चीन-मालदीव के नए रिश्ते: बड़ी मुश्किल है डगर पड़ोस की

नई दिल्ली। बात बीते साल की है, दिसंबर महीने के एक ठंडे दिन बीजिंग के खूबसूरत ग्रेट हॉल ऑफ पीपल में एक खास राजकीय मेहमान को रेड कारपेट का स्वागत दिया गया. जिस गर्मजोशी के साथ चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने मालदीव के राष्ट्रपति यामीन गय्यूम से हाथ मिलाया उसकी गर्माहट अब भारत के लिए असहजता वाली तपन बन उसके हाथ जला रही है, इसमें कोई शक नहीं.

इस मुलाकात से ठीक एक महीना पहले इसी ग्रेट हॉल ऑफ पीपल में कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस ने राष्ट्रपति जिनपिंग को अगले पांच सालों के लिए फिर से सत्ता के शिखर पर बिठाया था और इसी हॉल में उस दिन शी जिंगपिन ने अपने 3 घंटे 23 मिनट लंबे भाषण में तकरीबन 26 बार ‘ग्रेट पावर चाइना’ कहा था और इसके लिए देश को वन बेल्ट,वन रोड परियोजना की अहमियत भी समझाई थी. शी जिंगपिन के संकेतों को आज दक्षिण एशिया में अगर कोई सबसे अच्छी तरह समझ रहा है तो वो भारत है.

चीन मालदीव का नया केस स्टडी है

चीन ने पिछले कुछ समय में दक्षिण एशिया में अपनी आक्रामक रणनीति के जरिए भारत को कई चुनौतियों से जूझने के लिए छोड़ दिया है. इसमें बेल्ट एंड रोड परियोजना बड़ा हथियार बनकर उभरी है. ये सही है कि मालदीव और चीन की करीबी के लिए वहां के राष्ट्रपति के निजी तानाशाही रवैये को भी कठघरे में लिया जा रहा है, लेकिन दक्षिण एशिया में जिस तरह चीन ने अपना आर्थिक निवेश कार्ड खेला है, उसके लिए मालदीव सबसे मुफीद केस स्टडी है.

दिसंबर 2017 में मालदीव के राष्ट्रपति के चीनी दौरे का मकसद एफटीए को बतौर गिफ्ट चीन को देना था. इस समझौते को यामीन ने आधी रात में अपनी संसद में विपक्षी दलों की गैरमौजूदगी में पास करवाया था. ये भारत के लिए बड़ा झटका था. भारतीय विदेश मंत्रालय ने एक प्रेस रिलीज जारी कर अपनी नाखुशी जता कहा भी था ‘मालदीव जो भारत का करीबी और दोस्त सरीखा पड़ोसी है, से हम ये हम उम्मीद रखते हैं कि वो भारत फर्स्ट की अपनी नीति को लेकर संवेदनशील रवैया अपनाएगा.’

लेकिन जाहिर है मामला काफी आगे बढ़ चुका था. मालदीव में ‘भारत फर्स्ट’, अब ‘चाइना फर्स्ट’ हो चुका था, लेकिन ये सब एक दिन में नहीं हुआ था. मालदीव के विपक्षी दलों के ये आरोप काफी हद तक सही है कि राष्ट्रपति ने पूरे देश को ही चीन के लिए खोल दिया था लेकिन ये बात भी उतनी ही सही है कि चीन मालदीव समेत पूरे दक्षिण एशिया में एक अर्से से आर्थिक दबदबा बनाने की कवायद में लगा है. हाल ही में पेंटागन ने भी अपनी एक रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया था कि भारत-प्रशांत इलाके में चीन गलत तरीके से प्रभुत्व जमाने की कोशिश कर रहा है.

मालदीव में चीन कर रहा है बड़ा निवेश

मालदीव के बुनियादी ढांचे में चीनी निवेश की बात जगजाहिर है, एक चीनी कंपनी को राजधानी माले के पास रिजॉर्ट बनाने के लिए एक द्वीप 50 साल की लीज पर दिया गया है .आशंका ये है कि चीन इस जगह का ऐसे ही इस्तेमाल कर सकता है जैसे उसने दक्षिण सागर चीन में किया है. चीन के बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव) के लिए मालदीव अहम है और इसीलिए मालदीव ने  एफटीए के साथ ही चीन की मारीटाइम सिल्क रोड को भी पूरा समर्थन दिया था, जो कि BRI का ही हिस्सा है. ऐसे में क्या भारत के लिए ये सोचने की वजह नहीं है कि 2011 में अपना दूतावास खोलने वाला चीन मालदीव के इतना करीब कैसे आ गया है? जाहिर है इसके पीछे सिर्फ वहां की तानाशाह सरकार जिम्मेदार नहीं. बल्कि दबदबे की जड़ चीन के आर्थिक निवेश तक जाती है, जो वो पूरे इलाके में कर रहा है.

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चीन मामलों के जानकार जयदीप रानाडे का कहना है कि ‘चीन साल 2013 से ही अपने आर्थिक और सैन्य दबदबे का इस्तेमाल पड़ोस के रणनीतिक संबंधों को बदलने के लिए कर रहा है. धीरे-धीरे वो यहां कूटनीतिक पैर जमाता भी दिख रहा है. बांग्लादेश,नेपाल और श्रीलंका में चीन के बढ़ते प्रभुत्व से निपटने के भारतीय विदेश नीति को ठोस कदम उठाने होंगे. श्रीलंका को लेकर फिलहाल कोई सामने मौजूद खतरे जैसी बात दिखाई नहीं पड़ रही. लेकिन ये याद रखना होगा कि चीन 2050 तक ग्रेट पावर बनने के महत्वाकांक्षी रथ पर सवार है और इसलिए वो और आक्रामक भूमिका अख्तियार कर सकता है.’

श्रीलंका भी भारत को दे सकता है झटके

श्रीलंका से भले ही आज कोई खास दिक्कत ना दिख रही हो, लेकिन कई जानकारों का मानना है कि अगर ध्यान नहीं दिया गया तो मालदीव जैसी चीन के साथ करीबी के हालात यहां भी दिख सकते हैं. अनुमानों के मुताबिक, 2005-2017 में बीजिंग ने श्रीलंका की परियोजनाओं में 15 अरब डॉलर का निवेश किया है. श्रीलंका पर चीन का करीबन आठ बिलियन डॉलर का कर्ज है. हंबनटोटा पोर्ट की लीज 99 साल के लिए चीन को देने के पीछे इसी कर्ज को उतारने की कड़ी माना जा रहा है.

वैसे भी श्रीलंका की सियासी आबोहवा भारत के लिए अच्छे संकेत नहीं ला रही है. फरवरी के पहले हफ्ते में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में महिंदा राजपक्षे की पार्टी को बहुमत मिला है, वैसे तो अगले राष्ट्रपति चुनाव में अभी दो साल का वक्त है लेकिन अगर तब भी यही ट्रेंड कायम रहता है तो भारतीय रणनीतिकारों को यहां भी खासी मेहनत करनी होगी क्योंकि राजपक्षे सरकार को चीन ने आर्थिक समर्थन तब भी जारी रखा था जब सिविल वॉर के आखिरी स्टेज में पूरी दुनिया मानवाधिकारों के सवालों पर उसे कठघरे में ले रही थी. इसलिए उनकी इमेज चीन समर्थक राजनेता की मानी जाती है.

नेपाल का भी बदला है रुख

राजनीतिक नेतृत्व के सवाल पर नेपाल की ओर से भी दिक्कतें आ सकती हैं, वैसे तो 2016 के ‘आर्थिक ब्लॉकेड’ के बाद से ही नेपाल चीन के करीब आता दिख रहा था. लेकिन अब लेफ्ट गठबंधन की सरकार के पीएम के पी शर्मा ओली ने कुर्सी संभालते ही अपनी प्राथमिकताएं साफ कर दी हैं. हॉन्गकॉन्ग के साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट को अखबार को इंटरव्यू देते वक्त ओली ने साफ कहा कि ‘हमारे दो पड़ोसी हैं, हम घिसी-पिटी परंपराओं पर चलने में यकीन नहीं रखते पिछली सरकार की ओर से चीन के साथ ठुकराए गए 2.5 बिलियन डॉलर के हाईड्रोप्रोजेक्ट को रिवाइव करेंगे.’

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हालांकि नेपाल मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरुप वर्मा नेपाल के इस तल्ख रुख को एक सांकेतिक गुस्सा ही मानते हैं. वो कहते हैं कि ‘क्योंकि नेपाल का राजनीतिक नेतृत्व ये बात अच्छे से जानता है कि चीन भारत की जगह कभी नहीं ले सकता.’

2015 में चीन से आर्थिक मदद के बाद ही  बांग्लादेश का चीन के करीब आना भी एक सच्चाई है, जिसे शेख हसीना अब सिर्फ विकास की खातिर बने रिश्ते कहकर स्वीकार भी रही हैं. वहीं 50 बिलियन डॉलर के निवेश वाला चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडर भारत के लिए पहले से ही सिरदर्दी का सबब है.

ऐसे में कम से कम दक्षिण एशिया में भारत चीन के आर्थिक जाल में भारत खुद को धीरे-धीरे फंसता महसूस कर रहा है. इसके पीछे बीते पांच साल में दिखी चीन की वो आर्थिक आक्रामकता है जिसके लिए BRI बतौर इस्तेमाल कर रहा है. BRI के तहत अभी काम और स्पीड पकड़ेगा तो दिक्कत और बढ़ेगी क्योंकि इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए चीन के हर प्रांत ने अलग ब्लू प्रिंट बना रखा है. चीनी बैंकों ने अपनी तिजोरियों का मुंह खोल रखा है. चीन का दावा है कि BRI के तहत आने वाले 68 देशों पर सालाना 150 बिलियन डॉलर खर्च कर रहा है. जिसमें से 6 देश तो भारत के निकट पड़ोसी हैं. पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार और अफगानिस्तान ने चीन के साथ बीस समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं.

भारत को ‘लुक ईस्ट’ के बजाय ‘नेबरहुड फर्स्ट’ पर ध्यान देना होगा

यानी आज के हालात के मुताबिक भारत को ‘लुक ईस्ट’ या ‘एक्ट ईस्ट’ से पहले ‘नेबरहुड फर्स्ट’ पर लौटना होगा. विशेषज्ञ जयदेव रानाडे मानते हैं कि चीन को लेकर हमारी चिंताओं को लेकर उठे सवालों का जबाव हमारी ‘नेबरहुड फर्स्ट’ पॉलिसी में ही है. वो आगे कहते हैं कि ‘चाबहार और दुक्म बंदरगाहों को विकसित करने के काम में तेजी लानी होगी और इस काम के लिए सरकार को प्राइवेट कॉंट्रैक्टर्स की तलाश जैसी संभावनाओं के बारे में भी सोचना चाहिए.’

लेकिन कुल मिलाकर जो भी हो हम अपनी विदेश नीति में दूर की साझेदारियों पर तो नजर रख पा रहे हैं लेकिन नजदीक के पुराने पड़ोसियों को लेकर लेकर हमारी नजर धुंधली सी है. दिल्ली में आसियान नेताओं के साथ दोस्ताना हो या फिर मॉरिशस और सेशेल्स में मिलिट्री इन्फ्रास्ट्रक्चर में भारत की भागीदारी. ये कदम ‘एक्ट ईस्ट’ पॉलिसी की ओर तो बढ़ते कदम हो सकते हैं, लेकिन ‘नेबरहुड फर्स्ट ‘के नहीं. इसलिए भारत के लिए बेहद जरुरी है कि वो मालदीव के आर्थिक विकास मंत्री मोहम्मद सईद के हालिया बयान पर गौर करे, जिसमें उन्होंने कहा कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अब चीन का दबदबा सच्चाई है. भारत को इस सच को स्वीकार कर अपनी नेबरहुड फर्स्ट की नीति की कसौटी पर तौलना होगा ही.

 

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