‘हम एक डिप्रेस्ड पीढ़ी तैयार कर रहे हैं’

तृप्ति शुक्ला

हमने सामाजिक तौर पर सामान्यता और श्रेष्ठता के कुछ पैमाने गढ़े। जो इन पैमानों से थोड़ा भी इधर-उधर हुए, उन्हें हमने असामान्य और निम्न घोषित कर दिया। मसलन- कोई स्त्री या पुरुष, बालक या बालिका के पैमाने पर फिट नहीं बैठा तो उसे हमने समाज से बेदखल कर दिया। कोई मानसिक अवस्था के पैमानों पर फिट नहीं बैठा तो हमने उसे पागल घोषित कर दिया। किसी स्त्री के हक की बात को हमने पुरुष होने के अधिकार के तहत खारिज कर दिया।

हमने खुद के हिंदू, मुस्लिम, ब्राह्मण, क्षत्रिय, भारतीय, गोरा, मानव और पुरुष होने पर गर्व किया, जबकि इनमें से कुछ भी हम अपनी चॉइस से नहीं बने। हमारे किसी खास धर्म या किसी खास कुल में जन्म लेने में हमारा ज़रा भी योगदान नहीं था। मगर हमने इस पर गर्व किया।
ज़रूरत थी इन पैमानों को चुनौती देने की, हमने दी भी। मगर चुनौती देने के लिए हमने खुद इन पैमानों के समकक्ष दूसरे पैमाने खड़े कर लिए। अब हम स्त्री होने पर गर्व करते हैं। हम गे या लेस्बियन होने पर गर्व करते हैं। हम दलित होने पर गर्व करते हैं। हम काले होने पर गर्व करते हैं। और तो और, हम अपने डिप्रेशन, अपने पीरियड्स पर भी गर्व करने लगे हैं।

जबकि इनमें से कुछ भी होना हमने खुद नहीं चुना। फिर क्या अंतर रह गया उन पैमानों में और इन पैमानों में? क्यों ज़रूरत पड़ती है ऐसी किसी भी चीज़ पर गर्व करने की जो हमने खुद नहीं कमाई?
ज़रूरत थी कि हम अपने अस्तित्व से जुड़ी किसी भी चीज़ पर शर्म न करें। ज़रूरत थी कि समाज भी हमें सामान्य रूप से अपनाए। ज़रूरत ये नहीं थी कि शोषकों की तरह शोषित भी अपनी बाय चांस मिली पहचान पर गर्व करने लगें।
आज की हालत ये है कि सुशांत की आत्महत्या के बाद उन्हें रीयल हीरो बनाने में जुटे लोगों की बातों से प्रभावित होकर दो बच्चे ऑलरेडी आत्महत्या कर चुके हैं। आगे जाने कितने और आत्महत्या कर सकते हैं।

मेरी पहचान के कुछ साइकॉलजिस्ट हैं। उनके पास ऐसे केस आते हैं जिनमें लोगों को लगता है कि वो डिप्रेस्ड हैं मगर असल में वो डिप्रेस्ड नहीं होते, बस थोड़े से दुखी होते हैं। लेकिन चूंकि डिप्रेशन समाज में एक नया कूल ट्रेंड बनकर उभर रहा है तो कुछ लोगों को लगने लगा है कि खुद को डिप्रेस्ड बताकर वो बहुत बहादुरी का काम कर रहे हैं। यहां मैं असल में डिप्रेस्ड लोगों की बात नहीं कर रही हूँ, इसलिए कृपया वो या उनके समर्थक आहत न हों। असल में डिप्रेस्ड लोगों को भी अपनी अवस्था पर गर्व करने की ज़रूरत नहीं है। उनको ज़रूरत है इलाज की और अपनी अवस्था को सामान्य अवस्था के तौर पर देखने की। क्योंकि थोड़े से मेंटल हम सब हैं। इसलिए या तो हम सब असामान्य हैं या हम सब सामान्य।

आप एलजीबीटीक्यू को ले लीजिए। इनमें से कुछ लोग जिस तरह अपने जेंडर को सामान्य न मानकर उस पर गर्व करते हैं, उसे फ्लॉन्ट करते हैं, उसे देखते हुए लगता है कि कल को आपका बच्चा भी ऐसे किसी जेंडर को अपनाना चाहेगा क्योंकि ऐसा होना कूल होना बनाया जा रहा है, इसे ट्रेंड में लाया जा रहा है। क्योंकि आपके बच्चे को नहीं पता कि जेंडर अक्वायर नहीं किया जाता, जेंडर होता है। क्योंकि आपको खुद नहीं पता कि जेंडर अक्वायर नहीं किया जाता, बल्कि वह होता है। ये ठीक वैसा ही है कि आप एलजीबीटीक्यू से स्ट्रेट मेल/फीमेल की तरह महसूस करने को कहें। अब सोचिए, कैसी परिस्थिति होगी वो।

आप महिलाओं को ले लीजिए। कई महिलाओं को लगता है कि उनको सिर्फ इसलिए इज्जत मिलनी चाहिए क्योंकि वो एक महिला हैं। अच्छी-खासी पढ़ी-लिखी महिलाएं, सिलेब्रिटी महिलाएं, इनको तक लगता है कि एक आदमी को सिर्फ इसलिए उनकी इज्जत करनी चाहिए क्योंकि वो औरत हैं। जब हम खुद ही खुद को एक इंसान के तौर पर नहीं, एक महिला के तौर पर देखते हैं, तो समाज हमें क्यों एक इंसान के तौर पर बराबरी का दर्जा देगा?

कोई डिप्रेस्ड है, कोई गे है, कोई महिला है, कोई काला है, कोई मोटा है, कोई बदसूरत है, उसे इस पर गर्व करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि ये सब हमने खुद नहीं चुना है। एक इंटरव्यू में प्रियंका चोपड़ा कहती हैं कि उन्हें अपने डस्की होने पर गर्व है। क्यों भाई? काला बनने में हमने कोई मेहनत नहीं की है। हम काले ही पैदा हुए थे।
हममें से किसी में भी हीरे नहीं जड़े हैं। हम अच्छे या बुरे, गर्व या शर्म करने लायक इस आधार पर हैं कि हमने एक इंसान के तौर पर खुद को कितना काबिल बनाया, किस तरह से मुश्किलों का सामना किया, न कि इस आधार पर कि हम इस दुनिया में किस रंग-रूप में आए थे।

(तृप्ति शुक्ला के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
 

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