कश्मीर के बहाने सत्ता त्यागने की बनेगी मोदी की छवि और देश में शुरू होगी हिंदुत्व की दूसरी लहर

नई दिल्ली।  एक ऐसे समय में जब बीजेपी, कांग्रेस और बाकी सभी दल चुन-चुन कर राजनैतिक सहयोगी ढूंढने में लगे हैं और पूरे देश में नए-नए गठबंधनों की बात हो रही है, तब बीजेपी महासचिव राम माधव ने दोपहर 2:00 बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ्ती सरकार से समर्थन वापसी का ऐलान कर दिया.

यह फैसला पहली नजर में देश में बह रही गठबंधन की बयार के उलट लगता है, लेकिन असल में गठबंधन तोड़ने में ही बीजेपी को वोटर जोड़ने का फार्मूला नजर आ रहा है. पिछले 3 साल से जब से यह गठबंधन पीडीपी के साथ हुआ था, बीजेपी के सारे प्रवक्ता, अपनी सारी हिकमत लड़ाकर भी यह नहीं समझा पाते थे कि दो विपरीत विचारधाराओं का बेमेल गठबंधन आखिर किस काम का है और पिछले 2 साल से जिस तरह से घाटी में आतंकवाद में तेजी आई है, उससे BJP को अपने काडर को यह समझाने में दिक्कत आ रही थी कि वह आतंकवाद से लड़ने में सख्ती से कदम उठा रही है.

खासकर जिस तरह से सैनिकों के शहीद होने और नागरिकों के मारे जाने की घटनाएं बढ़ीं, वह प्रधानमंत्री मोदी की सख्त छवि से मेल नहीं खाता था. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर हिंदुत्व के पोस्टर बॉय की छवि भले ही मोदी बहुत पीछे छोड़ आए हों, लेकिन आम चुनाव से पहले वह हिंदुत्व के मामले में नरम होने का इल्जाम तो कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे.

हिंदुत्व से जुड़े मसलों पर अब नहीं देनी होगी बीजेपी को सफाई
अब जब प्रधानमंत्री 2019 के चुनाव अभियान पर निकलेंगे तो उन्हें पार्टी के भीतर जमीनी कार्यकर्ताओं को हिंदुत्व से जुड़े मामलों पर किसी तरह की सफाई नहीं देनी होगी. अब क्योंकि कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगेगा तो सेना और अर्धसैनिक बलों को ज्यादा सख्ती से कार्रवाई करने का मौका मिलेगा. जाहिर है ऐसे में कश्मीर में बीजेपी के खिलाफ माहौल और गहराएगा. लेकिन इस समय देश की 500 से अधिक लोकसभा सीटों के गणित में कश्मीर की 6 लोकसभा सीटें खास मायने नहीं रखतीं.

इस चुनावी साल में सरकार के लिए यह भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं होगा कि संयुक्त राष्ट्र या बाकी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां मानव अधिकारों को लेकर कश्मीर के मसले पर भारत के बारे में अच्छी राय रखती हैं या उसकी आलोचना करती हैं. बीजेपी ने साफ कर दिया है कि चुनाव से पहले उसे संघ परिवार, विश्व हिंदू परिषद और बाकी हिंदुत्ववादी और राष्ट्रवादी संगठनों की पूरी मदद चाहिए है. इस मामले में कश्मीर की सरकार को वह एक अड़ंगा नहीं बनने देगी.

इस फैसले में वह बात भी शामिल है जो पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के कैराना लोकसभा उपचुनाव में देखी गई. राजनीतिक पंडित अनुमान लगा रहे थे कि महागठबंधन की ओर से एक मुस्लिम महिला को प्रत्याशी बनाने से वोटों का ध्रुवीकरण होगा और कैराना बीजेपी की झोली में जाएगा. लोग यही समझ रहे थे कि जाट एक मुस्लिम को वोट नहीं देंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और वहां से राष्ट्रीय लोकदल की प्रत्याशी तबस्सुम हसन चुनाव जीत गई.

अपनी विचारधारा को लेकर साफ संदेश देना चाहती है बीजेपी
इसके बाद से बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को जो फीडबैक मिला उसमें यह बताया गया कि हिंदुत्व के मुद्दे पर नरम होने के कारण यूपी में ध्रुवीकरण की धार कमजोर हो गई है. इससे पहले बीजेपी कर्नाटक में भी जीतते-जीतते हार गई थी. गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव पहले ही बीजेपी को सेट बैक दे चुके थे. ऐसे में पार्टी नेतृत्व ने तय किया कि लोकसभा चुनाव से पहले साफ संदेश दिया जाए कि बीजेपी क्या है और उसकी विचारधारा क्या है.

अब पार्टी जनता के बीच जाकर कहेगी कि उसे ऐसी सरकार नहीं चाहिए थी जो जवानों की शहादत पर खड़ी हो. बीजेपी कहेगी कि विचारधारा के लिए उसने सत्ता कुर्बान कर दी. गठबंधन टूटने के बाद महबूबा मुफ्ती जितनी बार बीजेपी पर आरोप लगाएंगीं, उन आरोपों का बीजेपी कश्मीर से बाहर अपने हित में ही उपयोग करेगी. इस फैसले के बाद जाहिर है कि कश्मीर के लोगों की परेशानियां घटने के बजाय और बढ़ेंगी. मानवाधिकारों का इंडेक्स किस तरफ जाएगा, यह भी आसानी से समझा जा सकता है.

साथ ही पहले से ही विपरीत परिस्थितियों में काम कर रहे सुरक्षाबलों के लिए भी हालात और ज्यादा नाजुक होंगे. कश्मीर में सरकार की ओर से तय किए गए वार्ताकार की भूमिका पहले भी किसी के समझ में नहीं आई और आगे वह किस तरह की होगी इसका भी कुछ पता नहीं चलेगा. सरकार गिरने के बाद कश्मीर लोकतंत्र से थोड़ा और दूर हो जाएगा.

लेकिन देश में अगले साल होने वाले लोकतंत्र के महाप्रयोग के लिए एक नया मसाला मिल गया है. अब कांग्रेस और दूसरे दलों को यह देखना है कि क्या BJP के इस नव अर्जित परोक्ष हिंदुत्व की काट वे समय रहते कर पाते हैं या फिर देश में दूसरी मोदी लहर चलने की तैयारी हो चुकी है.

 

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