सत्ताधारियों ने पुलिस की तरक्की-तैनाती को बना लिया कमाई का धंधा, घूस लेकर कबतक करेंगे प्रमोशन

प्रभात रंजन दीन
हाईकोर्ट से लगी रोक के बावजूद राज्य सरकार ने चोर-दरवाजे से एक फरमान निकाला और अपने चहेते पुलिसकर्मियों को आउट ऑफ टर्न तरक्की दे दी. यह संख्या एक दो नहीं, पूरे 990 है. इस शासनादेश को सरकारी अधिसूचना के बतौर गजट में प्रकाशित नहीं किया गया. उसे गुपचुप लागू कर दिया गया. मतलब सधने के बाद सरकार ने उस गैर-संवैधानिक फरमान को दबा दिया. ऐसा करके यूपी सरकार ने पूरे पुलिस संगठन को तो झांसा दिया ही, अदालत से भी गंभीर छल किया. हाईकोर्ट के निर्देश पर यूपी पुलिस में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन पर रोक लागू है.
तत्कालीन समाजवादी सरकार के घपले-घोटालों की लंबी फेहरिस्त में शुमार यह एक ऐसी आपराधिक करतूत है, जिसके साजिशी पहलू को पहली बार ‘चौथी दुनिया’ उजागर कर रहा है. इसपर सरकार और अदालत द्वारा संज्ञान लिया जाना जरूरी है, यदि इसे वह अपना नैतिक दायित्व समझे. बड़ी तादाद में पुलिसकर्मियों और अधिकारियों से हुई बातचीत के बाद यह साफ हुआ है कि सरकारी रवैये से प्रदेश के पुलिस संगठन में भीषण असंतोष व्याप्त है. पुलिस समुदाय राजनीतिक, जातिगत और पूंजीगत कई खेमों और गुटों में बंट चुका है. इसका असर कानून व्यवस्था पर दिख रहा है और आने वाले दिनों की विकृत दशा का संकेत दे रहा है.
बसपा के भ्रष्टाचार को बेच कर सपा सरकार में आई थी, पर सत्ता मिलते ही बसपा के सारे कुकृत्य भूल गई. वह बसपा के उपकार का बदला था, क्योंकि मायावती ने मुलायम-काल के भ्रष्टाचार को ताक पर रख दिया था. उसी तरह सपा के भ्रष्टाचार भुना कर भाजपा सत्ता में आई, लेकिन सरकार में आते ही वह सपाई भ्रष्टाचार से भाईचारा दिखाने लगी. भाजपा किस उपकार का सपा को फल दे रही है? दरअसल, भ्रष्टाचार के मसले पर सारे राजनीतिक दलों में परस्पर समझदारी है. इसीलिए जिसे सत्ता मिलती है, वह बेखौफ खाता है.
एक दूसरे का विरोध कर आम नागरिकों को बेवकूफ बनाना और सत्ता हासिल करके एक-दूसरे का पाप भूल जाना सियासी चलन बन गया है. योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बने आधा वर्ष से ऊपर हो गए, लेकिन इस दरम्यान सपा सरकार के घोटालों में से कोई भी एक मामला ठोस कानूनी शक्ल नहीं ले पाया. केवल एक-दो जांचों का ऐलान भर हुआ. समाजवादी पार्टी के अखिलेश-कालीन शासन में गोमती रिवर फ्रंट घोटाला, एक्सप्रेस हाई-वे घोटाला, साइबर सिटी घोटाला, पुलिस भर्ती घोटाला, यश भारती पुरस्कार घोटाला, आयोगों के अध्यक्षों और आयुक्तों के चयन का घोटाला, जातिवाद घोटाला, पीसीएस चयन घोटाला, जनेश्वर मिश्र पार्क निर्माण घोटाला, खनन घोटाला, एम्बुलेंस घोटाला, यादव सिंह संरक्षण घोटाला, किसानों के गन्ना बकाये के भुगतान का घोटाला, ऊर्जा घोटाला जैसे तमाम घोटाले हुए जिन पर सख्त कार्रवाई का नारा और आश्वासन देती हुई भाजपा सत्ता तक आई, लेकिन सत्ता मिलते ही उसे सपा के घोटाले याद नहीं रहे. फिर पांच वर्ष इसी तरह बीत जाएंगे.
अखिलेश यादव के कार्यकाल में एक नायाब घपला हुआ था, जिसकी तरफ ‘चौथी दुनिया’ आपका ध्यान दिला रहा है. अखिलेश सरकार में पुलिस-प्रमोशन का घोटाला बड़े ही शातिर तरीके से अंजाम दिया गया था. सपा सरकार की इस हरकत से पूरी यूपी पुलिस राजनीतिक और जातिगत कई खेमों में बंट गई है. जो कर्तव्य-परायण पुलिस वाले हैं वे अल्पमत में हैं और खुद को अनाथ समझ रहे हैं. पांच वर्षों के शासनकाल में समाजवादी पार्टी ने यूपी पुलिस में जातिवादी भर्तियां करके, खेमेबाजियां करके, राजनीतिक पूर्वाग्रह और घूस-आग्रह से तरक्की और तैनातियां देकर पुलिस संगठन को इतना कमजोर कर दिया है कि इसका असर कानून व्यवस्था पर साफ-साफ दिख रहा है. पक्षपातवादी सरकार के कारण पुलिस का नैतिक-मनोबल इतना नीचे गिर चुका है कि अपराध की घटनाओं में भी पुलिस को सपा और गैर सपा, पूंजी-सम्पन्न और पूंजी-विपन्न का भेद दिखता है. इसी भेदभाव पर पुलिस की कार्रवाई चलती है.
अंगरक्षकों का खास गुट बना कर उसमें शामिल पुलिसकर्मियों को अनाप-शनाप तरीके से आउट ऑफ टर्न तरक्की देने में समाजवादी पार्टी की सरकारों को विशेषज्ञता हासिल रही है. पुलिसकर्मियों को तरक्की देने के सपा सरकार के बेजा तौर-तरीकों को देखते हुए ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी. हाईकोर्ट के आदेश पर राज्य सरकार को इस पाबंदी के बारे में बाकायदा अधिसूचना जारी करनी पड़ी थी. लेकिन कानून को ठेंगे पर रखने वाली समाजवादी सरकार के मुखिया अखिलेश यादव मुलायम सिंह के जमाने के 32 अंगरक्षकों और अपने जमाने के 42 अंगरक्षकों को मर्यादा लांघ कर तरक्की देने पर आमादा थे. सत्ता गलियारे के सूत्र बताते हैं कि मुख्यमंत्री सचिवालय की प्रमुख सचिव अनीता सिंह और गृह विभाग के सचिव मणि प्रसाद मिश्र ने मिल कर ऐसा तिकड़म बुना कि अखिलेश और मुलायम खुश हो जाएं और कारगुजारी करने वाले अफसर भी सराबोर हो जाएं. शासन के इन स्वनामधन्य अफसरों ने मुलायम और अखिलेश के चहेते अंगरक्षकों को आउट ऑफ टर्न तरक्की देने के लिए कुल 990 पुलिसकर्मियों की लिस्ट तैयार की जिनमें कान्सटेबल से लेकर दारोगा और इन्सपेक्टर तक शामिल थे. अखिलेश सरकार ने इन सबको इनकी नियुक्ति की तारीख से तरक्की दे दी और इन्हें बाकायदा संवर्गीय (कैडर) स्तर में स्थापित कर दिया.
आउट ऑफ टर्न प्रमोशन (ओओटीपी) प्रक्रिया के तहत पुलिसकर्मियों को मिलने वाली तरक्की गैर-संवर्गीय और तदर्थ (एड्हॉक) होती है. लेकिन अखिलेश सरकार ने नियम-कानून की सारी हदें पार कर दीं. 23 जुलाई 2015 को जारी फरमान के जरिए सरकार ने न केवल हाईकोर्ट की पाबंदी लांघी, बल्कि पुलिस अधिकारियों-कर्मचारियों की सेवा नियमावली को भी ताक पर रख दिया. इस सरकारी फरमान का कोई गजट-नोटिफिकेशन भी नहीं किया गया. तकरीबन एक वर्ष बाद ही 11 जुलाई 2016 को शासन ने फिर एक ‘विज्ञप्ति’ जारी कर 94 इन्सपेक्टरों को तरक्की देकर डीएसपी बनाए जाने की मुनादी कर दी. यह ‘विज्ञप्ति’ भी सरकारी गजट में प्रकाशित नहीं की गई. अखिलेश सरकार के इन आदेशों को गृह विभाग के अधिकारी पूर्ण रूप से राजनीतिक बताते हैं, क्योंकि तब प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारियां जोर-शोर से शुरू हो गई थीं और सपा सरकार पूरे पुलिस संगठन को सपाई कलेवर देकर ताकतवर बनने के जतन में लगी थी. इसीलिए चुन-चुन कर सपा समर्थक पुलिसकर्मियों और अधिकारियों को तरक्की दी जा रही थी और उन्हें महत्वपूर्ण जगहों पर तैनात किया जा रहा था.
चुन-चुन कर तरक्की देने के तमाम उदाहरण सामने हैं.
रवींद्र कुमार सिंह, नियाज अहमद, परमेंद्र सिंह, भारत सिंह, जगदीश यादव, सदानंद सिंह, अशोक कुमार वर्मा जैसे कई नाम हैं, जिन्हें सपा सरकार की कृपा से इन्सपेक्टर से डीएसपी बनाया गया. जगदीश यादव 1990 में यूपी पुलिस में सिपाही के पद पर भर्ती हुए थे. उनकी पहली पोस्टिंग फैजाबाद के रौनाही थाने में हुई थी. मुख्यमंत्री सुरक्षा समूह में शामिल हो जाने के कारण उनकी तरक्की-यात्रा इतनी तीव्र गति से हो पाई. इसी तरह अमौसी एयरपोर्ट पर तैनात रहे दारोगा सदानंद सिंह मुलायम और अमर सिंह का पैर छूते-छूते डीएसपी बन गए. आउट ऑफ टर्न तरक्की के लिए एसपी की तरफ से लिखा जाने वाला दृष्टांत (साइटेशन) जरूरी होता है. समस्या यह खड़ी हुई कि कोई एसपी साइटेशन लिखने के लिए तैयार नहीं था.
आखिरकार गोंडा के तत्कालीन एसपी के साइटेशन पर उन्हें डीएसपी बनाया गया. इसी तरह तब के ताकतवर सपा नेता अमर सिंह के सुरक्षाकर्मी रहे चमन सिंह चावड़ा को भी डीएसपी के पद पर तरक्की मिली. चावड़ा के लिए लिखे गए साइटेशन को पुलिस महकमे में चुटकुले के बतौर पेश किया जाता है. उनके साइटेशन में लिखा गया कि अदम्य साहस और शौर्य का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने फिल्म अभिनेत्री जया प्रदा को सुरक्षा प्रदान की. अमर सिंह के अंगरक्षक को जया प्रदा की सुरक्षा के लिए आउट ऑफ टर्न तरक्की दी गई. यह चुटकुला ही तो है. इसी तरह अशोक कुमार वर्मा को घोर सपाई होने और मुलायम अखिलेश दोनों के शासनकाल में मुख्यमंत्री की प्रमुख सचिव रहीं अनीता सिंह का करीबी होने के कारण तरक्की मिली. तरक्की प्रकरण में अशोक कुमार वर्मा की अतिरिक्त-सक्रियता भी पुलिस महकमे में चर्चा का विषय है.
तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पिता मुलायम के साथ-साथ बाद उनके भी खास अंगरक्षक रहे शिव कुमार यादव को प्रमोट करने के लिए नैतिकता और वैधानिकता की क्रीज़ से बाहर हटकर बैटिंग की. उन्होंने गृह विभाग के जरिए एक आदेश जारी करा कर 15 मार्च 2013 को शिव कुमार यादव को एडिशनल एसपी के पद पर तरक्की दे दी थी. मुलायम ने अपने पहले कार्यकाल में शिव कुमार को दारोगा से इन्सपेक्टर बना दिया था. मुलायम के दूसरे कार्यकाल में शिव कुमार डीएसपी बनाए गए और अखिलेश ने अपने कार्यकाल में उन्हें एएसपी बना दिया. आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के बेजा इस्तेमाल के जरिए 15 वर्ष के करियर में इतना भारी उछाल पुलिस संगठन में चर्चा और नकल दोनों का विषय है. इसका सीधा असर पुलिस के काम और प्रतिबद्धता पर पड़ रहा है.
गृह विभाग के ही एक अधिकारी कहते हैं कि 990 पुलिसकर्मियों को तरक्की देने और उसमें से 94 इन्सपेक्टरों को डीएसपी बनाए जाने के लिए जारी किया गया आदेश पूरी तरह गैर-कानूनी है. इस आदेश से पुलिस महकमे के सभी कर्मचारियों का वरिष्ठता-क्रम छिन्न-भिन्न हो गया है. सीनियर जूनियर हो गए और जूनियर अपने सीनियर के माथे पर बैठ गया. पुलिस के कामकाज और अनुशासन पर इसका बहुत बुरा असर पड़ रहा है. जिन पुलिसकर्मियों और अधिकारियों को इस फरमान के जरिए प्रमोशन मिला वे अब पुलिस संगठन में सपा के एजेंट की तरह काम कर रहे हैं. उक्त अधिकारी ने बताया कि प्रदेश सरकार ने मनमाने तरीके से इन्सपेक्टरों का वरिष्ठता-क्रम बनाया और सुप्रीम कोर्ट के नौ मई 2002 के फैसले को भी ताक पर रख दिया. वरिष्ठता-क्रम और 23 जुलाई 2015 को जारी तरक्की-आदेश दोनों ही यूपी पुलिस उप-निरीक्षक एवं निरीक्षक (नागरिक पुलिस) सेवा नियमावली-2015 का सरासर उल्लंघन है.
इन्सपेक्टरों (निरीक्षकों) की तरक्की के आदेश में राज्य सरकार ने बड़े शातिराना तरीके से निरीक्षकों की भर्ती के वर्ष का कॉलम गायब कर दिया और इसकी आड़ लेकर मनमाने तरीके से निरीक्षकों के नाम भर दिए. इससे वरीयता-क्रम गड्डमड्ड हो गया. किसी में ट्रेनिंग का वर्ष, बैच नंबर और प्रमोशन का वर्ष अंकित है तो कई में प्रमोशन का वर्ष ही गायब कर दिया गया है. सेवा नियमावली के प्रावधानों को दरकिनार कर वरिष्ठता सूची में बैकलॉग वाले 119 नाम भी ठूंस दिए गए. गृह विभाग के अधिकारी ने कहा कि सरकार की ये सारी हरकतें गैर-कानूनी हैं और हाईकोर्ट से खारिज होने लायक हैं, इसीलिए इस मामले को लंबे अर्से तक लटकाए रखने की कोशिशें चल रही हैं, ताकि सरकार के इस कुकृत्य का विरोध करने वाले सारे पुलिस अधिकारी रिटायर हो जाएं और उनकी कानूनी लड़ाई किसी नतीजे तक नहीं पहुंच पाए.
समाजवादी पार्टी के नेताओं ने आउट ऑफ टर्न प्रमोशन को अपनी सियासत और कमाई दोनों का धंधा बना लिया था. इसी वजह से हाईकोर्ट ने जनवरी 2014 में इस पर रोक लगा दी थी. हाईकोर्ट के निर्देश पर राज्य सरकार को पुलिस में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की प्रक्रिया पर रोक लगाने का सात जून 2014 को शासनादेश जारी करना पड़ा था. पुलिस महकमे में आम चर्चा है कि इस पाबंदी से सपा नेताओं का जब धंधा बंद हो गया तब चोर दरवाजे से इसका जुगाड़ निकाला गया और कॉन्सटेबल, दारोगा और इन्सपेक्टर मिला कर 990 पुलिसकर्मियों को तरक्की दे दी गई. इसके पीछे ठोस-पार्टी-लाइन और ठोस-धन की ठोस-भूमिका रही.
एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि चोर रास्ते से तरक्की के लिए पुलिसकर्मियों ने यह ठोस-धन जनता से ही तो वसूल कर चुकाए होंगे. आप इतने से ही समझ लें कि डीएसपी बनने की लाइन में खड़े 94 इन्सपेक्टरों ने केस लड़ने के लिए एलपी मिश्रा, एसके कालिया, जयदीप नारायण माथुर, अनूप त्रिवेदी जैसे महंगे वकीलों को पिछले एक वर्ष से नियुक्त (इन्गेज) कर रखा है. इनमें से एक वकील की एक सुनवाई पर इजलास में खड़े होने की फीस साढ़े तीन लाख रुपए है, दूसरे की फीस तीन लाख रुपए और तीसरे-चौथे वकील की फीस दो लाख रुपए है. इसके अलावा याचिका दाखिल करने वाले को याचिका वापस ले लेने के लिए करोड़ों रुपए का ऑफर अलग से दिया जा रहा है. कहां से आ रहे हैं इतने ढेर सारे पैसे? प्रदेश की आम जनता इस सवाल का जवाब जानती है, क्योंकि भुक्तभोगी वही है.
उल्लेखनीय है कि आउट ऑफ टर्न प्रमोशन से इंस्पेक्टरों को डीएसपी बनाए जाने के फैसले पर भी हाईकोर्ट की भृकुटियां तनी हुई हैं. कमल सिंह यादव की याचिका पर सुनवाई के क्रम में हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया. हाईकोर्ट राज्य सरकार के उस शासनादेश पर अपनी सहमति की मुहर लगा चुकी है जिसमें आउट ऑफ टर्न प्रमोशन देने के नियम को समाप्त किए जाने का निर्णय लिया गया था. इसके पूर्व वर्ष 2014 में हाईकोर्ट ने आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की प्रक्रिया को गैर-कानूनी और गैर-वाजिब करार दिया था. उत्तर प्रदेश पुलिस में हेड कांस्टेबल पद पर तरक्की पाए साढ़े आठ हजार से अधिक कांस्टेबलों के खिलाफ भी हाईकोर्ट में याचिका लंबित है. आरोप है कि सरकार ने पुलिस भर्ती नियमावली का उल्लंघन करते हुए योग्यता और वरीयता को ताक पर रख कर जूनियरों को प्रमोशन दे दिया. वरिष्ठ कांस्टेबलों को प्रमोशन से वंचित कर दिया गया. प्रमोशन के लिए 12 हजार 492 कांस्टेबल योग्यता सूची में थे. वरिष्ठता के आधार पर इनमें से ही हेड कांस्टेबल बनाया जाना था. लेकिन मनमाने तरीके से तरक्की दे दी गई.
दलाल के जरिए रिश्वत लेकर तरक्की देते थे नेता-नौकरशाह
आपको थोड़ा फ्लैश-बैक में लेते चलें. कुछ ही अर्सा पहले ऊंची पहुंच वाले एक दलाल ने घूस लेकर पुलिस वालों को तरक्की देने के नेताओं-नौकरशाहों के गोरखधंधे का पर्दाफाश किया था. दलाल ने कुछ बड़े नेता और बड़े नौकरशाहों का नाम लिया था. लेकिन नेता का नाम दबा दिया गया. हालांकि रिश्वत लेकर तरक्की दिलाने वाले उस सपा नेता के बारे में पुलिस के लोग अच्छी तरह जानते हैं. पकड़े जाने के पहले तक वह दलाल नहीं, बल्कि सपा नेता शैलेंद्र अग्रवाल के रूप में जाना जाता था और सत्ता के शीर्ष गलियारे तक उसकी सीधी पहुंच थी.
मोटी रकम लेकर पुलिसकर्मियों को तरक्की देने के धंधे में उस दलाल ने करोड़ों रुपए कमाए तो आप समझ सकते हैं कि सपा नेता और नौकरशाहों ने कितनी रकम एंठी होगी. इसमें दो पुलिस महानिदेशकों एसी शर्मा और एएल बनर्जी का नाम आया, लेकिन दूसरे नाम दब गए. दारोगाओं के प्रमोशन में प्रत्येक से आठ से 10 लाख रुपए लिए जाते थे. इस तरह सपा सरकार के कार्यकाल में बड़ी तादाद में दारोगाओं को इन्सपेक्टर के पद पर तरक्की मिली. तरक्की के धंधे में शैलेंद्र अग्रवाल ही बिचौलिया रहता था. केवल शैलेंद्र के माध्यम से ही प्रदेश के करीब 40 दरोगाओं को प्रोन्नति देकर इंस्पेक्टर बनाया गया था. जिन दारोगाओं की तरक्की की फाइलें विभिन्न जांचों के कारण रुकी पड़ी थीं, वे फाइलें भी घूस के दम पर चल पड़ीं और दारोगाओं को प्रमोशन मिल गया. 40 दारोगाओं की तरक्की में करोड़ों का लेनदेन हुआ और नेता से लेकर अफसर तक को हिस्सा मिला. इस धंधे के नेटवर्क में कई आईपीएस और आईएएस अफसर शरीक थे, लेकिन उनके नाम दब गए और शैलेंद्र को जेल में ठूंस दिया गया.
जांबाज रह गए और चाटुकार पा गए आउट ऑफ टर्न तरक्की
आउट ऑफ टर्न तरक्की पाने की निर्धारित शर्त थी साहस, शौर्य, पराक्रम और कर्तव्यपरायणता. खूंखार अपराधियों से निपटने या खुद की जान जोखिम में डाल कर आम लोगों की सेवा करने वाले प्रतिबद्ध पुलिसकर्मियों को आउट ऑफ टर्न तरक्की देने का प्रावधान किया गया था. लेकिन सपा सरकार ने इसे धंधा बना दिया. साहस, शौर्य, पराक्रम और कर्तव्यपरायणता के बजाय घूसखोरी, चाटुकारिता, अवसरवाद और व्यक्तिपूजा ने उसकी जगह ले ली. ऐसे तमाम जांबाज पुलिस अधिकारी और कर्मचारी आउट ऑफ प्रमोशन से वंचित कर दिए गए जिन्होंने उदाहरणीय शौर्य और पराक्रम दिखाया, लेकिन वे भ्रष्ट, चाटुकार और व्यक्तिपूजक नहीं थे. ऐसे जांबाज पुलिसकर्मियों की सूची भी ‘चौथी दुनिया’ के पास है, लेकिन उनके नाम हम प्रकाशित नहीं कर रहे हैं, क्योंकि धंधेबाज नेता-नौकरशाह उनका जीना हराम कर देंगे.
पुलिसकर्मियों के रुटीन प्रमोशन पर कभी ध्यान ही नहीं दिया
अपने चाटुकारों और समर्थकों को आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की आपाधापी मचाने वाले सपाई सत्ताधारियों ने पुलिसकर्मियों के सालाना रुटीन प्रमोशन पर कभी ध्यान नहीं दिया. इस तरफ बसपा सरकार ने भी कभी ध्यान नहीं दिया. आप आश्चर्य करेंगे कि 1980-81, 81-82 और 82-83 बैच के उप निरीक्षकों की सालाना तरक्की के लिए आज तक केवल तीन बार डीपीसी हुई. पिछले 37 वर्षों में उप निरीक्षकों (दारोगाओं) के प्रमोशन के लिए महज तीन बार डिपार्टमेंटल प्रमोशन कमेटी (डीपीसी) की बैठक का होना, सरकारों की घनघोर अराजकता की सनद है.
1982 बैच के उप निरीक्षकों के रुटीन प्रमोशन के लिए 15 साल बाद 1997 में डीपीसी हुई. उसके आठ साल बाद वर्ष 2005 में डीपीसी बैठी और फिर आठ साल बाद वर्ष 2013 में डीपीसी हुई. सत्ता के शीर्ष आसनों पर बैठे नेता तरक्की की दुकान खोले बैठे रहे और घूस लेकर तरक्कियां बेचते रहे. विडंबना यह है कि 80-81 और 81-82 बैच के उप निरीक्षक-निरीक्षकों को वर्ष 2007 और 2008 से एडिशनल एसपी का वेतन मिल रहा है, लेकिन सरकार ने उन्हें उनका रुटीन प्रमोशन नहीं होने दिया. रुटीन प्रमोशन से वंचित ऐसे अधिकारियों की संख्या तकरीबन दो हजार है.
जब डीजीपी जैन ने लौटा दिया था शासन का प्रस्ताव
उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रहे एके जैन ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के अंगरक्षकों की टोली के 42 पुलिसकर्मियों को आउट ऑफ टर्न प्रमोशन देने के शासन के प्रस्ताव को नियमावली का हवाला देकर वापस लौटा दिया था. सपा सरकार के तत्कालीन मंत्री और विधान परिषद में नेता सदन अहमद हसन ने भी डीजीपी को अलग से पत्र लिख कर आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के आधार पर उन 42 पुलिसकर्मियों का वरिष्ठता क्रम निर्धारित करने के लिए दबाव डाला था. तत्कालीन पुलिस महानिदेशक ने गृह विभाग के प्रमुख सचिव को बाकायदा पत्र (संख्याः डीजी-चार- 119 (11) 2014 दिनांकः 22 मई 2015) लिख कर बताया था कि आउट ऑफ टर्न प्रमोशन संवर्गीय (कैडर) पद के रिक्त स्थान पर ही किया जा सकता है.
उस प्रमोशन को नियमानुसार निःसंवर्गीय (एक्स-कैडर) माना जाएगा और वरिष्ठता निर्धारण में उसका लाभ नहीं मिलेगा. जैन ने नियमों का हवाला देते हुए शासन को आधिकारिक तौर पर यह भी जानकारी दी थी कि आउट ऑफ टर्न प्रमोशन दिए जाने के बावजूद सम्बद्ध पुलिसकर्मी की वरिष्ठता का क्रम उसके मूल पद से ही निर्धारित होता है और उसका नियमित (रुटीन) प्रमोशन भी उसी मूल पद के मुताबिक होता है न कि आउट ऑफ टर्न प्रमोशन वाले पद से.
डीजीपी ने कहा था कि आउट ऑफ टर्न प्रमोशन को आधार बना कर वरिष्ठता-क्रम का निर्धारण करने की शासन की कई कोशिशें हाईकोर्ट के निर्देश पर पहले भी खारिज की जा चुकी हैं, लिहाजा हाईकोर्ट के निर्देश और निर्धारित प्रावधानों के आलोक में ही संदर्भित पुलिसकर्मियों की वरिष्ठता का निर्धारण किया जाना उचित होगा. पुलिस महानिदेशक एके जैन के इस पत्र से अखिलेश सरकार सकते में आ गई. सरकार को यह एहसास हो गया कि इस मसले में सरकार ने कोई हरकत की तो डीजीपी का वैधानिक डंडा इस प्रयास को आगे नहीं बढ़ने देगा. लिहाजा, अखिलेश सरकार ने जैन के जाने तक इंतजार करना ही बेहतर समझा.
30 जून 2015 को एके जैन के रिटायर होते ही सरकार फिर से हरकत में आ गई. चोर दरवाजे से रास्ता तलाशा जाने लगा और जैन के रिटायर हुए एक महीना भी नहीं बीता था कि 23 जुलाई 2015 को 990 पुलिसकर्मियों के आउट ऑफ टर्न प्रमोशन और वन-टाइम वरिष्ठता निर्धारण का गैर-कानूनी फरमान जारी कर दिया गया. फिर करीब साल भर बाद 11 जुलाई 2016 को अखिलेश सरकार ने 94 इन्सपेक्टरों को तरक्की देकर डीएसपी बनाए जाने की ‘विज्ञप्ति’ जारी कर कर दी. सरकार की इन हरकतों से सरकार का अपराध-भाव स्पष्ट हो गया. अखिलेश यादव ने अपने बेजा आदेश को बिना किसी व्यवधान के लागू कराने के लिए एके जैन के जाने के बाद विवादास्पद जगमोहन यादव को डीजीपी बनाया. जगमोहन यादव एक जुलाई 2015 को डीजीपी बने और 23 जुलाई 2015 को शासन का विवादास्पद आदेश जारी हो गया.
सियासत से नहीं, मनोबल मजबूत करने से रुकेगा अपराध
सपा और बसपा दोनों ने ही यूपी पुलिस को अपने-अपने राजनीतिक रंग में रंगने की कोशिश की. इसमें सपा अधिक तेज निकली, जिसने भर्तियां करके और तरक्कियां देकर पुलिस में अपनी ‘कतार’ खड़ी की. बसपा ने भी ऐसा किया, लेकिन कम किया. 2012 के विधानसभा चुनाव के पहले पुलिस में राजनीतिक-पक्षपात भरने के इरादे से सपा ने सारे पुलिसकर्मियों को उनके गृह जनपदों के नजदीक के जिले में तैनात करने का वादा किया था. सपा ने सरकार बनते ही यह वादा पूरा भी किया, लेकिन बंदायू बलात्कार कांड के कारण इस नियम को निलंबित करना पड़ा. इससे पुलिस में नाराजगी भी फैली. खैर, इस वर्ष के विधानसभा चुनाव के दरम्यान बसपा नेता मायावती ने वही वादा दोहराया और कहा कि बसपा की सरकार बनी तो पुलिसकर्मियों को उनके गृह जिले में तैनाती मिलेगी.
इसके अलावा मायावती ने त्यौहारों पर ड्यूटी करने करने वाले पुलिसकर्मियों के लिए अलग से नगद भुगतान की व्यवस्था लागू करने की बात भी कही थी. दूसरी तरफ भाजपा पुलिस के राजनीतिकरण के खिलाफ बोल रही थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो यूपी पुलिस के थानों को सपा का कार्यालय तक कह दिया था. मोदी ने यह भी कहा था कि इसमें पुलिस वालों की गलती नहीं, बल्कि सत्ता का दबाव है. अब प्रदेश में भाजपा की सरकार है. प्रदेश के पुलिसकर्मियों के साथ हुई सत्ताई नाइंसाफियों को दूर करने और उनकी सुविधाओं का ख्याल करने की कोई चिंता इस सरकार में भी नहीं दिख रही है. उत्तर प्रदेश की लचर कानून व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की चिंता वाजिब तो है, लेकिन पुलिस का मनोबल मजबूत किए बगैर कानून व्यवस्था मजबूत थोड़े ही हो सकती है!
ओटीपी के बदले विशेष भत्ता देने की योजना पर ग्रहण
ऑउट ऑफ टर्न प्रमोशन पर पाबंदी लगाने के बाद उत्तर प्रदेश के जांबाज पुलिसकर्मियों को विशेष भत्ता देकर पुरस्कृत करने की योजना बनी थी, लेकिन सरकार के विवादास्पद फरमान से यूपी पुलिस की इस विशेष योजना पर ग्रहण लग गया. योजना बनी थी कि साहस और शौर्य दिखाने वाले जांबाज पुलिसकर्मियों को एक हजार रुपए प्रतिमाह का विशेष भत्ता सेवा की अवधि तक दिया जाता रहेगा. इसके साथ ही हर साल 10 पुलिसकर्मियों को विशेष सम्मान के लिए चुन कर उन्हें मुख्यमंत्री प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित किए जाने की योजना थी. सराहनीय काम करने वाले 25 पुलिसकर्मियों में से प्रत्येक को 25 हजार रुपए का इनाम दिए जाने की भी योजना बनी थी. लेकिन सारी योजनाएं प्रमोशन के विवादास्पद आदेश के कारण छाया-क्षेत्र में चली गईं.
सब एक-दूसरे का पाप धोने और छुपाने में लगे हैं
जैसा ऊपर कहा कि भ्रष्टाचार के मसले पर सारे राजनीतिक दलों के बीच समझदारी है. जो सत्ता में आता है वह खाता है और पहले खाकर जा चुके को बचाता है. बसपा जब सत्ता में आई तब लोगों को लगा था कि मायावती तो मुलायम को किसी भी हाल में नहीं छोड़ेंगी. सपा के विरोध की तल्खी ने ही 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाया था. बसपा ने जो आश्वासन दिए थे उस अनुरूप कार्रवाई की उम्मीद थी, लेकिन मायावती ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया. मुलायम काल के ऐतिहासिक खाद्यान्न घोटाले का आखिरकार सत्यानाश ही हो गया.
हालांकि मायावती ने 35 हजार करोड़ के खाद्यान्न घोटाले की सीबीआई जांच की सिफारिश की थी, लेकिन उसकी लीपापोती का भी उन्होंने ही रास्ता बना दिया. मुलायम के खाद्यान्न घोटाले को 2-जी स्कैम से बड़ा घोटाला बताया गया था, लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला. इसी तरह मुलायम के शासन काल में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण घोटाला हुआ था. मायावती सत्ता पर आईं तो तकरीबन डेढ़ सौ करोड़ के उस विद्युत घोटाले को दबा कर बैठ गईं. मुलायम काल में हुए पुलिस भर्ती घोटाले की भी जांच और कार्रवाई की तमाम औपचारिकताओं का मायावती ने प्रहसन खेला, लेकिन मुलायम के शासनकाल का बहुचर्चित पुलिस भर्ती घोटाला भी ढाक के तीन पात ही साबित हुआ.
वर्ष 2012 में जब समाजवादी पार्टी की सरकार आई तब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बसपाई उपकारों को याद रखा और बुआ के तमाम घोटालों पर पानी डाल दिया. चुनाव के पहले सपा नेता मायावती के तमाम घोटालों को जनता के बीच बेचते रहे, लेकिन सत्ता में आए तो खुद को बेच डालना श्रेयस्कर समझा. मायावती का स्मारक घोटाला, पत्थर घोटाला, पांच हजार करोड़ से भी अधिक का ऊर्जा घोटाला, ताज गलियारा घोटाला, जेपी समूह को हजारों करोड़ का बेजा फायदा पहुंचाने का प्रकरण सब का सब अखिलेश सरकार ने हजम कर लिया.
अब भाजपा की सरकार आई तो उसने समाजवादी पार्टी के तमाम घोटालों के साथ ही पांच साल काटने की प्रैक्टिस शुरू कर दी है. मुलायम कालीन पुलिस भर्ती घोटाला उजागर करने वाले पुलिस अधिकारी सुलखान सिंह को डीजीपी बना कर भी भाजपा उन्हें पंगु बनाए हुई है. वर्ष 2007 से पहले मुलायम सिंह के शासनकाल में जो कांस्टेबल भर्ती घोटाला हुआ था, उसके तार सीधे-सीधे शिवपाल यादव से जुड़े थे. रिश्वत लेकर जाति विशेष के अभ्यर्थियों को पुलिस की नौकरी दिए जाने की शिकायतों का अंबार लग गया था. 2007 में सत्ता में आई बसपा सरकार की मुखिया मायावती ने जांच कराने और हड़कंप मचाने के बावजूद पुलिस भर्ती घोटाले को कानूनी अंजाम तक नहीं पहुंचने दिया. भाजपा को भी घपले-घोटालों की पुरानी फाइलें खोलने में कोई रुचि नहीं है.
साभार : चौथी दुनिया
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