मोदी या सिस्टम, किसे बदलें?

पी. के. खुराना

मैंने कोई तीर नहीं मारा था, यह सामान्य ज्ञान की बात थी। बैंक घोटाला सामने आते ही मैंने कहा था कि यह संभव ही नहीं है कि ऐसा सिर्फ किसी एक बैंक के साथ हुआ हो और यह सिर्फ एक व्यक्ति या एक परिवार तक सीमित हो। देश के सिर्फ कुछ सर्वाधिक अमीर व्यावसायिक घरानों के कर्ज़ का इतिहास देखें तो समझ आ जाएगा कि यह घोटाला कुछ हज़ार करोड़ का नहीं, बल्कि लाखों करोड़ का है और देश का सबसे बड़ा घोटाला है। हालात इतने खराब हैं कि खुद पंजाब नैशनल बैंक ही डिफाल्टरों की श्रेणी में शुमार हो सकता था, और अगर ऐसा हो गया होता तो भारतीय बैंकिंग के इतिहास का यह पहला उदाहरण होता कि एक सरकारी बैंक ही डिफाल्टर हो जाए।

दरअसल पंजाब नैशनल बैंक ने यूनियन बैंक आफ इंडिया को एलओयू जारी करके लगभग 1000 करोड़ का कर्ज़ दिलवाया था। पंजाब नैशनल बैंक को यह कर्ज़ अब 31 मार्च तक वापिस अदा करना था और ऐसा न कर पाने की स्थिति में यूनियन बैंक आफ इंडिया, पंजाब नैशनल बैंक को डिफाल्टर घोषित कर सकता था। दोनों बैंक सरकारी हैं इसलिए यूनियन बैंक आफ इंडिया, पंजाब नैशनल बैंक को डिफाल्टर घोषित करने की जल्दी में नहीं था इसके अलावा पंजाब नैशनल बैंक भी आधिकारिक तौर पर यह घोषणा कर चुका है कि वह अपनी देनदारियों का सम्मान करेगा और हर एलओयू की रकम समय पर चुकायेगा, लेकिन ऐसा करने के लिए उसके पास पैसा कहां से आयेगा।

निश्चय ही या तो वह अपने खातेदारों से यह रकम वसूलेगा या फिर रिज़र्व बैंक और सरकार, पंजाब नैशनल बैंक में अरबों रुपये के नये धन का निवेश करेंगे। ऐसा पहले भी होता आया है और अब भी हो सकता है। परिणाम क्या होगा? विपक्ष को सरकार की आलोचना का एक और मुद्दा मिल जाएगा; सरकार, विपक्ष को भ्रष्ट और नकारा साबित करने के लिए उसकी पुरानी कारगुज़ारी के बाल की खाल निकालेगी, और जनता पर कुछ और नये टैक्स लग जाएंगे।

घाटे के सरकारी उपक्रम
सरकारी संस्थाओं में हर जगह यही हाल है। जरूरत से अधिक स्टाफ, अनाप-शनाप खर्चे, निकम्मापन, भ्रष्टाचार आदि के कारण सरकारी संस्थान खोखले हो चुके हैं लेकिन सरकार हर बार इनमें कुछ और निवेश करके जनता में उनके ठीक होने का भ्रम बनाए रखती है। अभी एयर इंडिया अपने घाटे को लेकर खबरों में है। सरकार ने 1948 में इसमें 49 प्रतिशत का निवेश किया था और सन् 1953 में इसका राष्ट्रीयकरण हो गया। तब से ही “महाराजा” की हालत खराब होनी शुरू हो गई और अब यह आईसीयू में है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि 2016-17 के पब्लिक एंटरप्राइज़ सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार बीएसएनएल उससे भी ज़्यादा घाटे में है।

सार्वजनिक क्षेत्र के सर्वाधिक घाटे वाले संस्थानों में बीएसएनएल और एयर इंडिया के बाद महानगर टेलिफोन निगम लिमिटेड, हिंदुस्तान फोटो फिल्म्स मैन्युफैक्चरिंग कंपनी लिमिटेड, स्टील अथारिटी आफ इंडिया लिमिटेड, राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड, वैस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड, अब बंद हो चुकी बंगलूरू स्थित स्पाइस ट्रेडिंग कार्पोरेशन लिमिटेड, सन् 2008 में जिसे एसटीसीएल का नया नाम दिया गया, बह्मपुत्र क्रैकर्स एंड पौलिमर लिमिटेड तथा एयर इंडिया इंजीनियरिंग सर्विसिज़ लिमिटेड देश की सर्वाधिक घाटे वाली कंपनियां हैं।

व्यापार, सरकार का काम नहीं है। सरकार को व्यापार में नहीं होना चाहिए। कभी यह देश की आवश्यकता रही होगी, अब यह जनता को ऐसे जुर्म की सजा है जो जनता ने कभी किया ही नहीं। कल्पना कीजिए कि यदि घाटे वाले ये सभी सरकारी संस्थान बंद हो जाएं तो इससे बचने वाला धन ही देश के विकास को नई ऊंचाइयों तक ले जा सकता है। इन्फ्रास्ट्रक्चर, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा क्षेत्र में इस धन के निवेश से ही देश की किस्मत बदल सकती है।

मोदी और वादे
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सन् 2014 का लोकसभा चुनाव “मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नैंस” के नारे के साथ जीता था। लेकिन आज स्थिति बिलकुल उलटी है। वे मैक्सिमम गवर्नमेंट के सिद्धांत पर चल रहे हैं। वे आम जनता के जीवन और अधिकारों में अत्यधिक हस्तक्षेप कर रहे हैं। व्यावहारिक रूप से उन्होंने संविधान की सारी शक्तियां हड़प ली हैं।

यह सही है कि 2014 के चुनावों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की पूरी मशीनरी ने मोदी का साथ दिया, लेकिन अगर “विज़न” और “प्रभाव” की बात करें तो यह अकेले मोदी की ही छवि थी जिसके दम पर भाजपा ने लोकसभा चुनाव जीता था और मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। यह अलग बात है कि संघ और भाजपा के अलावा भी उनके साथ पृष्ठभूमि में काम करने वाले बहुत से लोग थे जिन्होंने न केवल उनकी रणनीति को आकार दिया बल्कि नीतिगत निर्णयों में भी उन्हें शिक्षित किया। मोदी ने उन सब लोगों की मेहनत और काबलियत का लाभ उठाया और प्रधानमंत्री बनने के बाद धीरे-धीरे दरकिनार कर दिया। मोदी जानते हैं कि दोबारा चुनाव जीतने के लिए उन्हें अंबानी और अदानी के धन की आवश्यकता तो पड़ेगी पर सत्ता में होने के कारण चापलूस विद्वानों का जमावड़ा उन्हें यूं भी मिल जाएगा, जो अपने निहित स्वार्थों की खातिर उनके लिए हर काम करने को तैयार होंगे।

पिछले लोकसभा चुनाव में नीतिगत कारणों से जिन लोगों ने मोदी का साथ दिया था, वे उनसे नैतिक आचरण की उम्मीद करते थे और चाहते थे कि देश में वास्तविक लोकतंत्र हो, सरकार सच्चे अर्थों में जनकल्याण के नियम बनाए और सिर्फ वोट बैंक के विकास के लिए ही काम न करे। उन चुनावों में मोदी ने तकनीक और सोशल मीडिया के जादू को समझ लिया था। बाद में उन्होंने इसे एक हथियार बना लिया और भाजपा के आईटी सैल को झूठ की फैक्ट्री में बदल दिया जो हर रोज़ उनकी महिमा मंडन तथा विरोधियों का मज़ाक उड़ाने के लिए नये-नये झूठ गढ़ने लगी।

मोदी ने बहुत से नारे दिये, लेकिन उन्हें जल्दी ही समझ आ गया कि नौकरशाही से लड़ना और घाटे के सरकारी उपक्रमों को बंद करना जनहित का कार्य तो हो सकता है, पर फिर अगला चुनाव जीतना तो दूर, राज्यों के विधानसभा चुनाव भी नहीं जीत पायेंगे। इसलिए जिस प्रकार राजनीति को “साफ” करने का नारा देकर राजनीति में आये अरविंद केजरीवाल बड़ी बेशर्मी से व्यवस्था का हिस्सा बन गए, वैसे ही प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी शक्तियों के लालच में नैतिक पतन की पराकाष्ठा पर पहुंच गए।

केंद्र की सत्ता में आने से पहले मोदी ने यह स्वीकार किया था कि वे घाटे के सरकारी उपक्रमों को बंद करेंगे ताकि विकास कार्यों में उस धन का उपयोग करके देश को समृद्ध बनाया जा सके। इसी तरह “मिनिमम गवर्नमेंट” के फलसफे का अर्थ था कि जनता को संपत्ति का अधिकार सौंपा जाए तथा उनके सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप न हो, अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली की तर्ज पर राज्यों को पूरे अधिकार दिये जाएं, केंद्र पर उनकी निर्भरता समाप्त की जाए तथा स्थानीय निकायों को मजबूत बनाया जाए, पर बाद में वे इससे सिर्फ मुकर ही नहीं गए बल्कि मोदी राज में बिलकुल उलटा काम हुआ।

नोटबंदी का ऐलान संपत्ति के अधिकार के एकदम उलट था, गोरक्षा को हिंसा से जोड़ दिया गया और संस्कृति के नाम पर युवाओं को परेशान किया गया। अंबानी और अदानी को लाभ पहुंचाने में मोदी की संलिप्तता कोई रहस्य नहीं है। अलीबाबा के स्वामित्व वाली कंपनी पेटीएम को नाम लेकर प्रमोट किया गया। इन सब से बढ़कर, मोदी ने चुनाव जीतने के लिए और सारी शक्तियां हड़पने के लिए बहुत से अनैतिक तरीके अपनाये। लेकिन अकेले मोदी को ही दोष क्यों दें? हमारे संविधान की व्यवस्थाएं ही ऐसी हैं कि अनैतिकता के बिना सत्ता में आना और सत्ता में रहना संभव ही नहीं है। वर्तमान संसदीय व्यवस्था इस दोष का मूल कारण है।

संसदीय व्यवस्था और खामियां
संसदीय व्यवस्था में सरकार के स्थायित्व के लिए लोकसभा में सत्तापक्ष का बहुमत आवश्यक है और अपनी आवश्यकता के कानून बनवाने के लिए दोनों सदनों, यानी लोकसभा और राज्यसभा में सत्तापक्ष का बहुमत आवश्यक है। राज्यसभा में सत्तापक्ष का बहुमत होने के लिए अधिकाधिक राज्यों में उसकी सरकार होना आवश्यक है। यही कारण है कि मोदी ने राज्यों के विधानसभा चुनावों में खुद शिरकत की, और हर नैतिक-अनैतिक हरबा अपनाया। पतन की पराकाष्ठा यह थी कि गुजरात के प्रतिष्ठापूर्ण विधानसभा चुनाव में तो उन्होंने पाकिस्तान को भी भारतीय राजनीति में दखल देने के अवसर पैदा कर दिया। विधायकों की खरीद-फरोख्त का दौर तो चला ही, विरोधियों पर चुन-चुन कर मुकद्दमे बनाए गए और देश के सबसे बड़े बहुमत के बावजूद दिल्ली की सरकार को काबू में रखने के लिए उपराज्यपाल का दुरुपयोग किया गया।

दिल्ली ही नहीं, पुड्डुचेरी में भी यह खेल बदस्तूर जारी है। डा. किरन बेदी की काबलियत पर सवाल न भी उठायें तो भी यह तो सच है ही कि पुड्डुचेरी में वे उपराज्यपाल होने के बावजूद मुख्यमंत्री की शक्तियां हड़पने में मशगूल हैं। केंद्र से वांछित फंड न मिलने पर अभी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने एनडीए से अलग होने की घोषणा की है। विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में यह कहानी आम है कि उन्हें केंद्र का सहयोग नहीं मिलता। यह तो छोटी बात है। केंद्र पर राज्यों की निर्भरता का हाल यह है कि जब पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन का राज था तब भी पंजाब की अर्थव्यवस्था इतनी खस्ताहाल थी कि सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने के लिए सरकार वृद्धाश्रमों और विधवा आश्रमों को गिरवी रखने पर विवश थी। इससे ज़्यादा शर्मनाक स्थिति और क्या हो सकती है?
जब सत्ता में बने रहने के लिए प्रधानमंत्री को हर जगह बहुमत की दरकार हो तो यह स्पष्ट है कि वह जनहित के कार्य करने के बजाए ऐसे लोक-लुभावन वायदे करेगा जिनसे वोट बैंक पक्का होता रहे। वोट बैंक के इसी लालच में मोदी ने घाटे में चल रहे किसी भी सरकारी संस्थान को बंद नहीं किया। इतना बड़ा बैंक घोटाला हो जाने के

बावजूद इनके निजीकरण का विचार भी नहीं किया जा रहा है। वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में अरुण शौरी को विनिमेश मंत्रालय दिया गया था लेकिन मोदी राज में विनिवेश को एकदम उपेक्षित कर दिया गया है।

संसदीय व्यवस्था की अन्य खामियों की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है। नियमानुसार सरकार के तीनों अंगों यानी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक दूसरे से स्वतंत्र होना चाहिए और सबका एक-दूसरे पर सीमित नियंत्रण होना चाहिए ताकि कोई एक अंग तानाशाह न बन जाए। संसदीय व्यवस्था में संसद की सर्वोच्चता की अवधारणा है लेकिन व्यावहारिक स्थिति इसके बिलकुल विपरीत है। सदन में बहुमत होने के कारण सिर्फ सत्तापक्ष द्वारा पेश किये गये बिल ही कानून बन पाते हैं, विपक्ष को आदरणीय तो अवश्य कहा जाता है लेकिन वह न कोई कानून बनवा सकता है न किसी कानून को रुकवा सकता है, यहां तक कि वह किसी कानून में कोई संशोधन भी नहीं करवा सकता। ऐसे में जनता का ध्यान खींचने के लिए और प्रासंगिक बने रहने के लिए विपक्ष सिर्फ शोर मचाता है, वाक-आउट करता है, उधम मचाता है और कार्यवाही में बाधा पहुंचाता है।

सत्तापक्ष में भी किसी सदस्य का कोई प्राइवेट बिल कभी पास नहीं होता, सिर्फ सरकार द्वारा पेश किये गए बिल ही पास होते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार कौन सा बिल लायेगी, इसका निर्णय भी प्रधानमंत्री और उनके एक-दो विश्वसनीय साथियों का गुट ही करता है। सरकार जब चाहे अध्यादेश लाकर मनमानी कर लेती है। क्या यह हैरानी की बात नहीं कि कानून बनाने में संसद के 90 प्रतिशत सदस्यों की कोई भूमिका नहीं है। यानी, विधायिका असल में विधायी काम नहीं करती, उसकी सारी शक्तियां सिर्फ दो-तीन लोगों के छोटे से गुट ने हड़प ली हैं।

सरकारी बिल के सदन में गिर जाने पर सरकार को इस्तीफा देना पड़ सकता है, लेकिन व्यवहार में यह भी एक मजाक ही है। सदन में मतदान के समय सभी दल ह्विप जारी करते हैं और मतदान से पहले ही पता होता है कि किसका मत किस ओर जाएगा। इससे सांसदों की भूमिका अर्थहीन हो जाती है, यही कारण है कि हमारे यहां कई अत्यंत महत्वूपर्ण बिल भी संसद में बिना किसी बहस के दो-दो, तीन-तीन मिनट के अंतर से पास हो जाते हैं। एक आम नागरिक मतदान के लिए पूर्णत: स्वतंत्र है लेकिन उसका चुना हुआ प्रतिनिधि अपनी मर्जी से वोट नहीं दे सकता, वह सिर्फ पिंजरे का तोता है।

सन् 1985 में बड़ा बहुमत मिलने पर अपने सांसदों को काबू में रखने के लिए राजीव गांधी ने दलबदल विरोधी कानून पास करवा कर राजनीतिक दलों के मुखिया को असीम शक्तियां दे दीं और राजनीतिक दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनकर रह गए। यह भूल पाना मुश्किल है कि इंदिरा गांधी ने अपनी गद्दी बचाने के लिए देश पर आपात्काल थोप दिया था। उन्होंने लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष करवा लिया था, राष्ट्रपति की शक्तियां शून्य कर दी थीं, और सदन में कोरम की शर्त खत्म करके यह कानून पास करवा लिया था कि यदि सदन में सिर्फ एक सदस्य ही मौजूद हो और वह किसी बिल के हक में वोट दे दे तो वह बिल पास मान लिया जाएगा। संविधान के साथ यह बलात्कार संसदीय व्यवस्था में ही संभव है। संविधान में पहले ही सौ से भी ज़्यादा संशोधन हो चुके हैं तो भी जब संविधान समीक्षा का सवाल उठता है तो शोर मचने लगता है। हम यह भूल जाते हैं कि जो संविधान अपनी ही रक्षा न कर सका, वह देश की रक्षा क्या करेगा।

संसदीय प्रणाली बनाम राष्ट्रपति प्रणाली
हमारे देश में यह भ्रम फैलाया गया है कि राष्ट्रपति प्रणाली में राष्ट्रपति तानाशाह हो जाता है जबकि सच इसके बिलकुल उलट है। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अब मोदी का उदाहरण हमारे सामने है। तीनों ने ही, संसद ही नहीं, मंत्रिपरिषद् की भी उपेक्षा की। मोदी का कोई मंत्री भी मोदी के सामने सिर उठाकर बात नहीं कर सकता। अमरीका के 200 साल के इतिहास में कोई राष्ट्रपति तानाशाह नहीं बन पाया जबकि भारत में गणतंत्र आने के 25 साल बाद ही आपात्काल के माध्यम से नागरिक अधिकार समाप्त कर दिये गए, संविधान में तानाशाही संशोधन कर दिये गए, समाचार माध्यमों पर सेंसर लगा दिया गया और संजय गांधी का आदेश संविधान से बड़ा हो गया। यूपीए के राज में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे लेकिन राज सोनिया गांधी का था और वे किसी के प्रति जवाबदेह नहीं थीं।

अमरीकी व्यवस्था में राज्य मजबूत हैं और अपने क्षेत्र में सर्वशक्तिमान हैं। राष्ट्रपति राज्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता, राज्य सरकार को भंग नहीं कर सकता। स्थानीय स्वशासन मजबूत होने के कारण रोज़मर्रा के कामों में नागरिकों को परेशानी नहीं झेलनी पड़ती और हमारे देश की व्यवस्था के विपरीत छोटे-छोटे कामों के लिए रिश्वत नहीं देनी पड़ती। स्थानीय स्वशासन मजबूत होने के कारण स्थानीय नेताओं के उभरने के अवसर बढ़ जाते हैं। वहां चुनाव के समय पार्टी के मुखिया टिकटें नहीं बांटते बल्कि जनप्रतिनिधियों के चुनाव में जनता की सीधी भूमिका होती है। संसद पर सरकार का नियंत्रण नहीं है, इसी प्रकार संसद में किसी भी दल का कोई बिल गिर जाए या कानून बन जाए, इससे सरकार के कार्यकाल पर कोई असर नहीं पड़ता। वहां हर बिल पर खूब बहस होती है, गुणात्मक बहस होती है और जनहित के बिल ही कानून बन पाते हैं।

हमारे देश में प्रचलित संसदीय व्यवस्था और हमारे संविधान के प्रावधान इस हद तक दूषित हैं कि इन्हें पूरी तरह बदले बिना देश की समस्याओं का इलाज संभव नहीं है। अभी समय है कि सरकार के तीनों अंगों की शक्तियों और सीमाओं का विस्तृत विवेचन हो, देश भर में उन पर बहस चले, कानूनविद् अपनी राय दें, जनता अपनी राय दे, जनप्रतिनिधि अपनी राय दें और फिर ऐसे संविधान की रचना की जाए जिसमें न केवल सरकार के तीनों अंगों की शक्तियां और सीमाएं स्पष्ट रूप से परिभाषित हों बल्कि सरकार का हर अंग, शेष दोनों अंगों पर कुछ नियंत्रण रख सके, ताकि कोई एक अंग भी भ्रष्ट या तानाशाह न बन सके। समाधान यह है कि हमारे वर्तमान संविधान की विशद समीक्षा हो और इसमें शामिल कमियों को दूर किया जाए।

आपातकाल के समय एक बार इंदिरा गांधी ने देश में राष्ट्रपति प्रणाली लागू करने की बात सोची थी, लेकिन फिर उन्होंने महसूस किया कि राष्ट्रपति प्रणाली में राष्ट्रपति के पास उतने अधिकार नहीं होते जितने संसदीय प्रणाली में एक निरंकुश प्रधानमंत्री के पास हो सकते हैं, अत: उन्होंने इस विचार को आगे नहीं बढ़ाया। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी राष्ट्रपति प्रणाली का समर्थन करते रहे हैं। एक समय राज्यसभा के सदस्य रहे भाजपा के राजीव प्रताप रूडी, जो अब केंद्र सरकार में मंत्री हैं, ने एक निजी बिल के माध्यम से देश में राष्ट्रपति प्रणाली लागू करने की वकालत की थी। तिरुअनंतपुरम से लोकसभा में सांसद शशि थरूर सदैव से राष्ट्रपति शासन प्रणाली के हामी रहे हैं।

सन् 2011 से ही वे यह कहते आ रहे हैं कि भारत जैसे विशाल देश के लिए जहां क्षेत्र, धर्म, संप्रदाय, भाषा आदि की बहुत सी विविधताएं हैं और जहां दो या तीन नहीं बल्कि दो हजार से भी ज्यादा राजनीतिक दल हैं, वहां संसदीय प्रणाली कभी भी आदर्श व्यवस्था नहीं हो सकती। शशि थरूर ने गत वर्ष लोकसभा के मानसून सत्र में स्थानीय निकायों में मेयर के सीधे चुनाव का बिल लोकसभा में पेश किया था। शशि थरूर का यह निजी बिल हमारी नगरपालिकाओं और नगर निगमों को अधिक अधिकार देकर समर्थ बनाने का एक सुलझा प्रयास था। यह उन्हें स्वायत्तता देने, खुद मुख्तार बनाने, राज्यों द्वारा उन्हें आवश्यक शक्तियां प्रदान करने तथा उनकी संरचना बदलने का बिल था। इसमें नगरपालिकाओं एवं नगर निगमों के मुखिया के सीधे चुनाव का प्रावधान था। इस बिल के उद्देश्य में कहा गया था कि सीधे चुना गया महापौर (मेयर) राजनीतिक, व्यावहारिक तथा आर्थिक रूप से स्वतंत्र होगा और इससे अपने शहर के मामलों में उनकी जिम्मेदारी और जवाबदेही दोनों स्थापित हो सकेंगी।

स्थानीय स्वशासन
स्वतंत्र और सशक्त स्थानीय स्वशासन लोकतंत्र की जीवन-रेखा है लेकिन “जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार” की अवधारणा के बावजूद हमारी राजनीतिक और प्रशासनिक प्रणाली ऐसी बन गई है कि इसमें आम आदमी की सहभागिता की कोई गुंजायश ही नहीं है। यही कारण है कि अक्सर हमारा वोट हमारी नाराज़गियों को प्रकट करता है। हम किसी अच्छी बात के पक्ष में मतदान के बजाए किसी गलती, उपेक्षा, निकम्मेपन, अनिर्णय अथवा नेताओं के भ्रष्ट आचरण के विरोध में मत देते हैं। केंद्र अपनी शक्तियां राज्यों को नहीं देना चाहता और राज्य अपनी शक्तियां स्थानीय निकायों को नहीं देना चाहता। हमारी शक्तिहीन नगरपालिकाएं एकदम पंगु हैं। लोकतंत्र की सफलता के लिए स्थानीय निकायों की मजबूती और गवर्नेंस में जनता की सहभागिता आवश्यक है। हमें “बनाना रिपब्लिक” इसीलिए कहा जाता है क्योंकि भारतीय शासन प्रणाली में इन दोनों तत्वों का नितांत अभाव है।

स्थानीय स्तर पर नेतृत्व की शक्तियां और जिम्मेदारियां पार्षदों, विधायकों तथा सांसदों और अधिकारियों के बीच उलझनपूर्ण ढंग से बिखरी हुई हैं। इस बिल का लक्ष्य उस बिखराव को समेटना, उलझनें दूर करना, शक्तियों का विकेंद्रीकरण और जवाबदेही बनाना था। हमारे शहरों में शक्तियों का बिखराव एक गंभीर समस्या है। शहरी स्वशासन के मामले में मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद, उपायुक्त, निगम आयुक्त, पार्षद और महापौर आदि की जिम्मेदारियां एक जैसी हैं जिससे बहुत उलझन होती है क्योंकि किसी एक व्यक्ति की जवाबदेही नहीं बन पाती।

लोकसभा में यह बिल गिर गया, लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि इस बिल का असली उद्देश्य यह था कि राष्ट्रपति प्रणाली के गुणों को स्थानीय स्तर पर लागू करके पहले उसे राज्य के स्तर तक और फिर धीरे-धीरे राष्ट्रीय स्तर तक ले जाया जा सके और लोगों की इस धारणा को निर्मूल सिद्ध किया जा सके कि राष्ट्रपति प्रणाली अच्छी शासन व्यवस्था नहीं है या कि इस प्रणाली से चुना गया राष्ट्रपति तानाशाह हो जाता है। यह एक निजी बिल था और इसका पास न होना इतनी साधारण घटना थी कि मीडिया जगत में किसी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि यह बिल देश में एक आमूल-चूल क्रांति की शुरुआत हो सकता था।

संविधान की समीक्षा
न्यायमूर्ति एम. एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता में संविधान की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग “नैशनल कमीशन टु रिव्यू दि वर्किंग ऑव दि कांस्टीट्यूशन” (एनसीआरडब्ल्यूसी) के गठन के समय अवधारणा यह थी कि इस आयोग की सिफारिशें संसदीय शासन प्रणाली तक ही सीमित नहीं रहेंगी बल्कि एक नये आदर्श संविधान की रूपरेखा देंगी, लेकिन विपक्ष ने संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ के नाम पर इतना शोर मचाया कि वेंकटचलैया आयोग को अपनी सिफारिशें संसदीय प्रणाली के भीतर रहकर ही देने के लिए कहना पड़ा। वह गलती अब दोहराई नहीं जानी चाहिए।

हल क्या हो ?
सच तो यह है कि यदि हमारे देश में अमरीकी पद्धति की राष्ट्रपति शासन प्रणाली होती तो मोदी शायद बहुत अच्छे राष्ट्रपति साबित होते। तब शायद बाकी सारे “काश” खत्म हो जाते, क्योंकि तब मोदी को सरकार गिरने की चिंता न होती, लोकसभा या राज्यसभा में सदस्यों की गिनती बढ़ाने की चिंता न होती, किसी जोशी या आडवाणी को साइडलाइन करने की जुगत न भिड़ानी पड़ती और उनका पूरा ध्यान सिर्फ अपने काम पर होता। पर काश, ऐसा हो पाता। काश, हमारे देशवासी अमरीकी प्रणाली का भी और गहराई से अध्ययन करते, काश विपक्ष अमरीकी प्रणाली के प्रति खुले मन से विचार को तैयार होता। काश, हमारा बुद्धिजीवी समाज राष्ट्रपति प्रणाली को लेकर व्याप्त पूर्वाग्रहों को दूर करने का काम करता। काश हमारे देश का मीडिया इतना शिक्षित होता कि वह इस आवश्यकता की गहराई पर ढंग से मनन कर पाता।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण इस बात की वकालत करता है कि हम कोई पूर्वाग्रह लेकर न चलें। ब्रेन-र्स्टामिंग अथवा विचार मंथन की कोई प्रक्रिया तभी सफल हो पाती है जब सभी उपलब्ध विकल्पों पर खुलकर विचार किया जाए। वैज्ञानिक प्रयोगों में अक्सर दो या दो से अधिक विचारों को मिलाने पर कोई नया आविष्कार संभव हो पाता है। संविधान की समीक्षा के समय हमें इसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अनुसरण करना होगा।

यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि संविधान की समीक्षा के समय कोई सीमा न हो, हम विश्व के हर संविधान की खामियों और खूबियों पर खुलकर विचार करें और फिर तय करें कि हमारा नया संविधान संसदीय प्रणाली का हो, राष्ट्रपति प्रणाली का हो, या मिश्रित प्रणाली से बनाया जाए। तभी हमारा लोकतंत्र सही अर्थों में लोक का तंत्र होगा। इसी में देश का भला है। आशा है कि हमारे देश का जागृत समाज इस दिशा में आगे बढ़ने की पहल करेगा। शुरुआत के लिए तो इतना ही काफी है कि इस विषय पर चर्चा हो, खुलकर चर्चा हो ताकि किसी तर्कसंगत और सर्वमान्य समाधान की दिशा में मजबूत कदम बढ़ाया जा सके। यदि हम देश बदलना चाहते हैं तो हमें किसी एक नेता या दल को बदलने की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम को बदलने की आवश्यकता है। हमें एक नयी दिशा की आवश्यकता है, बस उसी का इंतज़ार है !

लेखक पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे।

 

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