मोदी और शाह के विजयरथ को रोकना है, तो विरोधियों को उन्हीं के ताकतों से सुसज्जित होना पड़ेगा

UPENDRA CHAUDHARY @upendra.chaudhary.7140

बीजेपी के पास मोदी और शाह जैसे दिन-रात काम करने वाले ग़ज़ब के जुझारू राजनीतिक नेता हैं, इनके जूझने की ठोस ज़मीन मुहैया कराता कार्यकर्ताओं का सैलाब वाला संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ है, इनमें समय रहते प्रभावी माध्यम का इस्तेमाल करने की दूरदृष्टि दिखती है, बीजेपी के पास जनता से सीधा संवाद स्थापित करता असरदार नेतृत्व है, राज्यों में भी पारंपरिक नेतृत्व को धता बताकर नये नेतृत्व के हाथों सत्ता सौंपने की दमदार कुव्वत है। अपने विरोधियों को अपने ही तैयार किये गये मुद्दों के मैदान में खींच ले आने का माद्दा है, राज्य-दर-राज्य होने वाले चुनावों से पहले ही वहां के चुनावों को लड़ने के लिए ज़मीनी इनपुट से लवरेज सक्षम रणनीति है। 

इतने मज़बूत पक्षों से सजी बीजेपी अगर चुनाव-दर-चुनाव अपनी जीत दर्ज कर रही है, तो इसमें हैरानी जैसी कोई बात नहीं दिखती है। जो लोग ये सोचते हैं कि शुचिता के बल पर राजनीति की जा सकती है, तो हैरानी इसी बात की होती है। शुचिता की राजनीति एक आदर्शवादी यूटोपिया है। हम सबके चारों तरफ़, परिवार से लेकर पूरे समाज तक में साम-दाम-दंड-भेद का ही वर्चस्व है। यह वर्चस्ववाद कभी लिंग, कभी रंग, कभी क्षेत्र, तो कभी धर्म के रास्ते अपनी दस्तक देता रहता है। ऐसा अनुभव शायद ही कभी किसी का रहा कि मूल्यों के साथ जीने वाले किसी शख़्स को परिवार, समाज या कहीं कोई समृद्ध जगह मिली हो।

मूल्यों की जयजयकार कथा-कहानियों में ही मिलती है। कथा-कहानियों के वे नायक असल में अपने लिए कोई महत्वाकांक्षा पालते नहीं दिखते हैं। bjpवास्तविक जीवन में जो जीतना शुचितावादी होता है, पीड़ा और परेशानियां उसके हिस्से ही ज़्यादा आती है। फिर राजनीति से शुचितावाद की अपेक्षा पाखंड जैसा दिखता है।

राष्ट्रीय आंदोलन के जिन महान पुरुषों को लेकर हम क़िस्से-कहानियों के ज़रिये उनकी महानता के गुण गाते-सुनते हैं, मौक़ा मिले तो सहजानन्द सरस्वती की आत्मकथा को पढ़ा जाना चाहिए, जिसमें उन्होंने कई महान राष्ट्रवादियों के पाखण्ड की पोल खोलकर रख दी है। जहां राजनीतिक महत्वाकांक्षा होगी, वहां पाखंड एक ज़रूरी शर्त होती है। मोदी और शाह के विजयरथ को रोकना है, तो उनके विरोधियों को उन्हीं ताकतों (पाखंड भी कह सकते है) से ख़ुद को सुसज्जित करना होगा। भारतीय राजनीति के निकट अतीत में भी हमने देखा है कि जो पार्टियां आज विपक्ष में बैठी हैं या उसके लायक़ भी नहीं रही हैं, वे भी उन्हीं पाखंड या ताक़त के बल पर ही सत्तारूढ़ होती रही थीं।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
 

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