है, पत्रकारों से बना है, प्रेस क्लब जेएनयू के नेताओं का आनुषांगिक संगठन नहीं है। और एक पत्रकार को प्रेस क्लब से निकालने का अधिकार जेएनयू की किसी नेता को तो कतई नहीं है।

शलभ मणि त्रिपाठी

हत्या एक जघन्य अपराध है, इसका कड़ा विरोध होना चाहिए; फिर वो चाहे कोई हो, किसी भी विचारधारा का हो, आपसे सहमत हो, ना हो और आपका धुर विरोधी ही क्यूं ना हो। पर, कर्नाटक की राजधानी बंगलुरू में खौफनाक ढंग से हुई गौरी लंकेश की हत्या के बाद जिस अंदाज में राजधानी दिल्ली से लेकर देश भर में एक माहौल बनाने की कोशिश की गई, उससे एक बार फिर असहिष्णुता का मुद्दा बनाकर अवार्ड वापसी करने वाले गैंग की याद की ताजा हो गई।

तब हत्या अखिलेश राज में गाजियाबाद के बिसाहड़ा में हुई थी, अब हत्या सिद्धारमैया राज में राजधानी बंगलुरू में हुई है। समानता ये भी है कि तब अवार्ड वापसी करने वाले लोगों के निशाने पर ना तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव थे, और ना ही अब गौरी लंकेश की हत्या को मुद्दा बना रहे लोगों के निशाने पर कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया हैं। हां, इस घटना के बहाने कुछ लोगों को जरूर एक बार फिर पीएम नरेंद्र मोदी, आरएसएस और बीजेपी पर निशाना साधने का मौका मिल गया है।

हैरान कर देने वाला ऐसा ही उदाहरण दिल्ली प्रेस क्लब में भी देखने को मिला। जब गौरी लंकेश की हत्या के बाद बुलाई गई शोकसभा में पत्रकारों के मंच की अगुवाई कन्हैया कुमार और डी. राजा जैसे लोग करते हुए दिखे। तमाम वरिष्ठ पत्रकारों को ना तो मंच पर जगह मिली, ना ही दो शब्द बोलने के लिए माइक। यूं तो दिल्ली प्रेस क्लब पहले भी कई बार विवादों में रहा है, पर इस बार जिस अंदाज में प्रेस क्लब की ये शोकसभा गहरे विवादों से घिरे वामपंथी विचारकों को समर्पित कर दी गई, उसे लेकर दिन रात मेहनत करने वाले पत्रकारों का ये भ्रम एक बार फिर जरूर दूर हुआ कि प्रेस क्लब आम पत्रकारों की रहनुमाई करता है।

दो दशकों से जुझारू पत्रकारिता कर रही वरिष्ठ पत्रकार विनीता यादव ने क्षुब्ध होकर अपनी फेसबुक वाल पर लिखा – प्रेस क्लब में प्रोटेस्ट दर्ज कराने के लिए पत्रकार बंधुओं ने हम सबको बुलाया, लेकिन दुख हुआ जब मैने देखा कि माइक कन्हैया के हाथ में था और लिस्ट में कांग्रेस, लेफ्ट, जेएनयू और बाकी लोग। हो सकता है कि पत्रकारिता जगत के कुछ मठाधीशों को विनीता यादव की ये बात पसंद नहीं आई हो, पर उनकी ये पोस्ट सैकड़ों लोगों ने शेयर की और खासी प्रतिक्रिया भी आई।

साफ है, ये मुहिम गौरी लंकेश की हत्या पर दुख जताने की कम, मोदी विरोध की ज्यादा नजर आई। तभी तो ज्यादातर वक्ताओं ने गौरी लंकेश के उन लेखों की चर्चा तो की जिसमें उन्होंने खुलकर आरएसएस, बीजेपी और पीएम मोदी की आलोचना की थी, पर यही वक्ता ये बताते हुए हिचकिचाते रहे कि गौरी लंकेश की हत्या जिस राज्य में हुई है, वहां कांग्रेस की सरकार है और इसलिए हत्या की जवाबदेही भी सीधे तौर पर वहां की सरकार की है।

यहां तक कि ये वक्ता गौरी लंकेश के उन आखिरी शब्दों तक से कन्नी काटते नजर आए जिनमें गौरी लंकेश ने कामरेडों की भूमिका पर ही गंभीर सवाल उठाए थे। इस तथ्य को भी छुपाया गया कि गौरी लंकेश को पिछले कुछ दिनों से नक्सली संगठनों की तरफ से धमकियां भी मिल रही थीं और इसका जिक्र लंकेश के भाई ने भी किया है। शायद ऐसी शोकसभा, जिसमें कामरेड ही मंच संभाल रहे हों और जिस शोक सभा का मकसद ही किसी खास के विरोध का रहा हो, में गौरी लंकेश के आखिरी ट्विट्स का जिक्र करना अनुकूल नहीं लगा होगा।

बात यही नहीं थमी, जिस वक्त पत्रकारिता जगत के तमाम पुरोधा शोकसभा में पत्रकारों की हिफाजत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पत्रकारों के उत्पीड़न को लेकर बड़े बोल बोल रहे थे, उसी वक्त रिपब्लिक टीवी चैनल के एक संवाददाता के साथ प्रेस क्लब के परिसर में ही जेएनयू की एक छात्रनेता ने ना सिर्फ बदसलूकी की बल्कि उनको गेट आउट तक कह डाला। पर, वहां मौजूद पत्रकारिता जगत के तमाम मठाधीश इतना साहस नहीं जुटा पाए कि वो जेएनयू की छात्र नेता को ये बता पाते कि प्रेस क्लब पत्रकारों के लिए बना है, पत्रकारों से बना है, प्रेस क्लब जेएनयू के नेताओं का आनुषांगिक संगठन नहीं है। और एक पत्रकार को प्रेस क्लब से निकालने का अधिकार जेएनयू की किसी नेता को तो कतई नहीं है।

हैरानी की बात ये है कि पत्रकार हितों का दावा करने वाली संस्था ब्राडकास्ट एडीटर्स एसोसियेशन ने भी एक श्रमजीवी पत्रकार के साथ खुलेआम हुई इस बदसलूकी पर खामोशी का चोला ओढ लिया और कुछ भी कहने से बचते रहे। हद तो तब हुई जब एक वक्ता ने संपादकों को कटघरे में खड़ा करते-करते ये तक कह दिया कि हममें से कुछ लोग रोज टीवी पर काला कोट पहन कर देश को हिंदू मुसलमान की लड़ाई में झोंक रहे हैं, पर मौके पर ही मौजूद ब्राडकास्ट एडीटर्स एसोसियेशन के जिम्मेदार लोग वक्ता के इस बयान पर भी चुप ही रहे।

जहां तक बात गौरी लंकेश की है, तो वो खुद को जर्नलिस्ट और एक्टिविस्ट कहती थीं। उनकी आक्रामकता, लेखन शैली और अंदाज काबिले गौर रही है। पर उनकी पहचान पीएम मोदी, बीजेपी और आरएसएस के कट्टर विरोधी की रही है। एबीपी जैसे राष्ट्रीय चैनल ने उनके लिए लिखा कि – बीजेपी विरोधी पत्रकार की हत्या; तो वहीं बीबीसी जैसी अंतर्राष्ट्रीय न्यूज एजेंसी ने लिखा कि लंकेश की पहचान महजबूत वामपंथी विचारक की थी, वे दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी विचारधारा पर जमकर बरसती थीं, वे माओवादी विद्रोहियों से खुली सहानुभूति रखतीं थीं। एक पत्रकार के लिए ऐसी पहचान कितनी मुनासिब है, ये चिंतन का विषय है। बहरहाल, उनकी हत्या का की गुत्थी जल्द सुलझाई जानी चाहिए और कर्नाटक की सरकार को हत्यारोँ को जल्द से जल्द कड़ी सजा दिलानी चाहिए।

(लेखक यूपी भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता हैं।)

 

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