सीरियाः अमेरिका-रूस-चीन के लिए त्रिकोणीय शीतयुद्ध के पावरप्ले का नया मैदान
अमेरिका और रूस के बीच संबंध सबसे खराब दौर से गुजर रहे हैं. शायद शीत युद्ध के वक्त से भी ज्यादा खराब अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप जब एक ट्वीट के जरिए दोनों देशों के खराब हो रहे रिश्तों की बात कहते हैं, तो वो शायद कुछ ज्यादा गलत नहीं कह रहे. पुराने शीतयुद्ध के खिलाड़ी पूर्व रूसी राष्ट्रपति गोर्बाचोव ने तो पिछले साल ही इस बात का अंदेशा जता दिया था कि अमेरिका और रूस के नेताओं का व्यवहार दुनिया को उसी मोड़ पर फिर ले जा रहा है, जहां से वो आगे निकल आई थी.
तो क्या आने वाले दिनों में आज का सीरिया संकट,1960 के क्यूबा संकट जैसी वो दहलीज पार कर सकता है, जिसके आगे शीतयुद्ध का चौराहा शुरु होता है.
16 अक्टूबर 1962 के तेरह दिन बाद तक दुनिया तीसरे विश्व युद्ध की आहट कान लगाए सुनती रही थी. आज सीरिया पर हमलों की धमकी के बाद दुनिया जहान के देशों की निगाह अमेरिका और रूस पर जैसे लगी है, उससे संकेत शीत युद्ध के ऐलान सरीखे मिल रहे हैं. क्योंकि परमाणु हथियारों का वजूद ही प्रत्यक्ष युद्ध की संभावना को ही नकार देता है.
सीरिया वैसे वर्ल्ड डिप्लोमेसी का प्लेग्राउंड एक अर्से से बना हुआ है. जहां रूस और अमेरिका अघोषित वॉरजोन में डिप्लोमेसी का पावर प्ले दिखा रहे हैं. लेकिन ब्रिटेन में पूर्व रूसी जासूस स्क्रिपाल की हत्या ने इस पावरप्ले के सेफ्टी वॉल्व को हटा दिया है.
अमेरिका और पश्चिमी देशों के रूसी राजनयिकों को निकालने की कहानी ने 1986 का वो वाक्या दोहरा दिया जब अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने 80 रूसी राजनयिकों को निकाल दिया था. यानि हवा में आशंका बनकर तैर रही सच्चाई अब जैसे ठोस धरातल पर है. अंदेशा है कि दुनिया फिर से कोल्ड वॉर की ओर बढ़ रही है. हालांकि इस बार खेल का मैदान और पाले बदले हुए हैं.
चीन ने इस कोल्ड वॉर को दिया है नया एंगल
शक्तियों के कई केंद्र हैं. चीन ने इस कोल्ड वॉर को नया त्रिकोणीय वॉर बना दिया है. ये अलग बात है कि इस त्रिकोण में रूस और चीन के कोण आपस में थोड़ा करीब है और सामने वाले छोर पर अमेरिका है.
रूस से अमेरिका को मिडिल ईस्ट और यूरोप में चुनौती रूस से मिल रही है, तो चीन ईस्ट एशिया में दिक्कतें पैदा कर रहा है. वहीं चीन और रूस दोनों अमेरिका को साऊथ और सेंट्रल एशिया में भी चुनौती दे रहे हैं. ट्रेड वॉर ने भी चीन को रुस के साथ वैसे ही ला खड़ा कर दिया.
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जाहिर है कूटनीति के इस खेल में खेल का मैदान और खिलाड़ियों का पाला बदला हुआ है. भारत भी कूटनीति के मैदान में खुद को नई जगह पा रहा है और इसीलिए उसे खेल के हिसाब से कदम बढ़ाने होंगे. दूर से देखने पर ऐसा लगता है कि भारत और पाकिस्तान का पाला जैसे बदल दिया गया है.
इसका सबसे ताजा नजारा दिखा ऑरगनाइजेश फॉर प्रोहिबिशन ऑफ केमिकल वेपन्स में वोटिंग के दौरान. जहां जासूसी मामले में रूस की साझा जांच की अपील के वोट में भारत ने एब्सटेन किया तो पाकिस्तान मॉस्को के पीछे मजबूती के साथ खड़ा दिखा. हालांकि एक सच्चाई ये भी है कि अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर रूस भी भारत के साथ अब वैसे खड़ा नहीं होता जैसे पहले होता था.
विदेश मामलों के जानकार सुशांत सरीन मानते हैं कि ‘इस समय हालात पहले से ज्यादा जटिल हैं. हमें तीन तरह के त्रिकोणीय संबंधों को लेकर विदेश नीति बनानी होगी. भारत, अमेरिका और रुस. भारत, चीन और अमेरिका और आखिर में भारत, चीन और रुस. शीत युद्ध खत्म हुए तीस साल हो गए लेकिन फिर से कोल्ड वॉर सरीखी कूटनीति का नया दौर शुरु हो गया है. हमें तीनों कोणों की तीनों शक्तियों को साथ लेकर चलना होगा. ये मुश्किल होगा.’
त्रिकोणीय शीतयुद्ध में भारत के लिए हालात होंगे मुश्किल
इसी महीने के शुरुआत में भारतीय रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण मॉस्को दौरे पर थीं, चर्चा जोरों पर थी कि एस-400 मिसाइल डील पर साइन हो जाएंगे. लेकिन डील को अक्टूबर में होने वाले पुतिन के भारत दौरे तक टाल दिया गया. सवाल उठे कि क्या इसके पीछे वो अमेरिकी दबाव है जो America’s Adversaries Through Sanctions Act के जरिए काम कर गया. क्या इसके जरिए भारत और रूस के दूसरे रणनीतिक समझौतों पर भी ब्रेक लग सकता है ?
इस बात में यकीन करने के लिए पेंटागन चीफ स्पोक्सपर्सन डाना डब्ल्यू व्हाइट का वो बयान अहम है जिसमें भारत पर बैन के सवाल का सीधा जवाब ना देते हुए कहती हैं कि ‘ऐसे फैसले देशों को खुद करने पड़ते हैं, भारत को भी ये फैसला खुद ही लेना है.’ हालांकि सुशांत सरीन मानते हैं कि ‘अभी ये मानने की कोई वजह नहीं कि एस-400 मिसाइल डील में अमेरिकी दबाव का कोई हाथ है, बहुत संभव है कि तकनीकी और वित्तीय वजहों से इसे टाला गया हो.’
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विदेश नीति पर निगाह रखने वाले भी मानते हैं कि इस नए त्रिकोणीय शीत युद्ध में भारत के लिए हालात चुनौती भरे होने वाले हैं. एशिया में चीन और पाकिस्तान के मुकाबले में भारत को एक बड़ी ताकत की तरह देखा जाता है. लेकिन जिस तरह रूस की पाकिस्तान और चीन के साथ नजदीकियां बढ़ रहीं हैं, वो आने वाले समय में भारत के लिए चुनौतियां बन सकता है. आज की कहानी अस्सी के दशक से अलग है, जब अफगानिस्तान में रूस के खिलाफ अमेरिकी लड़ाई पाकिस्तान के कंधे से लड़ी गई थी.
आज उसी अफगानिस्तान पर रूस और पाकिस्तान के सुर एक जैसे हैं. जनवरी में अमेरिका ने पाक की दो बिलियन की मिलिट्री मदद रोकी थी और उससे पहले एफएटीएफ का पाकिस्तान पर एक्शन. जाहिर है पाकिस्तान को अब रूस की पहले से ज्यादा जरुरत है. ऐसा उनके विदेश मंत्री भी ये कहकर जाहिर कर चुके हैं कि अब हम पश्चिम के बजाए चीन, रूस और तुर्की के साथ गठबंधन बनाने में ज्यादा उत्सुक हैं. हम पिछले सत्तर साल की अपनी फॉरेन पॉलिसी के असंतुलन को ठीक करना चाहते हैं.’
अब भारत नहीं पाकिस्तान के करीब हो रहा है रूस
2016 में पाकिस्तान और रुस की मिलिट्री एक्सरसाइज के बाद से ही दोनों देश करीब आ रहे हैं. दोनों देशों में 4 रशियन अटैक हेलीकॉप्टर्स के साथ- साथ जेएफ-17 के लिए इंजन खरीदे जाने को लेकर सहमति बनी है.
फरवरी में ही रूस ने पाकिस्तान के उत्तरी खैबर पख्तून में एक काउंसुल की भी नियुक्ति की है. ये वो जगह है जहां रूस की ओर से तेल रिफाइनरी और पावर स्टेशन बनाने की योजना है. इसके अलावा लाहौर से कराची पोर्ट तक एक गैस पाइपलाइन भी रूस की मदद से ही बनाई जाएगी. 1970 के बाद से रूस की ओर से पाकिस्तान में बनाया सबसे बड़ा प्रोजेक्ट होगा. सुशांत सरीन कहते हैं ‘रूस का पाकिस्तान के करीब आना बिल्कुल अच्छी खबर नहीं है, हमें ये देखना होगा कि ऐसा ना हो पाए.’ जाहिर है हमारी विदेश नीति के लिए ये बड़ी चुनौती होगी. पड़ोस से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक यही करना होगा.
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पिछले दिनों चीनी रक्षा मंत्री वाई फेनघे मॉस्को में थे. वहां आकर उन्होंने कहा कि ‘हम अमेरिकियों को दिखा रहे हैं कि दोनों देश कितने करीब हैं.’ रूस और चीन की दोस्ती भी काफी पुरानी नहीं. हां वो वक्त अलग था जब शीत युद्ध के दौरान दोनों देशों के बीच इतना अविश्वास था कि अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किंसिंजर को मध्यस्थ का काम करना पड़ा था. आज बात अलग है. क्रीमिया संकट के दौरान जब रूस पर आर्थिक बैन लगा तो चीन मॉस्को के समर्थन में आ गया. आज उत्तर कोरिया और सीरिया जैसे अहम मुद्दों पर दोनों एक ही सुर में बात करते हैं. साफ है पुराने पुरानी कोल्ड वॉर डिप्लोमेसी आज के वक्त से बेहद जुदा होगी.
जानकार मानते हैं कि अमेरिका का एजेंडा साफ है, भारत जिओपॉलिटिक्स के हिसाब से उसके लिए जरुरी है.
अमेरिकी रणनीति की ये चाल एक लिहाज से भारत को एशिया में चीन-रुस-पाकिस्तान के सामने अलग थलग कर सती है. लेकिन भारत को कूटनीति की इस कंटीली राह में संभल- संभल कर पैर रखना होगा. शायद वक्त ‘प्रैगमैटिक’ विदेश नीति की ओर लौटने का है. शीत युद्ध के आखिरी सालों में रीगन के कार्यकाल में राजीव गांधी के अमेरिकी दौरे के साथ इस नीति की शुरुआत माना जाता है. यानि ऐसी नीति जिसमें देश हित सबसे पहले हो और गुटनिरपेक्ष छवि के साथ -साथ व्यवहारिकता का दामन पकड़े तलवार की धार पर संतुलन बनाकर चलना होगा.
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