लो हम सड़क पर आ गए! (दिल की बात )

अखवारों से ज्ञात हुआ कि आज मेरा स्थानांतरण कर ‘प्रतीक्षा’ में रख दिया गया | किसी विभाग से किसी प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी को हटाकर ‘प्रतीक्षा’ में तभी डाला जाना चाहिए, जब उस विभाग में कोई ‘घुटाला’ या कदाचार किया गया हो, तथा उस अधिकारी को निष्पक्ष जांच हेतु हटाना जरूरी हो | मैंने तो ऐसा अपनी समझ से कुछ नहीं किया| अब मुख्य सचिव के समकक्ष वरिष्ट आईएएस अधिकारी, अर्थात मैं, बिना कुर्सी-मेज व् अनुमन्य न्यूनतम सुविधाओं का पात्र भी नहीं रहा और सडक पर पैदल कर दिया गया, चलो …..व्यवस्था के अहंकार की जीत हुई | ज्ञात हुआ है कि लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अनिल यादव की ‘अहंकारी व बलशाली’ इच्छा के सामने सारी व्यवस्था ‘नतमस्तक’ है, ‘हुजुरेवाला’ चाहते है कि मुझे तत्काल सड़क पर पैदल किया जाये, निलंबित कर तरह-२ से अपमानित किया जाये, दोषारोपित किया जाए, कलंकित कर ‘सबक’ सिखाया जाये | जन-उत्पीडन और कदाचार के खिलाफ कोई आवाज न उठे | व्यवस्था को लगता है कि जब बाकि नौकरशाह ‘जी हजुरी’ कर सकतें है तो हम जैसे लोग क्यों नहीं, हमारी मजाल क्या है ?
मैंने तो नौकरी छोड़ने(VRS) की इच्छा भी व्यक्त का दी, अब बचा क्या है ? ये मेरा कोई दाब नहीं …मैं व्यवस्था से अलग होकर जन-पीड़ा से जुड़ना चाहता हूँ और प्रभावी ढंग से जनता की बात उठाना चाहता हूँ ..इसमें भी क्या कोई बुराई है…मेरा कोई निजी स्वार्थ नहीं…मेरे लिए ‘रोजी-रोटी’ का सवाल नहीं है .. ? अब क्या विकल्प है ?…..या तो मेरे VRS के प्रस्ताव को स्वीकार किया जाये या अस्वीकार, यदि कोई कार्यवाही लंबित है तो मुझे न बता कर अख़बारों के माध्यम से क्यों सूचित किया जा रहा है, मुझे नोटिस/जांच के बारे में कागजात/नोटिस उपलब्ध कराये जाएँ ताकि मैं उसका जबाब देकर न्याय पा सकूँ या फिर मैं अपने ‘अकारण उत्पीडन’ के खिलाफ माननीय न्यायलय की शरण में जा सकूँ | इस सब का उदेश्य क्या केवल मेरे VRS को सेवा निबृति तक लटकाए रखने का है ?… ताकि मैं व्यवस्था से बाहर जा कर जन-सामान्य की समस्याओं को और प्रभावी ढंग से न उठा सकूँ…मेरी आवाज को दबाये रखा जाये.. ? आज कई परामर्श स्वरुप चेतावनी/धमकी प्राप्त हुईं, लगता है कि क्या अब प्रदेश ही छोड़ना पड़ जायेगा….या फिर छुपे-छुपे फिरना पड़ेगा..अंग्रेजी उपनिवेशवाद की याद आती है…आपातकाल जैसा लगता है… | वाह री ! उत्तर प्रदेश की ‘लोकतांत्रिक’ व्यवस्था, जंहा लोकतंत्र के ‘कई स्तम्भ’ बाहर से बातें तो बड़ी-२ करतें है परन्तु ऊपर सब मिलकर (निजी स्वर्थार्थ घाल-मेल कर) गरीब, पीड़ित जनता के लिए स्थापित ‘व्यवस्था’ का शोषण करते हैं….. मौज मानते है… | यह व्यवस्था केवल ‘Hands-in-Glove’ नहीं अपितु ‘Greesy Hands-in-Glove’ लगती है, जिसमे Greese अर्थात मलाई का सब कुछ खेल लगता है ….. चाटो मलाई…मक्खन…. बाकि सब ढक्कन …….. ……
चलो …अब ‘जातिवादी’ …….अनिल यादव जैसे अहंकारी मौज मनाये, हंसें हमारी विवशता पर ….. हम तो आ गए सड़क पर …..औकात दिखा दी हमें …हमारी…. बड़े वरिष्ट आईएएस अधिकारी बने फिरते थे हम … ….अब आया न ऊंट …’शक्तिशाली (कु) व्यवस्था’ के पहाड़ के नीचे…कंहा गयी जनता की आवाज….कंहा गयी जनसमस्याए.. अनिल यादव ने सारी व्यवस्था को रोंद डाला …हर आवाज को कुचल डाला …आगरा–लखनऊ एक्सप्रेसवे के ‘मिट्टी भराव’ में अब दब जाएँगी विरोध की सभी आवाजें…और उसके ऊपर उड़ेंगे ‘(कु)-व्यवस्था’ के पंख लगे ‘फाइटर प्लेन’ के छदम सपने .. ………. किसानों के मुआवजे की बात बेमानी हो जाएगी….नक़ल माफिया …भूमाफिया ..खनन माफिया….’जातिवाद’ ….क्षेत्रवाद….परिवारबा
लो चलो हम सड़क पर आ गए……
कबीर का यह कथन अच्छा लगता है …कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सब की खैर….. ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर !!
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