जन्मदिन विशेष: वो ‘एकनाथ’ था, फॉरवर्ड शॉर्ट लेग का

जिस दौर में हम लोग युवा हो रहे थे, उस वक्त हमारे सामने कई भारतीय खिलाड़ी थे जो हमारे नायक थे. भारत की शानदार स्पिनर चौकड़ी थी, जो दुनिया के बड़े-बड़े बल्लेबाजों का औसत खराब कर सकती थी. बल्लेबाजी में भी गुंडप्पा विश्वनाथ और सुनील गावस्कर जैसे नौजवान बल्लेबाज उभर रहे थे, जो एक नए जमाने के आगाज की घोषणा कर रहे थे.

इनके पहले भी बहुत शानदार बल्लेबाज भारत की ओर से खेले थे. लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि इसके पहले भारत में सिर्फ दो बल्लेबाज, विजय मर्चेंट और विजय हजारे थे, जिनका बल्लेबाजी का औसत चालीस के ऊपर था.

सन सत्तर के बाद कोई भी बल्लेबाज भारतीय टीम में लंबे वक्त तक टिकने की नहीं सोच सकता था, जिसका औसत कम से कम चालीस न हो. लेकिन इस दौर में जो खिलाड़ी हमारा सबसे बड़ा हीरो था, वह अपनी बल्लेबाजी या गेंदबाजी की वजह से नहीं, बल्कि अपने क्षेत्ररक्षण की वजह से हमारे दिलों पर राज कर रहा था.

बैटिंग, बॉलिंग नहीं, फील्डिंग से चर्चा में आए थे सोलकर

एकनाथ धोंडु सोलकर. जहां तक मुझे याद पड़ता है, जोंटी रोड्स के पहले एक ऐसे खिलाड़ी थे, जिनकी चर्चा बल्लेबाजी या गेंदबाजी के बजाय, क्षेत्ररक्षण के लिए होती थी. जिन्होंने फील्डिंग को एक स्वतंत्र कला की ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया था. एक बड़ा खिलाड़ी अपने खेल को आत्माभिव्यक्ति का साधन बना देता है. उसके खेल में हम उसके समूचे व्यक्तित्व के तमाम रंगों और छटाओं का इंद्रधनुष देख सकते हैं.

जोंटी रोड्स की फील्डिंग में जो उल्लास की लय दिखाई पड़ती है, वह उनकी मैदान में उपस्थिति को देखने लायक बना देती थी. सोलकर की फील्डिंग में भी वही असंभव को सिद्ध करने की बेचैनी और ऊर्जा दिखाई देती थी, जो हर प्रतिद्वंद्वी बल्लेबाज की जान को सांसत में डाले रहती थी.

मैदान सबुकुछ बहुत तेज ड्रामे की तरह घटित हो रहा था और टीवी पर कमेंट्री कर रहे पूर्व क्रिकेटरों की भी समझ में नहीं आ रही था.श्रीलंका के खिलाड़ियों, अंपायरों समेत हर कोई बांग्लादेशी खिलाड़ियों को समझा रहा था लेकिन शाकिब समझने को तैयार नहीं दिख रहे थे.

मैदान पर मौजूद बल्लेबाज महमूदुल्ला अपने कप्तान के बार-बार इशारा करने पर मैदान से बाहर जाने के लिए कदम तो बढ़ा रहे थे लेकिन बाउंड्री से पहले जाकर ठिठक गए. शायद वह और उनकी टीम समझ गए थे कि मैदान से बाहर जाने पर मुकाबला श्रीलंका के नाम हो जाएगा और चार गेंदों में 12 रन बनाकर यह मैच जीतने जो हल्की सी गुंजाइश है वो भी खत्म हो जाएगी. बांग्लादेशी बल्लेबाज वापस लौटे औप महमूदुल्ला ने महज तीन गेदों पर ही 12 रन बनाकर अपनी टीम को फाइनल में पहुंचा दिया.

सोलकर लोग साइड पर बिल्कुल पिच के किनारे इतनी दूरी पर खड़े रहते थे कि वहीं से बल्लेबाज से हाथ मिला लें. बल्लेबाज को नहीं पता होता था कि जिसे वह सुरक्षित रक्षात्मक शॉट समझ रहा है या जो जबरदस्त पुल कर रह है उसे कब सोलकर कैच बना लें.

सोलकर के यादगार कैच

रामचंद्र गुहा ने सोलकर के एक कैच का वर्णन किया है कि एक टेस्ट मैच में सोलकर शॉर्ट स्क्वायर लेग पर खड़े थे. बल्लेबाज ने पुल करने के लिए जोरदार बल्ला घुमाया. ऐसे में लेग पर पास खड़े फील्डर की आम प्रतिक्रिया चोट से बचने के लिए घूम जाने की होती है. बल्कि यह स्वाभाविक जैविक प्रतिक्रिया है. गुहा लिखते हैं कि इसके विपरीत सोलकर आगे की ओर लपके और मिसहिट की वजह से उठे हुए कैच को पकड़ लिया. खास बात यह है कि उस दौर में हेल्मेट, शिन गार्ड वगैरा कुछ नहीं होता था.

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सोलकर के कई कैच इस तरह से किंवदंतियों का हिस्सा बन चुके थे. भारत की इंग्लैंड में 1971 की ऐतिहासिक जीत के बाद एक पत्रिका ने विशेषांक निकाला. सोलकर के कैचों की तस्वीरों को दो पन्नों के ऊपरी हिस्से में विशेष रूप से प्रदर्शित किया. बेशक उस जीत में भगवत चंद्रशेखर और बिशन सिंह बेदी की गेंदबाजी जितना ही योगदान सोलकर का भी था. बल्कि कई विकेटों के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे जितनी गेंदबाज की थीं, उतनी ही सोलकर की भी थीं.

सोलकर से खौफ खाते थे बल्लेबाज

इसके अलावा सोलकर की अपने बगल में मौजूदगी ही बल्लेबाज के दिल में दहशत भर देती थी. वह भी उसे अपना स्वाभाविक खेल नहीं खेलने देती थी. क्रिकेट इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण देखने में नहीं आया, जब किसी एक खिलाड़ी की फील्डिंग को किसी टीम के सीरीज जीतने में इतना महत्वपूर्ण माना गया हो. बिशन सिंह बेदी ने कहा भी है कि सोलकर के बिना हम उतने प्रभावी गेंदबाज़ नहीं हो सकते थे.

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सोलकर ने इसके पहले वेस्ट इंडीज में सीरीज जीतने में भी बड़ी भूमिका निभाई थी. वे आला दर्जे के बाएं हाथ के स्पिनर थे. लेकिन बेदी के रहते टेस्ट टीम में स्पिन बॉलिंग का मौका उन्हें नहीं मिला. वह ठीक ठाक मध्यमगति गेंदबाज थे और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में सारे विकेट उन्हें इसी से मिले.

वह निचले क्रम के जुझारू बल्लेबाज थे और कई बार उन्होंने ढहती हुई पारी को संभाला था. इसी वजह से वह पहले भारतीय खिलाड़ी थे जिन्हें ‘मिस्टर डिपेंडेबल’ का तमगा मिला था. उनकी असामयिक मौत सन 2005 में हो गई, जब वे साठ बरस के भी नहीं हुए थे. उनकी मृत्यु पर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया में जो कुछ आया, उसमें यह जरूर कहा गया कि शायद वह शॉर्ट लेग पर दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फील्डर थे.

आंकड़ों के हिसाब से वे क्रिकेट इतिहास के सबसे सफल फील्डर थे. उन्होंने सिर्फ   27 टेस्ट मैचों में 56 कैच पकड़े. उनके पहले और उनके बाद किसी ने शॉर्ट लेग पर ऐसी छाप नहीं छोड़ी.

शॉर्ट लेग पर फील्डिंग करना बहुत खतरनाक माना जाता है. इसीलिए कोई इसे अपनी विशेषज्ञता नहीं बनाता. अमूमन टीम के सबसे जूनियर खिलाड़ी को ही यहां खड़ा कर के बलि का बकरा बनाया जाता है. सोलकर ने अपने कौशल और साहस से इसे अपनी विशेषता बना लिया.

सोलकर बहुत गरीब परिवार से थे. उनके पिता ब्रेबॉर्न स्टेडियम पर मामूली ग्राउंड्समैन थे. उनका करियर बहुत लंबा नहीं था और निजी जीवन भी बहुत अच्छा नहीं रहा. शायद हम लोग कठिन परिस्थितियों से जूझ कर ऊपर आए प्रतिभाशाली लोगों को सहारा देना सीख नहीं पाए हैं.

 

 

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