जन्मदिन विशेष: कुछ नेताओं की लालच से नाकाम हुआ लोहिया का गैर कांग्रेसवाद

सुरेन्द्र किशोर 

इन दिनों देश में गैर मोदी गठबंधन बनाने की कोशिश चल रही है. इस कोशिश की सफलता को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है. लेकिन साठ के दशक में तो गैर कांग्रेसवाद को कुछ गैर कांग्रेसी नेताओं की सत्ता लोलुपता ने ही विफल कर दिया था.

गैर कांग्रेसवाद के मुख्य शिल्पकार डॉक्टर राम मनोहर लोहिया थे. उन्होंने जनसंघ और कम्युनिस्टों को पहली बार एक साथ बैठने के लिए राजी कर लिया था. इस विफलता का सबसे बड़ा उदाहरण बिहार ने पेश किया था. वर्षों के कठिन संघर्षों के बाद 1967 में बिहार सहित देश सात राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं थीं.

अन्य दो राज्यों में कुछ कांग्रेसियों के दल बदल के कारण कुछ सप्ताह बाद गैर कांग्रेसी सरकारें बनी थीं. लेकिन बिहार की पहली गैर कांग्रेसी सरकार दस महीनों में ही गिर गई. ऐसा कुछ गैर कांग्रेसी विधायकों की ही सत्ता लोलुपता के कारण हुआ.

क्या बच सकती थी बिहार की गैर कांग्रेसी सरकार? 

बिहार की गैर कांग्रेसी सरकार नहीं गिरती अगर राम मनोहर लोहिया ने बी पी मंडल से एक मामूली समझौता कर लिया होता. आज जब इस देश और प्रदेश के अधिकतर राजनीतिक दल और नेतागण अपनी सत्ता के लिए घटिया से घटिया समझौता करने को तैयार रहते हैं, वैसे में 1967 की उस राजनीतिक घटना को एक बार फिर याद कर लेना मौजूं होगा.

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साथ ही तब के बिहार विधानसभा के स्पीकर धनिक लाल मंडल ने भी यदि राजनीतिक मूल्यों से समझौता कर लिया होता तो बिहार की पहली मिली-जुली गैर कांग्रेसी सरकार सिर्फ दस महीने में ही नहीं गिर जाती. कुछ दिनों तक और चल ही सकती थी. महामाया प्रसाद सिंहा के नेतृत्व में बिहार में गठित वह सरकार 5 मार्च 1967 को बनी और 28 जनवरी,1968 तक ही चली.

गैर कांग्रेसवाद की रणनीति के रचयिता, समाजवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी राम मनोहर लोहिया के कठोर अनुशासन और उनकी नीतिपरक राजनीति के कारण उनकी रणनीति ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी. डा.लोहिया चाहते थे कि उनकी सरकार बिजली की तरह कौंधे और सूरज की तरह स्थायी हो जाए. लेकिन, उनकी ही पार्टी यानी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के पदलोलुप लोगों ने उनकी इच्छा पूरी नहीं होने दी. लेकिन उन्होंने भी उनके साथ कोई समझौता नहीं किया.

तब यदि लोहिया ने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को महामाया मंत्रिमंडल से बाहर करने की जिद्द नहीं की होती तो वह सरकार कुछ दिन और चलती. बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल के नेतृत्व में ही बाद में मंडल आयोग बना था.

मंत्रिमंडल के गठन में क्या हुई थी गलती?

कुछ विधायकों की शिकायत थी कि उन्हें मंत्री पद नहीं मिला. कुछ गलतियां मंत्रिमंडल के गठन के समय ही हुई. 1967 की शुरुआत में जब महामाया प्रसाद सिंहा के नेतृत्व में मंत्रिमंडल का गठन हो रहा था तब बीपी मंडल को कैबिनेट मंत्री बना दिया गया. जबकि वह तब मधेपुरा से 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए थे.

लोहिया की राय थी कि जो व्यक्ति जहां के लिए चुना जाए, वह वहीं की जिम्मेदारी संभाले. लेकिन इस राय को दरकिनार करके मंडल को मंत्री बना दिया गया था. यह एक बड़ी गलती थी.

लोहिया से स्थानीय नेताओं ने इस संबंध में कोई दिशा-निर्देश नहीं लिया था. लोहिया अपनी पार्टी की स्थानीय शाखाओं के ऐसे कामों में हस्तक्षेप नहीं करते थे. दरअसल चुनाव के तत्काल बाद लोहिया दक्षिण भारत के दौरे पर चले गए थे. उन दिनों संचार सुविधाओं का अभाव था. लोहिया से संपर्क करना बिहार के नेताओं के लिए संभव नहीं हो सका.

कुछ लोगों को ही थी लोहिया के विचारों की जानकारी

हालांकि 1967 में राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारों के शिल्पकार लोहिया ही थे. पर कौन कहां मंत्री बनेगा या नहीं बनेगा, इसका फैसला करने की जिम्मेदारी उन्होंने पार्टी के दूसरे नेताओं पर ही डाल दी थी. हां! उनके उसूलों की जानकारी उनकी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को जरूर रहती थी.

भूपेंद्र नारायण मंडल को लोहिया के विचारों की जानकारी थी. भूपेंद्र नारायण मंडल के नाम पर मधेपुरा में अब विश्वविद्यालय है. पहले उन्हें ही कहा गया था कि वे महामाया मंत्रिमंडल के सदस्य बनें. पर उन्होंने यह कहकर मंत्री बनने से इनकार कर दिया था कि लोहिया जी इसे ठीक नहीं मानेंगे.

जब बाद में लोहिया को पता चला कि बीपी मंडल बिहार में मंत्री बन गए हैं तो वे नाराज हो गए. वे चाहते थे कि वे मंत्रिमंडल छोड़कर लोकसभा के सदस्य के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाएं. पर मंडल जी कब मानने वाले थे!

मंत्री बने रहने के लिए उन्हें विधानमंडल के किसी सदन का छह महीने के भीतर सदस्य बनाया जाना जरूरी था. लेकिन लोहिया की राय को देखते हुए उनकी पार्टी ने उन्हें यह संकेत दे दिया था कि आप मंत्री सिर्फ छह महीने तक ही रह सकेंगे. मंडल ने इसके बाद महामाया मंत्रिमंडल गिराकर खुद मुख्यमंत्री बनने की जुगाड़ शुरू कर दी.

ram manohar lohia

इस काम में वे कम से कम कुछ महीनों के लिए सफल हो सकते थे यदि तत्कालीन स्पीकर धनिक लाल मंडल ने सरकार को बचाने के लिए स्पीकर के पद की गरिमा को थोड़ा गिरा दिया होता.

स्पीकर से कहा जा रहा था कि आप सदन की बैठक अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दीजिए. इस बीच सत्ताधारी जमात, दल बदल के कारण हुई क्षति की पूर्ति के लिए अतिरिक्त विधायकों का जुगाड़ कर लेगी. लेकिन धनिक लाल मंडल ने उस सलाह को ठुकराते हुए अविश्वास प्रस्ताव पर सदन में मत विभाजन करा दिया और सरकार पराजित हो गई.

इस काम के लिए अखिल भारतीय स्पीकर्स कॉन्फ्रेंस ने बाद में धनिक लाल मंडल के इस काम की सराहना की थी. मंडल भी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर ही चुनकर आए थे. लेकिन स्पीकर बन जाने के बाद उन्होंने निष्पक्ष भूमिका निभाई.

आखिर क्या चाहते थे बीपी मंडल?

उधर ऐसा नहीं था कि लोहिया को यह खबर नहीं थी कि बीपी मंडल क्या कर रहे थे. वे सत्ताधारी जमात से दल बदल करा रहे थे. पर लोहिया की जिद थी कि चाहे सरकार रहे या जाए लेकिन नियमों का पालन होना चाहिए. यानी मंडल को मंत्री नहीं रहना है.

सरकार मंडल जी ने गिरा दी. कल्पना कीजिए कि आज यदि कोई मंडल जी होते और जिनकी इतनी ताकत होती कि वे सरकार भी गिरा सकते हैं तो क्या उन्हें दो चार और विभाग नहीं मिल गए होते? यानी सत्ता में आने के बाद भी सिद्धांत और नीतिपरक राजनीति चलाने की कोशिश करने वालों की पहली हार 1968 की जनवरी में बिहार में हुई थी.

हालांकि लोहिया ने जब मिली जुली सरकारों की कल्पना की थी तो उनका उद्दे’य सत्ता पर से कांग्रेस के एकाधिकार को तोड़ना था. वे कहते थे कि कांग्रेस का सत्ता पर एकाधिकार हो गया है. वह मदमस्त हो गई. इसी से भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है.

चूंकि अकेले कोई दल कांग्रेस को हरा नहीं सकता, इसलिए सबको मिलकर उसे हराना चाहिए और मिल जुलकर ऐसी अच्छी सरकार चलानी चाहिए जिससे जनता कांग्रेस को भूल जाए. इस तर्क से जनसंघ और कम्युनिस्ट सहित कई दल सहमत होकर मिली जुली सरकार में शामिल हुए थे.

 

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