खुन्‍नस निकालने को कर्णन ने सुप्रीम कोर्ट पर चला डाला दलित-ब्रह्मास्‍त्र

नई दिल्ली /लखनऊ। जस्टिस कर्णन का एक मामला और करामात समझ लीजिए। इस मामले में जस्टिस कर्णन ने मद्रास हाईकोर्ट के दो मुख्य न्यायाधीशों जस्टिस अग्रवाल व जस्टिस एस के कौल पर गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने एक जज के बारे में यह कहा कि उसने अपनी महिला क्लर्क के साथ बलात्कार किया व इससे नाराज होकर उसकी पत्नी ने उसे तलाक दे दिया। इसके जवाब में संबंधित जज की पत्नी ने सुप्रीम कोर्ट में उनके खिलाफ शिकायत करते हुए कहा कि जस्टिस कर्णन आए दिन उन्हें टेलीफोन पर धमकियां देते है व असभ्य भाषा का इस्तेमाल करते हैं। उनकी हरकतों से नाराज होकर जब सुप्रीम कोर्ट ने उनका तबादला मद्रास से कोलकाता हाईकोर्ट कर दिया तो उन्होंने अपने तबादले पर ही रोक लगाते हुए कहा कि जब तक मैं अपने लगाए गए आरोप साबित न कर लूं तब तक मेरा तबादला न किया जाए।

उन्होंने जस्टिस एस के कौल समेत हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के करीब दो दर्जन पूर्व व मौजूदा न्यायाधीशों को भ्रष्ठ ठहराया था। जब सुप्रीम कोर्ट के दो सदस्यीय बेंच ने, जिसमें मौजूदा प्रधान न्यायाधीश जस्टिस जे एस केहर व आर भानुमती शामिल थे यह रोक हटाई तो उन्होंने चेन्नई पुलिस से उन दोनों के खिलाफ हरिजन एक्ट के तहत उन्हें प्रताड़ित करने का मामला दर्ज करने को कहा। बाद में उन्होंने तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश टी एस ठाकुर से मुलाकात की और फिर कलकत्ता जाने के लिए तैयार हो गए। वहां पद संभालने के बाद उन्होंने मुख्य-न्यायाधीश पर आरोप लगाया कि दलित होने के कारण उन्होंने उन्हें महत्वहीन काम सौंप रखा है।

इस बीच उन्होंने वहां अजीबो-गरीब फैसला सुनाया जिसकी काफी आलोचना भी हुई। उन्होंने बलात्कार के एक मामले में यह फैसला दिया कि अगर दो लोग संबंध बनाते हैं तो उन्हें पति पत्नी मान लिया जाए। इसके लिए उन्हें विवाहित होने की जरुरत नहीं हैं। जब इस फैसले की काफी आलोचना हुई तो उन्होंने सफाई देते हुए कहा कि वे काफी तनाव के दौर से गुजर रहे थे इसलिए उन्होंने यह फैसला सुना दिया जो कि उन्हें नहीं सुनाना चाहिए था। जब उन्होंने तमाम जजों को भ्रष्ट बताते हुए प्रधानमंत्री व कानून मंत्री को पत्र भेजा तो सुप्रीम कोर्ट को लगने लगा कि अब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा है।

सुप्रीम कोर्ट ने पहले उन्हें हाईकोर्ट में किसी भी तरह का प्रशासनिक या न्यायिक कामकाज सौंपने पर रोक लगा दी व फिर उन पर न्यायालय की अवमानना के मामले में नोटिस जारी करते हुए प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय बेंच के सामने 13 फरवरी को पेश होने का आदेश दिया मगर वे नहीं आए। उनका कहना था कि उनके पास इतने पैसे ही नहीं हैं कि वे कलकत्ता से दिल्ली तक का हवाई जहाज का टिकट खरीद सकें। न ही वे अपने वकील की फीस चुका सकते हैं। अंततः खुद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें तीन हफ्ते का समय और दे दिया है। वे उसके सामने पेश होंगे इसमें संदेह ही है क्योंकि उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट उनके खिलाफ कोई कार्रवाई कर ही नहीं सकता है। कार्रवाई करने का अधिकार सिर्फ इस देश की संसद को है। वे वहीं पेश होंगे।

उनकी शिकायत है कि सुप्रीम कोर्ट में एक भी दलित जज नहीं है। अंतिम दलित जज जी बालकृष्ण थे जो कि प्रधान न्यायाधीश पद से 11 मार्च 2010 को रिटायर हो गए। वे चाहते हैं कि जस्टिस जे एस केहर उनके मामले की सुनवाई न करें। वैसे जस्टिस करनन का यह दावा सही है कि सुप्रीम कोर्ट उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है। हमारे संविधान में किसी जज को महाभियोग लगा कर ही हटाया जा सकता है। इसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत से इस प्रस्ताव को पारित करवाना पडता है। इतिहास में ऐसे तीन मामले आए पर किसी को महाभियोग के जरिए हटाया नहीं जा सका। जस्टिस वी रामास्वामी पर मई 1995 में महाभियोग लगा कर मतदान के मौके पर कांग्रेस ने सदन का बाहिष्कार कर दिया और वे बच गए। सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी डी दिनाकरन पर महाभियोग लगा और उन्होंने सदन में प्रस्ताव पारित होने से पहले ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया। जबकि जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ राज्यसभा में प्रस्ताव पारित हो गया पर लोकसभा में महाभियोग का प्रस्ताव आने से पहले ही उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

 

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