इंदिरा गाँधी पर मुक़दमा, जस्टिस शाह का फैसला और भीड़ से उठती आवाज़- अब तो शर्म करो

के विक्रम राव

यादें भुलाना कठिन है, खासकर जब वे निजी प्रसंग से जुडी हों। स्मृति को ज्ञान की म्यान बताया था रोमन राजनयिक मार्कस सिसरो ने। इसीलिये आज का दिन (12 जनवरी) अनायास दिमागी पटल पर उभर आया। जन्म से सत्ता के गलियारे में जमी रही इंदिरा गांधी ठीक चार दशक इसी सप्ताह सम्मन मिलने पर अदालत में पेश हुई थी। आपातकाल में उनके अत्याचारों की जांच हेतु न्यायमूर्ति जे. सी. शाह जांच आयोग (पटियाला हाउस कोर्ट) में हाजिर होना था। नारी सुलभ नानुकुर के बाद वे अदालत में प्रगट हुईं।

अपनी पुरानी फाइलों को मैं ने छाना तो पाया कि डा. धर्मवीर भारती द्धारा धर्मयुग(मुम्बई: 18 जनवरी 1978) मे मेरी रपट प्रकाशित हुई थी। आज भी वैसी ही ताजगी उसमें मुझे लगी। पेश है:

“राजनीति में रूपक रचने में माहिर इन्दिरा गांधी बतौर अभियुक्त जब न्यायमूर्ति जे.सी. शाह आयोग के कटघरे में आईं थीं तो सनसनी फैलना स्वाभाविक था। मगर उन्नीस महीनों के आपातकाल  के नृशंस राज के कारण उनकी नाटकीयता फीकी रही। जैसे कोई बण्डल देसी फिल्म हो। ठीक ऐसा ही खाका खिंचता है नयी दिल्ली के पटियाला हाउस में उन तीन दिनों का नजारा देख कर। श्रीमती इंदिरा गांधी पेश तो हुई मगर पहेली बुझा गयीं। पहले तो आनाकानी कर रही थीं। जब न्यायमूर्ति शाह आयोग ने सम्मन जारी किया तो हिचकिचाते हुए आयीं। अब आ तो गयीं, मगर बोलने से कतरा गयीं। और आखिरी दिन जब बोलीं तो अपने लिए न-निगलने-न-उगलने की स्थिति बना बैठीं। लेकिन इमर्जेंसी के सताये लोग जो इस आस की बाट जोहते थें कि इस बार कानून के चंगुल से इंदिरा गांधी नहीं निकल सकेंगी, संतुष्ट नहीं हुए। उधर श्रीमती गांधी के चहेते लोग जो मान कर चले थे कि आयोग से बाहर आते ही शहादत की बिंदिया श्रीमती गांधी के माथे चमकेगी, निराश हो गये।

इतिहास के हर बड़े मोड़ का प्रवेशमार्ग संकरा होता है। दिखने में तिलस्मी इस घटना के तह में क्या है? वह भले ही कल्पना के भी परे हो, वस्तुस्थिति यही है कि जनता के चहुदिक श्रीमती गांधी ने जो जाल बुन रखा था उसमें वे खुद आ फंसी है। बच निकलने की जो गुंजाइश थी वह भी आयोग से असहयोग करने पर मिट गई।

यूं तो खुद शाह आयेाग की रचना ही ऐतिहासिक थी। हालांकि इन्दिरा गांधी के ग्रह माकूल रहते आये हैं, अब नहीं। पहले हाई कोर्ट (इलाहाबाद) से हारी थीं, फिर वोट से (रायबरेली) हारीं और अब फिर जाँच आयोग में हैं। कौन जाने उनकी अगली तदबीर क्या हो? फिलहाल शाह आयोग के वे तीन दिन (करीब पंद्रह लंबे, बेचैन घंटे) दिल्ली की सदियों पुरानी खास तारीखों से जुड़ गये है।

पहला दिन पूस की अमावस, सोमवार की भोर, 9 जनवरी 1978, इंडिया गेट भी कुहरे में धुंधला दीख रहा था। पटियाला हाउस के बाहर पुलिस के कई दस्ते तैनात थे। ठंड भी करारी (आज जैसी) थी। लोग आने वालों को उत्सुक निगाहों से पहचानने की कोशिश करते रहे। केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक या राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन अथवा जनता पार्टी की चुनाव सभा से ज्यादा रूचिकर मंजर था। सबसे पहले आनेवालों में थे प्रकाशचन्द्र सेठी। फिर आये ओम मेहता, तोंशे अनंत पै, हरकिशनलाल भगत, देवीप्रसाद चटोपाध्याय, अनंतप्रसाद शर्मा। मगर फर्क यही था कि उनकी मोटर के आगे पहले जैसा लहराता तिरंगा नहीं था। गाड़ी भी बस निजी।

उधर हॉल के अंदर हर चेहरे पर एक अनकही जिज्ञासा झलक रही थी। दीवार पर लगी घड़ी ने जब नौ पैंतीस बजाये तो आयोग के एक कर्मचारी ने इसे दुरूस्त कर नौ चालीस कर दिया। कुमुद जोशी, मार्गथम चंद्रशेखर, मार्गरेट अल्वा, सरोज खोपर्डे वगैरह एक सिरे पर साथ बैठी थीं।

बाहर खड़े लोगों की उत्सुकता वैसी ही थी जैसी जच्चाघर के दरवाजे पर प्रतीक्षकों की। “आयेंगी या नही?” यहीं प्रश्न था। हर मुंह अलग बात, पर शर्त कोई नहीं लगा रहा था। तभी परिचित नीली मेटाडोर कार दीख पड़ी। “आ गयी, आ गयी” की फुसफुसाहट तेज हो गयी। गाड़ी में थी सोनिया गांधी, मानेका गांधी और दो अन्य महिलाएं। एक ने कहा, दूसरा बेटा मां के साथ आयेगा। पर दूसरी कार क्रीम रंग की एंबेसेडर थी जिसमे से काला चोगा पहने वकील के साथ उतरे सैय्यद मीर कासिम और जिनका इंतजार था, श्रीमती इंदिरा गांधी।

उधर दो किस्म की आवाजें आ रहीं थी “शाह कमीशन नाटक है।” तो दूसरी ओर “इंदिरा गांधी मुर्दाबाद”। उनके बाल कुछ ज्यादा सफेद लग रहे थे। आंखें भी कुछ भारी जैसे रात देर तक जागी हों। हॉल में अगले दरवाजे से उनके आते ही कुछ सनसनी, फिर शांति छा गयी। पुराने अतिरिक्त निजी सचिव राजेंद्र कुमार धवन ने अभिवादन किया और समीप ही बैठ गये। उस भीड़-भड़क्के में वकील फ्रैंक एंथनी थोड़ी देर से आये तो उनका सहायक पीछे ही छूट गया। श्रीमती गांधी के पूर्व मंत्रिमंडल के सदस्य तोंशे अनंत पै सामने से गुजरे तो धवन के पड़ोस से कोई फुसफुसाया : “गद्दार।”.

ठीक दस बजे सत्तरवर्षीय न्यायमूर्ति जयंतीलाल छोटालाल शाह ने आसन लिया। पूछा “श्रीमती इंदिरा गांधी का कोई बयान है?” वकील फ्रैंक एंथोनी ने अगले तीन घंटे तक बहस जारी रखी। सिलसिला लंबा चला। फिर आये आयोग के वकील कार्ल खंडालावाला और सरकारी वकील प्राणनाथ लेखी। (इनकी पुत्री मीनाक्षी अब भाजपाई सांसद है।) दिन यों ही बीत गया। श्रीमती गांधी की आवाज नहीं सुनायी दी।

पूरी जिरह के दौरान श्रीमती गांधी कभी कनखियों से तिरछी ओर श्रोताओं को देखतीं तो कभी न्यायमूर्ति शाह को। पीछे मुड़कर दोनों बहुओं से कुछ कहतीं। गुलाबी पेन से कपोल छूतीं, फिर छोटे नुस्खानुमा कागज पर कुछ लिख कर अपने वकील को देतीं। कुर्सी के हत्थे पर कोहनी टिकाए, हथेली पर ठुड्डी थामें सरकारी वकील के कटाक्षों को सुनतीं। एक बार वे काफी तिलमिलायी सी लगीं जब न्यायमूर्ति शाह ने उनके वकील से पूछा कि क्या किसी भी व्यक्ति को सिर्फ शुबह पर कैद करना वाजिब था, सरकारी वकील प्राणनाथ लेखी ने जब कोई तीखी बात कह दी तो श्रीमती गांधी के खास और राज्यसभा के सदस्य कल्पनाथ राय कुर्सी पर से उचक कर कुछ गुर्राने की मुद्रा में आ गये।

मध्याह्न के अवकाश के समय जब पत्रकारों ने श्रीमती गांधी से पूछा कि क्या वे कुछ टिप्पणी करना चाहेंगी? उसका संक्षिप्त जवाब था, “उनकी टिप्पणियों को सुनिये। खुद समझ जाएंगे”। एक संवाददाता ने सफाई चाही, “किसकी टिप्पणी? न्यायमूर्ति शाह की या आपके वकील फ्रैंक एंथोनी की?” जवाब में खामोशी थी। उनके तिलकधारी मुछौव्वल अंगरक्षक ने कहा, “कोंउ जाने कल का करिहे।” घड़ी ने पांच बजा दिये थे। बैठक खत्म। कल पर मुल्तवी।

दूसरी सुबह पौने दस बजे श्रीमती गांधी फिर पेश हुई। आज सफेद साड़ी पर सफेद शाल ओढ़े थीं। साथ में थे पुत्र संजय गांधी और परिवारजन। बाहर वहीं नारे, कुछ जिंदाबाद, कई मुर्दाबाद। दर्शकों की संख्या कम थी। उनमें अधिकतर बोर इसलिए भी हो रहे थे कि कल जब वकीलों की जिरह से ऊब जाते तो बाहर लगे माईक के भोंपू पर सिडनी टेस्ट में करसन घावरी की बल्लेबाजी का आंखों देखा हाल सुन लेते। आज टेस्ट की छुट्टी का दिन था। तुर्रा यह कि फिर वकीलों की गुर्राहट। श्रीमती गांधी की महीन-बारीक वाणी की कहीं भनक तक नहीं।

जब न्यायमूर्ति शाह ने निर्णय दिया कि श्रीमती गांधी को हलफ उठा कर बयान देना पड़ेगा तो उनके माथे पर शिकन नजर आयी, कुछ परेशानी भी। अगली सुबह तक का वक्त दिया गया।

फिर वहीं प्रश्नचिन्ह। “कल आयेंगी?” पूछा पत्रकारों ने। “जरूर आऊंगी,” वे बोलीं। “क्या कदम होगा अब आप का?” श्रीमती गांधी का जवाब था, “अगर मुझे पता होता कि सुबह मैं क्या करूंगी, तो मैं कल तक की मोहलत क्यों मांगती?” बयान के बारे में पूछने पर वे बोलीं “आयोग मेरी परीक्षा लेना चाहता है।”

तीसरी सुबह श्रीमती गांधी प्रफुल्ल नजर आ रही थीं। हंस-हंस कर फोटोग्राफरों को तसवीर लेने दे रही थीं। पत्नी माया राय के साथ आ कर सिद्धार्थ शंकर राय ने अपनी नयी प्रतिद्वंद्विनी श्रीमती गांधी से हाथ मिलाया। उधर के. ब्रह्मानंद रेड्डी आ कर ठीक आमने-सामने की कुर्सी पर बिराजे। कार्टूनिस्ट रंगा, जिसकी पिटाई (इंदिरा) कांग्रेस अधिवेशन में आयोजकों ने की थी, ने चार स्केच बना कर श्रीमती गांधी को दिखाये। मुस्करा कर, आंचल संवारते हुए उन्होंने उन पर आटोग्राफ कर दिये।

आते ही न्यायमूर्ति शाह ने जानना चाहा कि क्या श्रीमती गांधी हलफ उठा कर बयान देंगी? बस, तभी घटना ने नया मोड़ लिया। “मैं एक बयान दर्ज करना चाहती हूं,” बोलीं श्रीमती गांधी। तीन दिन में पहली बार वे बोलीं थीं। फिर आधे घंटे तक एक लिखित बयान पढ़ती रहीं, जिसे न्यायमूर्ति शाह ने चुनावी भाषण की संज्ञा दी। जब सरकारी वकील प्राणनाथ लेखी ने जवाब देना चाहा तो उन्हें रोकते हुए न्यायमूर्ति ने कहा, “मुझे दूसरी सियासी तकरीर नहीं सुननी है।”

अगला घंटा काफी तनावपूर्ण रहा। न्यायमूर्ति शाह ने आदेश दिया कि हलफ उठा कर बयान देने से इंकार कर श्रीमती गांधी ने दंड संहिता की धारा 179 की अवहेलना की है अतः उन पर मुकदमा चलाया जाये। दंड में छह माह की जेल या और एक हजार रूपये जुर्माना। बस, श्रीमती गांधी उठीं साथ में पूरा कुनबा भी। त्रिदिवसीय पेशी का यहीं खातमा हुआ। जब वे बाहर निकल रहीं थीं तो भीड़ में से एक आवाज आयी: “अब तो शर्म करो।”

(यह आलेख वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक पेज से लिया गया है.)

 

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