न्याय देने वाली अदालतों में ही नहीं हैं एंटी सेक्सुअल हैरेसमेंट कमेटियां

माशा, वरिष्ठ पत्रकार

सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के जजों से कहा है कि वे अपनी-अपनी अदालतों में दो महीने के अंदर एंटी सेक्सुअल हैरेसमेंट कमेटियां बनाएं. दिल्ली हाई कोर्ट से तो इस तरफ और तेजी दिखाने को कहा है. उससे कहा गया है कि वह अपने यहां और एनसीआर के सभी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट्स में एक हफ्ते के अंदर ऐसी कमेटियां बनाएं.

मतलब, अदालतों में भी सेक्सुअल हैरेसमेंट से डील करने वाली कमेटियां नहीं हैं. बाकियों की तो पूछा ही क्या जाए. यूं तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला खुशियों भरा है. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने यह फैसला उस महिला वकील की याचिका पर दिया है जिसने दिल्ली बार एसोसिएशन के वकीलों के खिलाफ असॉल्ट का आरोप लगाया था. उस वकील के साथ तीस हजारी में कुछ पुरुष वकीलों ने बदसलूकी की थी. अब लगे हाथ यह भी बता दिया जाए कि कार्यस्थल पर महिला यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 में काम करने वाली सभी जगहों से ऐसी कमेटियां बनाने की उम्मीद की जाती है. यह इंटरनल कंप्लेन कमिटी यौन उत्पीड़न के सभी मामलों की सुनवाई करती है. औरतों के उत्पीड़न को रोकने वाला यह कानून उन सभी जगहों पर लागू होता है, जहां दस से ज्यादा लोग काम करते हैं. जहां दस से कम लोग काम करते हैं, वहां जिला अधिकारियों को खुद ऐसी लोकल कमिटी बनानी होती है.

सेक्सुअल हैरेसमेंट से कौन वाकिफ नहीं, यह हर दौर का सच है लेकिन हम सिर्फ जुलूस निकालकर शांत बैठ जाते हैं. उस जुलूस में हर कोई शामिल होता है हैरेसमेंट करने वाला भी, हैरेसमेंट का शिकार होने वाला भी. एक साथ नारे लगाते हैं, फिर अपने-अपने काम पर लग जाते हैं. तभी 46% भारतीय कंपनियां इस कानून का पालन ठीक तरह से नहीं करतीं तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता. फिक्की और अर्नेस्ट एंड यंग का सर्वे यह डेटा देता है.

एक और डेटा ऐसे ही हैरान करने वाले आंकड़ें पेश करता है. पिछले साल इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन (आईएनबीआर) ने 6,000 से ज्यादा लोगों के साथ एक सर्वे किया जिसमें पता चला कि 38% औरतों को काम करने वाली जगहों पर सेक्सुअल हैरेसमेंट का सामना करना पड़ता है. उनमें से 68.09% इसके खिलाफ शिकायत नहीं करतीं क्योंकि वह डरती, घबराती या शर्माती हैं. इसके अलावा सर्वे में शामिल सभी लोगों में से 65.2% ने साफ माना था कि उनकी कंपनी इस कानून का कतई पालन नहीं करती. 46.7% ने कहा कि इंटरनल कंप्लेन्स कमेटी के सदस्य खुद नहीं जानते कि इस कानून के लीगल प्रोविज़न क्या हैं.

इस कानून का इतिहास भी जान लें. इस कानून के बनने से पहले 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा गाइडलाइन्स दी थीं. इस गाइडलाइन्स में काम करने वाली जगहों पर सेक्सुअल हैरेसमेंट की परिभाषा दी गई थी. राजस्थान की राजधानी जयपुर के पास भटेरी गांव में भंवरी देवी ने बाल विवाह विरोधी अभियान चलाया. वह राजस्थान सरकार के महिला विकास प्रॉजेक्ट में साथिन के तौर पर काम करती थीं. लेकिन इस काम के बदले उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. 1992 में उनके साथ बलात्कार किया गया. उनके मामले में कानूनी फैसला आने के बाद विशाखा और दूसरे महिला गुटों ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी. इस याचिका में कोर्ट से कहा गया कि कामकाजी महिलाओं के बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित कराने के लिए संविधान की धारा 14, 19 और 21 के तहत कानूनी प्रावधान किए जाएं. तब कोर्ट ने विशाखा गाइडलाइन्स जारी की. इन्हीं विशाखा गाइडलाइन्स ने यौन उत्पीड़न की रोकथाम पर कानून के लिए बेस का काम किया. लेकिन कानून बनाने भर से क्या? हम बहुत से कानूनों का पालन नहीं करते, अपने काम करने के तरीके बदल लेते हैं.

भारत में बहुत से इस्टैबलिशमेंट्स इनफॉर्मल तरीके से काम करते हैं. मालिक दफ्तर का हिस्सा होता है. कहता फिरता है- हम सब परिवार हैं. परिवार में भला ऐसा कैसे हो सकता है. तो परिवार में शिकायत किसकी? शिकायत किससे? आपस में मामला सुलझा लिया जाएगा. सेटेलमेंट हो जाएगा. हर बात पर इतना शोर-शराबा करने की क्या जरूरत है? दोनों पक्षों की सुनी जाए. बेशक, ऐसे मामले में दो पक्ष होते हैं पर दोनों में कोई बराबरी नहीं होती. एक असॉल्ट करने वाला होता है, दूसरा असॉल्ट सहने वाला. उत्पीड़क और पीड़ित कब एक दूसरे के बराबर होते हैं?

इंटरनल कंप्लेन कमिटी लड़कियों के साथ कोई अच्छा सलूक नहीं करती. इसमें भी हमारे-आपके बीच के लोग होते हैं. हमारे बीच कितने ही लोग ऐसा मानते हैं कि लड़कियां अक्सर तिल का ताड़ बना लेती हैं. गलतफहमी की शिकार हो जाती हैं. इसीलिए आदमियों को ज्यादा सतर्क रहना चाहिए. अगर उन्होंने कुछ ऐसा कर दिया जो हैरेसमेंट की परिभाषा में फिट होता है तो उनकी नौकरी जा सकती है. अब अच्छी नौकरियां मिलती ही कहां हैं. इसीलिए हैरेसमेंट की सजा से बचने के बहुत से तरीके हैं. इसी रवैये का शिकार हमारे राजनेता भी होते हैं. तीन साल पहले महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने सभी कंपनियों के लिए यह जरूरी करना चाहा था कि वे अपनी कंप्लेन कमेटियों का खुलासा करें.  तब वित्त और कॉरपोरेट मामलों के मंत्री अरुण जेटली ने कहा था- हमें कंपनियों को क्यों परेशान करना चाहिए? उस समय उनके मंत्रालय के अधिकारियों ने भी कहा कि बहुत सी कंपनियां ऐसी कमिटी इसलिए बनाना नहीं चाहतीं क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे औरतें सिरदर्दी बढ़ा देंगी.

एक बात और. कामकाजी औरतों और काम करने की जगह, इसका दायरा अनौपचारिक क्षेत्र तक जाना चाहिए पर वह जाता नहीं. हमारे देश में 90% कामकाजी औरतें इसी क्षेत्र से जुड़ी हैं. इनके लिए लोकल कमेटी बनाने का प्रावधान है जिसमें नोडल ऑफिसर की नियुक्ति जिला अधिकारी द्वारा की जाएगी. पर कई राज्य सरकारों ने जिलों में जिला अधिकारी की ही नियुक्ति नहीं की है. इसमें एक प्रोविजन यह है कि कंप्लेन करने वाली महिला को लिखित में शिकायत करनी होगी. जिस देश में ग्रामीण क्षेत्रों में महिला साक्षरता 56% है, वहां यह कर पाना भी जरा मुश्किल काम है. कुल मिलाकर, बिना किसी स्टडी के, बिना किसी डंडे के, कानून बनाकर हम फ्री हो गए हैं.

सच का अभ्यास करने वाले जानते हैं कि हर जुर्म का इन्साफ होना चाहिए और अपराध करने वाले को सजा से नहीं बचना चाहिए. हैरेसमेंट करने वाले के लिए यह कहना आसान है कि मेरा कोई ईरादा नहीं था  लेकिन वह जानता है कि यह कहना सीनाजोरी है. तो सीनाजोरी मत कीजिए. सेक्सुअल हैरेसमेंट एक मॉरल नहीं लीगल ईश्यू है  और सिर्फ एक अपराध नहीं संवैधानिक आधिकार का उल्लंधन है

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

 

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