शिक्षामित्रों की उपद्रवी और हिंसक प्रतिक्रिया को सरकार का समर्थन तो नहीं ?

siksha mitraतहलका एक्सप्रेस, राहुल पाण्डेय

लखनऊ। माननीय उच्च न्यायालय के फैसले के बाद शिक्षामित्रों ने प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा को ही बाधित करने का जो फैसला किया है यह विरोध की प्रक्रिया कहाँ तक उचित है ? क्योंकि जो नौनिहाल उनको गुरूजी पंडित जी कहते हैं आज अपने गुरु जी का रौद्र रूप देखकर क्या सोचते होंगे। लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन एक उचित अस्त्र है परन्तु न्यायालय के फैसले का सम्मान करना होगा ।
यह जानते हुये कि शिक्षामित्र स्कीम ख़त्म हो चुकी है और दिनांक 1 अप्रैल 2015 से कोई संविदाकर्मी नहीं पढ़ा सकता है उसके बावजूद भी मुख्यन्यायमूर्ति ने याचीपक्ष की सहमति से इनकी संविदा को अपनी शक्ति से स्थापित किया जिससे कि कभी जब टीईटी उत्तीर्ण बेरोजगार न मिलें तो इनको केंद्र से राहत दिलाकर स्थाई किया जा सके ।
इसके बावजूद भी चीफ जस्टिस का पुतला फूंकना कहाँ तक उचित है ? ऐसा प्रतीत होता है कि या तो शिक्षामित्रों को कानून या संविधान की परख नहीं है या फिर सरकार की उग्रता के पक्ष में कोई मौन सहमति है । लोकायुक्त नियुक्ति विवाद में मुख्य न्यायमूर्ति की दखल ख़त्म करने के बाद सरकार को न्यायिक सक्रियता देखने को मिल रही है तो कहीं सरकार शिक्षामित्रों को मुखौटा तो नहीं बना रही है ? इसके पूर्व भी जब कभी शिक्षामित्र न्यायालय में पराजित हुये तो संख्याबल के आधार पर सरकार से सब कुछ हासिल करने का प्रयास किया तो कहीं सरकार शिक्षामित्रों को उग्रता की सहमति देकर उनके अतीत की सफलता को वर्तमान की विफलता का कारण तो नहीं बता रही है ?
शिक्षामित्रों के आन्दोलन को काबू करने में नाकाम सरकार अपनी असफलता को दर्शाकर लोगों को अपने ऊपर संदेह करने का अवसर प्रदान कर रही है । कई स्कूलों में शिक्षामित्रों ने मिडडे मील फेक दिया तो कहीं बच्चों को पीटा क्या उनको अपने बच्चों के प्रति ममता ख़त्म हो गयी है ? प्रशासन  भी वोटबैंक की इस विसात को छेrahul pandeyड़ना नहीं चाहती है । उत्तर प्रदेश सरकार को इन तमाम सवालों का जवाब देना होगा। शिक्षामित्र स्कीम बीजेपी सरकार की बहुत बड़ी स्कीम थी जिसका मकसद था कि इंटरमीडिएट उत्तीर्ण बच्चों को जो टॉप पर रहे उसे दो हजार रूपये मिले जिससे परीक्षा में प्रतिस्पर्द्धा आये। उस वक़्त जब यह चर्चा होती थी कि कहीं ये स्थाई न हो जायें तो कहा जाता था कि ये सरकार के परकटे तोते हैं यह पिजड़ा खुलने के बाद भी नहीं उड़ सकते हैं क्योंकि इनको बिना नियम के संविदा पर रखा गया है और शिक्षक की न्यूनतम योग्यता स्नातक भी पूरी नहीं है। इतना सब होने के बाद भी इनको नियुक्ति से पूर्व विधिक संरक्षण क्यों नहीं दिया गया और जब आज कोर्ट ने लपेटा तो उग्रता के लिए यदि  मौन सहमति  मिली तो इसका क्या मतलब समझा जाये ? यदि इसी तरह सवा तीन लाख टीईटी उत्तीर्ण बीएड-बीटीसी बेरोजगार भी सड़क पर आ जाएँ तो प्रदेश से कानून का राज्य ही ख़त्म हो जायेगा। अब देखना होगा कि यह अनसुलझे सवाल कब सुलझेंगे ।

 

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