साथ-साथ तो हैं पर कब तक रहेंगे पता नहीं

राजेश श्रीवास्तव

देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में इन दिनों सियासी दलों में बड़ा भूचाल आ गया है। केंद्र व देश के 22 राज्यों समेत उप्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध पूरा विपक्ष एक साथ लामबंद हो गया है। कभी एक-दूसरे के धुर-विरोधी रहे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी बात-बात पर एक-दूसरे को नसीहत, धन्यवाद, सीख और धन्यवाद देने से नहीं चूक रहे हैं। जबकि कभी इन दोनों दलों को ऊर्जा ही एक-दूसरे को कोसने से मिलती थी। दरअसल कहा जाता है कि जब सामने कोई बड़ा दुश्मन आ जाए तो सारे लोग एक साथ मिलकर मुकाबला करते हैं। उप्र में सारे सियासी दलों की कमोबेश यही स्थिति है। उप्र में बारी-बारी राज करने वाले सपा और बसपा दरअसल जानते हैं कि अगर उनको अपना वजूद बचाये रखना है तो उन्हें मिलकर ही भाजपा का मुकाबला करना पड़ेगा नहीं तो 2०19 में भी जीत का लड्डू दूर की कौड़ी होगा।

बहुजन समाज पार्टी को राज्यसभा में एक भी सांसद नहीं है जबकि सपा का एक ही राज्यसभा सांसद किसी तरह पहुंच सका है। ऐसे में उप्र में अगर अपना वजूद बनाये रखना है तो सब कुछ भूलकर एक साथ रहना होगा। अकेले सपा-बसपा ही क्यों बसपा सुप्रीमो मायावती तो कांग्रेस की तारीफ करते भी नहीं अघा रहीे हैं। उन्होंने शनिवार को आयोजित पत्रकार वार्ता में साफ कहा कि हम हमेशा ही कांग्रेस के साथ खड़े रहे हैं। जिस तरह से कांग्रेस के सातों विधायकों ने एक साथ जाकर बिना शर्त बसपा के उम्मीदवार को वोट किया उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।

कांग्रेस ने यूं ही नहीं अपने सभी विधायकों को विपक्ष के साथ खड़ा कर दिया। उसे भी पता है कि अब जब मुश्किल से चार-पांच प्रदेशों में उसका वजूद बचा है तो अपने को जिंदा रखने के लिए उसे इन छोटे दलों से समझौता करना होगा। सपा-बसपा को भी लगता है कि कांग्रेस को 1०-2० सीटें देकर वह कांग्रेस व रालोद को अपने पाले में खड़ा कर सकती है। दरअसल विपक्ष की कोशिश यह है कि वह भाजपा के खिलाफ पूरे सभी राजनीतिक दलों को बांधकर रख्ो तभी उसे सफलता मिल सकेगी। हालिया सियासी घटनाओं से इतना तो साफ हो गया है कि 2०19 में भारतीय जनता पार्टी को उप्र की सियासत में इन सभी विपक्षी दलों- कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल और निषाद पार्टी आदि से मिलकर मुकाबला करना होगा।

जनता भी समझ रही है कि पानी पी-पीकर एक-दूसरे को कोसने वाले सारे राजनीतिक दल अगर एक-दूसरे की पीठ थपथपा रहे हैं। एक-दूसरे के गुणगान कर रहे हैं। एक-दूसरे का साथ पाने को आतुर दिख रहे हैं। तो यह उनके पीछे की नेक भावना नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी का खौफ है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो यह साफ है कि 2०19 में भले ही यह सारे दल मिलकर चुनाव लड़ें और उन्हें सफलता मिल भी जाये तो यह बहुत लंबे रेस का घोड़ा नहीं साबित होने वाला है। क्योंकि दोनों दलों खासकर सपा-बसपा के राष्ट्रीय अध्यक्षों की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। जिन्हें छोड़ने में दोनों का अहम टकरायेगा। ऐसे में दोनों दल कितनी दूर तक साथ चलेंगे यह दूर की कौड़ी है। पर फिलहाल की सियासी परिस्थितियों ने परस्पर विरोधी धु्रवों के लोगों ने एक-दूसरे का हाथ तो थाम ही लिया है।

 

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