मर्मस्पर्शी भावों को अनाथ कर गए केदारनाथ

ओम थानवी
केदारनाथ सिंह नहीं रहे। बनारस के घाट सहसा सूने हो गए। जेएनयू की हलचल थम गई। घड़ी भर को मानो हिंदी ने साँस रोक ली। कल प्रेमलताजी के साथ मैं एम्स होकर आया था। केदारजी अचेत थे। आज उनके बेटे सुनील ने सुबह फ़ोन कर बताया कि उम्मीद छीजती जा रही है।

केदारजी की के काव्य और उनके गद्य ने हिंदी को अलग गरिमा दी। मुझ पर उनकी निजी कृपा रही। हमने (और दिवंगत के बिक्रम सिंह ने , जिन्होंने उन पर फ़िल्म बनाई थी) उनके साथ अनगिनत शामें बिताईं। कई बार नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, विजय मोहन सिंह, गंगाप्रसाद विमल, उपेन्द्र कुमार आदि के साथ। केदारजी के साथ विजयदान देथा को देखने बोरूँदा गया। अरुण माहेश्वरी भी साथ थे। केदारजी को अपने बीकानेर ले गया। मेरे पिताजी से उनका अजब याराना था। बिक्रमजी के साथ वे हमारे क़स्बे फलोदी गए। उनके और मेरे बीच एक कड़ी अज्ञेय भी थे। वे मार्क्सवादी होकर भी अज्ञेय के मुरीद थे और खुले में कहते थे कि तीसरा सप्तक में अज्ञेय का बुलावा उनकी काव्य-यात्रा में बुनियादी मोड़ था।

आज दिन में मैंने एक कविता बार-बार उनकी याद आने पर पोस्ट की। पर एक कविता अपने साथी पत्रकार प्रदीप पांडेय को सुनाई। उसे तब पोस्ट नहीं कर सकता था। नम आँखों के साथ अब करता हूँ …
जाऊंगा कहाँ
> केदारनाथ सिंह
जाऊंगा कहाँ
रहूँगा यहीं
किसी किवाड़ पर
हाथ के निशान की तरह
पड़ा रहूँगा

किसी पुराने ताखे
या सन्दूक की गंध में
छिपा रहूँगा मैं
दबा रहूँगा किसी रजिस्टर में
अपने स्थायी पते के
अक्षरों के नीचे
या बन सका
तो ऊंची ढलानों पर
नमक ढोते खच्चरों की
घंटी बन जाऊंगा
या फिर माँझी के पुल की
कोई कील

जाऊंगा कहाँ
देखना
रहेगा सब जस का तस
सिर्फ मेरी दिनचर्या बदल जाएगी
साँझ को जब लौटेंगे पक्षी
लौट आऊँगा मैं भी
सुबह जब उड़ेंगे
उड़ जाऊंगा उनके संग …

(वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के फेसबुक वॉल से )

 

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