राहुल को ‘मिशन 2019’ से पहले राज्य विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनाव जीतने होंगे

नई दिल्ली। इससे पहले हमने कभी भी भारत के उत्तर पूर्व के चुनाव को लेकर इतनी उत्सुकता नहीं रही, जैसा कि पिछले हफ्ते देखने को मिली. हमेशा की तरह मैं शनिवार को भी सुबह करीब 5 बजे जाग गया था और देख कर अचंभित रह गया कि 7 बजे से पहले ही न्यूज चैनल अपने पैनलिस्टों के साथ त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के नतीजों के इंतजार में पूरी तरह तैयार बैठे थे. हमारे लिए एक राष्ट्र के तौर पर यह अच्छी निशानी है.

मुझे याद है कुछ साल पहले इंडिया टुडे पत्रिका में एक संपादकीय में इस बात को लेकर चिंता जताई गई थी कि भारत किस तरह उत्तर पूर्व की उपेक्षा करता है. इंडिया टुडे के उसी अंक में, जिसमें तकरीबन आठ विधानसभा चुनावों पर रिपोर्ट छपी थी, कवर पेज पर उत्तर भारत के सिर्फ पांच बड़े राज्यों का जिक्र था, और चुनाव वाले उत्तर पूर्वी राज्यों को छोड़ दिया गया था. अब यह रवैया बदलता दिख रहा है और यह, जैसा कि मैंने कहा, हमारे लिए अच्छा है.

नतीजे बड़े रोचक हैं, खासकर त्रिपुरा के. भारत संसार के उन अंतिम बड़े लोकतांत्रिक देशों में से एक है, जहां सक्रिय कम्युनिस्ट पार्टियों का अस्तित्व बचा है और काफी शक्तिहीन हो जाने के बाद भी वे हमारी राजनीतिक व्यवस्था में व्यापक रंगों और मूल्यों का योगदान देती हैं. हालांकि आज मैं कांग्रेस पर ही ध्यान केंद्रित रखूंगा. फरवरी में कुछ उपचुनाव जीतने के बाद कांग्रेस नेता सचिन पायलट ने कहा था, “राज्य जीतने के लिए आपको स्थानीय पालिका चुनाव, वार्ड चुनाव आदि जीतने पड़ते हैं. यह ऐसे चुनाव हैं, जो संगठन के लिए नींव की जमीन तैयार करते हैं. कोई भी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर नई दिल्ली को जीतने के बारे में तब तक नहीं सोच सकती, जब तक उसके पास अच्छी संख्या में राज्य ना हों.”

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राष्ट्रीय दलों के लिए राज्य जीतना क्यों जरूरी है? लोकल पावर का क्या महत्व है? यही सवाल है जिसका हमें जवाब ढूंढना होगा, क्योंकि आज कांग्रेस जितने राज्यों में सत्ता से बाहर है, उतनी इतिहास में पहले कभी नहीं रही. हो सकता है कि साल के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव के बाद स्थिति में कुछ बदलाव आए.

कांग्रेस को 2019 से पहले जी-जान से जुटना होगा

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए यह क्यों बहुत जरूरी है कि उनकी पार्टी 2019 से पहले अच्छा प्रदर्शन करके दिखाए? पहला फायदा तो बिल्कुल साफ हैः राजनीति सत्ता हासिल करने के लिए ही की जाती है. तभी पार्टी अपनी विचारधारा लागू कर सकती है और एजेंडा तय कर सकती है. उदाहरण के लिए बीजेपी हरियाणा और महाराष्ट्र में बीफ और गोहत्या पर पाबंदी लगाकर इसे महीनों राष्ट्रीय मुद्दा बनाए रख सकती है.

दूसरा फायदा- स्थानीय निकाय और राज्य विधानसभा में सत्तासीन होने से राजनेताओं को अपने मतदाताओं की सेवा करने का माध्यम मिल जाता है. ज्यादातर राजनेताओं के दिन की शुरुआत और दिन का अंत तरह-तरह की मिन्नतें करते लोगों से होता हैः बिजली कनेक्शन से लेकर बच्चों के दाखिले तक. जो पार्टी सत्ता में होगी, वही इन मांगों को पूरा कर सकती है, ना कि विपक्षी पार्टी.

तीसरा पहलू फंडिंग है. यह दो तरीकों से काम करता है. यह हकीकत है कि नेता अपनी पार्टी के लिए पैसा बनाते हैं, भले ही वो व्यक्तिगत रूप से भ्रष्ट ना हों तो भी. स्वर्गीय धीरेन भगत ने वीपी सिंह के बारे में लिखी अपनी किताब कनटेंपरेरी कंजरवेटिव में इस बारे में एक रोचक किस्से का जिक्र है. जगजाहिर कारणों से कॉरपोरेट जगत की ओर से आधिकारिक फंडिंग का बड़ा हिस्सा सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में ही जाएगा.

चौथा और इससे जुड़ा पहलू प्रत्याशियों द्वारा किया जाने वाला खर्च है. विपक्षी पार्टी से चुनाव लड़ रहा प्रत्याशी अपने चुनाव प्रचार पर उतना खर्च नहीं कर पाएगा. इस कारण वह बराबर की टक्कर नहीं दे पाएगा. पांचवीं बात यह कि जो पार्टी सत्ता में होगी, उसका संदेश पर अधिकार होगा. उदाहरण के लिए सरकार द्वारा विज्ञापन पर किए जाने वाले खर्च के माध्यम से. भारत में सबसे बड़ी विज्ञापनदाता केंद्र सरकार है. बीते साल इसने प्रधानमंत्री और उनकी योजनाओं के विज्ञापन पर 1,280 करोड़ रुपये खर्च किए.

Chhota Udaipur: Congress vice-president Rahul Gandhi greets party workers at a rally in Pavi Jetpur, Chhota Udaipur, on Friday ahead of the Gujarat Assembly elections. PTI Photo(PTI12_8_2017_000129B)

तुलनात्मक रूप से देखें तो हिंदुस्तान यूनिलिवर जो एक्स डिओडरेंट से लेकर लक्स साबुन और ताजमहल चाय तक हर चीज बनाती है, इसने 900 करोड़ रुपये खर्च किए. भारत की सभी टेलीकॉम कंपनियां मिलकर भी केंद्र सरकार से कम खर्च करती हैं. सभी राज्य सरकारें अपने पब्लिसिटी बजट का इस्तेमाल मुख्यतः आत्म-प्रचार के लिए करती हैं. अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार ने साल 2015 में प्रचार पर 526 करोड़ रुपये खर्च किए.

छठी बात यह कि इस बड़ी राशि के कारण मीडिया सत्तारूढ़ दल के पाले में रहता है. यह बात खासकर क्षेत्रीय अखबारों के लिए पूरी तरह सच है, जो कि सरकारी विज्ञापन पर बहुत ज्यादा निर्भर करते हैं. यही वजह थी कि 1.5 करोड़ की पाठक संख्या वाला भारत का छठा सबसे बड़ा अखबार राजस्थान पत्रिका सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया, क्योंकि वसुंधरा राजे सिंधिया ने इसे विज्ञापन देना बंद कर दिया था. (जाहिर है कि ऐसा सरकार के खिलाफ खबरें लिखे जाने के चलते किया गया)

सातवां और अंतिम कारण राज्य के प्रशासनिक तंत्र का इस्तेमाल करना है. चुनाव आयोग एक हद तक इस पर निगरानी रखता है, लेकिन यह सिर्फ चुनाव की घोषणा के बाद किया जाता है. बाकी पांच साल सत्तारूढ़ पार्टी पुलिस बल का इस्तेमाल कर सकती है, समर्थकों को पद दे सकती है और सरकार के बुनियादी ढांचे का उपयोग या दुरुपयोग कर सकती है. यह वो चीजें हैं जो दुनिया में हमारे हिस्से वाले ग्लोब में पार्टियों का पालन-पोषण करती हैं और उन्हें जिंदा रखती हैं. ऐसे में लगातार और नियमित रूप से लोकल पावर से पोषण हासिल किए बिना राहुल के लिए 2019 में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर पाना मुश्किल होगा.

 

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