डोल रहा है ट्रम्प का सिंहासन पर भारत क्यों हो रहा बेचैन

राजेश श्रीवास्तव

इस समय जब देश और दुनिया कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी से जूझ रही है तब आप कोई भी मीडिया चैनल उठा कर देख लें तो एकाध को छोड़कर सभी चीन को कोसते दिख्ोंगे। कमोवेश यह स्थिति भारत और अमेरिका दोनों की ही है दोनो ही देशों ने यह मुहिम चला रखी है। अमेरिका के सामने तो ट्रम्प का चुनावी साल है और उन्होंने तो तमाम साक्षात्कारों में यह बात स्वीकार भी कर ली है कि चीन उन्हें हरवा देगा, क्योंकि चीन उनके प्रतिपक्षी और डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार पूर्व राष्ट्रपति बाइडेन को जितवाना चाहता है। ट्रंप ने यह भी ऐलान कर दिया है कि अगर बाइडेन चुनाव जीते तो अमेरिका पर चीन का कब्जा हो जायेगा। यानि की ट्रप चीन को कोस कर अपनी जीत पक्की करना चाहते हैं। यही वजह है कि अमेरिका में 65 हजार के करीब मौतें हो जाने के बाद भी अभी तक सरकार इस पर कुछ खास करती नहीं दिख रही है वह जानती है कि जितना कोरोना बढे्गा और चीन के प्रति लोगों में नाराजगी बढ़ेगी उतना ही फायदा उनको मिलेगा क्योकि लोग चीन के पसंदीदा उम्मीदवार बाइडेन को वोट नहीं करेंगे।
मज़े की बात यह भी रही कि ट्रम्प ने भारत से भी उसके सुर में सुर मिलाने को कहा था। लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने साफ़ मना कर दिया। अलबत्ता, ट्रम्प जैसी दुर्दशा कल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ना हो जाए, इसे देखते हुए भारतीय मीडिया और बीजेपी के आईटी सेल ने चीन का चरित्रहनन करने में अपनी ताक़त वैसे ही झोंक दी है, जैसा राहुल गाँधी और नेहरू के मामले में वह अक्सर करती दिखती है। हालाँकि, यह भी तय है कि चीन कोई दूध का धुला नहीं है। चीन की सफाई पर दुनिया को यक़ीन नहीं हो रहा। वह वुहान की लैब से वायरस लीक होने के दावे को बार-बार मनगढ़न्त और झूठा बताता रहा है। वुहान की लैब में 15०० से ज़्यादा वायरस मौजूद हैं जिन पर रिसर्च होते हैं। यह लैब फ़्रांस के ज़ोरदार सहयोग से बनी थी और इसमें अमेरिका भी फंडिग कर चुका है। लेकिन अभी चुनाव और हार को सिर पर मंडराता देख ट्रम्प ने चीन को अपना मुख्य प्रतिद्बन्द्बी बना लिया है। भारत में लोकसभा चुनाव काफ़ी दूर ज़रूर हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल और बिहार के चुनाव की आहट तो अब मिलने लगी है। बीजेपी को पूरे देश के कोरोना के प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पीड़ितों की वैसी परवाह नहीं है, जैसी बंगालियों की है। कहना सही होगा कि बंगालियों को लेकर उसका मन मचलने लगा है। 55 फ़ीसदी अमेरिकी जनता ने ट्रम्प को कोरोना वायरस से निपटने में नाकाम करार दिया है। अब ट्रम्प चुनाव जीतने के लिए चीन को अमेरिका का दुश्मन नम्बर वन बनाकर पेश कर रहे हैं, यह वैसा ही है जैसे भारत में चुनाव के वक़्त पाकिस्तान का राग अलापा जाता है। भारत में कोरोना से निपटने को लेकर हुई तमाम शुरुआती लापरवाहियों के बावजूद नरेन्द्र मोदी को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री बताया जाता है, जबकि इन्हीं लापरवाहियों के आधार पर ट्रम्प को अमेरिकी जनता कोरोना आपदा से निपटने में नाकाम करार देती है।
भारत में भी मोदी को प्रवासी मज़दूरों और दिहाड़ी कामगारों की नाराज़गी का आभास तो काफ़ी पहले हो चुका था, उन्होंने माफ़ी माँगने का ढोंग भी किया, लेकिन हालात से निपटने के लिए अब जाकर अपने क़दम आगे बढ़ाये हैं, जब पानी सिर से ऊपर बहने लगा है। अब उन्होंने ट्रेने भी चलायीं मजदूरों को उनके घरों पर भ्ोजा जा रहा है। यही काम पहले हो गया होता तो लाखों मजदूर पैदल चल कर इधर-उधर न घूम रहे होते । लेकिन ऐसा नहीं कि भारत ने प्रयास नहीं किया जिस तरह इतनी बड़ी आबादी वाले देश में अब तीन-तीन बार लॉक डाउन बढ़ाया जा रहा है लेकिन गृह मंत्रालय और राज्यों में जिस तरह सामंजस्य का अभाव दिख रहा है वह उचित नहीं दिखता। कल गृह मंत्रालय ने जिन रियायतों का ऐलान किया दिल्ली समेत कई राज्यों ने उन रियायतों से इंकार कर दिया। गृह मंत्रालय को समझना होगा कि भारत में जो कोरोना पाजिटिव दिख रहे हैं वह असली संख्या नहीं है। असली संख्या इसकी कई गुना मौजूद है। लेकिन सीमित जांच के अभाव में मरीज सामने नहीं आ रहे हैं। शायद यही कारण है कि सरकारें बेडों और अस्पतालों की संख्या रोज-बरोज बढ़ा रही हैं। सरकार को कोई ऐसी नीति बनानी होगी कि काम भी होते रहें और सोशल डिस्टेंसिंग भी बनी रहे। लेकिन अपने देश में ऐसा सिस्टम नहीं है अभी जब सिर्फ सचिवालय खुले हैं तब बड़ी संख्या में सुबह चौराहें पर जाम दिख जाता है। जब सारे कार्यालय खुलेंगे तब की स्थिति भयावह हो सकती है।
वैसे तो सारी दुनिया में जनता की नब्ज़ को भाँपने के लिए अनेक सर्वेक्षण होते हैं, लेकिन अमेरिकी सर्वेक्षणों की प्रतिष्ठा ख़ासी बेहतर समझी जाती है। क्योंकि इनसे सच का आभास होता है। जबकि भारत में सर्वेक्षणों की आड़ में तरह-तरह के ‘खेल’ खेले जाते हैं। तभी तो चुनावी साल में ट्रम्प को अमेरिकी जनता की नाराज़गी का आभास काफ़ी वक़्त से हो रहा था। तभी वह अपनी नाकामियों का ठीकरा लगातार चीन और विश्व स्वास्थ्य संगठन पर फोड़ते रहे हैं। इसी तर्ज पर भारत ने भी अमेरिकी सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया है। लेकिन भारत को अपनी अलग रणनीति बनानी होगी क्योंकि अमेरिका और भारत की स्थितियों में अंतर है। हमें चीन से निपटना भी है और उसकी और से दी जा रही व्यापारिक चुनौती को दरकिनार भी करना है। क्योंकि चीन को पछाड़ना अभी भारत की पहली प्राथमिकता में नहीं, पहली प्राथमिकता तो अपनी आर्थिक गतिविधियों को बनाये रखना और विकास दर को बनाये रखना है। भारत को यह भी विचार करना होगा कि अमेरिका जैसा देश किसी का नहीं है। खासकर ट्रम्प वह सिर्फ अपने और अपने हितों को ही सर्वोपरि रखता है। ऐसे में भारत को यह भी विचार करना चाहिए कि चीन से 56 कंपनियों ने कारोबार समेटा लेकिन भारत में सिर्फ तीन ही क्यों आयीं।

 

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