CJI पर महाभियोग: सिब्बल और कांग्रेस की ज्यूडिशियरी को कमजोर करने की कोशिश नाकाम

बी वी राव 

भारत में हम दशकों से यही जानते आए हैं कि सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जज के खिलाफ महाभियोग चलाना सबसे मुश्किल काम है. न्यायाधीशों को तयशुदा कार्यकाल देकर और उन्हें पद से हटाने को कमोबेश नामुमकिन बनाकर हमारे संविधान ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित बनाने का सबसे अहम काम किया था.

पिछले 71 सालों में किसी भी जज के खिलाफ संसद में अनैतिकता या गलत बर्ताव के लिए महाभियोग चलाने की एक भी मिसाल नहीं मिलती है. हालांकि कई जजों के मामले में ऐसे हालात बन गए थे कि उनके खिलाफ महाभियोग चलता. इससे इस बात पर हमारा यकीन और बढ़ गया कि हमारे देश की न्यायपालिका, खास तौर से उच्च न्यायिक पदों को सरकार के दमन और सियासी दलों की साजिशों से बचाने के पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम हैं.

न्यायपालिका पर हमला

इस भरोसे को मंगलवार को कपिल सिब्बल और उनकी पार्टी की तरफ से तोड़ने की कोशिश हुई. जब हमारा पूरा ध्यान सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम और एनडीए की सरकार के बीच झगड़े पर लगा हुआ था, तभी न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर ऐसा ही जहरीला हमला सरकार के बजाय विपक्ष और खास तौर से कांग्रेस ने किया.

मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में कांग्रेस के सांसद कपिल सिब्बल, जो कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग की मुहिम के अगुवा हैं, ने ऐसी प्रक्रिया की शुरुआत की, जिससे न्यायपालिका को स्वतंत्र बनाए रखने के सुरक्षा कवच को तोड़ने की कोशिश थी. इसके जरिए कुछ अधकचरे आरोपों के आधार और केवल 65 दस्तखतों की बुनियाद पर चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग को आसान बनाने की कोशिश की गई.

नायडु ने कहा था- आरोप लगाने वालों को ही इनकी सच्चाई में भरोसा नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने कपिल सिब्बल की याचिका को खारिज कर दिया. वहीं कांग्रेस नेता सिब्बल ने दावा किया कि उन्होंने खुद ही याचिका को वापस ले लिया. इससे पहले राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने सिब्बल और दूसरे सांसदों की तरफ से आए महाभियोग के नोटिस को खारिज कर दिया था. नायडू ने इसे खारिज करने का जो आधार दिया था, उसके मुताबिक जस्टिस मिश्रा पर ये सिर्फ आरोप हैं. और खुद आरोप लगाने वालों को ही इस बात का पूरा भरोसा नहीं है कि वो सच हैं.

लेकिन, एक गंभीर संवैधानिक प्रक्रिया को ओछा बनाने पर आमादा कपिल सिब्बल इतने पर भी नहीं माने. जब कांग्रेस के दो सांसदों पंजाब के प्रताप सिंह बाजवा और अमी हर्षाद्रय याग्निक ने राज्यसभा के सभापति के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, तो, सिब्बल ने उनकी तरफ से कोर्ट में बहस की.

सोमवार को कपिल सिब्बल ने कोर्ट में याचिका का जिक्र करते हुए कहा कि राज्यसभा के सभापति ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर प्रस्ताव को खारिज करने का निर्णय दिया है, जबकि कानूनन उन्हें महाभियोग के नोटिस को एक कमेटी को भेज देना चाहिए था, जो ये जांच करती कि जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ आरोपों में कितनी सच्चाई है.

क्या कहता है जजेस इन्क्वायरी एक्ट, 1968 

असल में कपिल सिब्बल महाभियोग की पूरी प्रक्रिया की बुनियादी ईंट हटाकर न्यायिक सुरक्षा के मजबूत किले को ही ढहाने की कोशिश कर रहे थे. वो चाहते थे कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ये फैसला दे कि जब 50 सांसद लिखित रूप में अर्जी दें, तो, जजेस इन्क्वायरी एक्ट 1968 की धारा 3 (2) अपने आप अमल में आ जाए और जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हो जाए. जजेस इन्क्वायरी एक्ट 1968 की धारा 3 (2) ये कहती है कि लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति (जिस भी सदन में महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस दिया जाए) को एक कमेटी बनानी चाहिए, जो ये जांच करे कि जिस जज को हटाने की मांग की जा रही है, उसके खिलाफ लगे आरोप कितने सही हैं.

इस एक्ट का सेक्शन 3 (3) ये कहता है कि जब कमेटी का गठन हो जाए, तो, ‘कमेटी जज के खिलाफ आरोप तय करे, जिसकी बुनियाद पर जांच की मांग की जा रही है’. वहीं इस एक्ट की धारा 3 (4) के मुताबिक ये कमेटी जज को उसके खिलाफ लगे आरोपों की जानकारी देगी और उसे अपने बचाव में लिखित रूप से बयान देने का उचित मौका देगी.

लेकिन, ऐसा लगता है कि चीफ जस्टिस के पद और संवैधानिक संस्था के तौर पर सुप्रीम कोर्ट को नीचा दिखाने के अति उत्साह से भरे कपिल सिब्बल के लिए, जजेस इन्क्वायरी एक्ट के सेक्शन 3 (2,3 और 4) से पहले आने वाली धारा 3 (1) मायने ही नहीं रखती. एक्ट की ये धारा साफ करती है कि पीठासीन अधिकारी सिर्फ़ डाकिया नहीं है, जो सांसदों के नोटिस को जांच कमेटी के पास पहुंचा दे.

जजेस इन्क्वायरी एक्ट 1968 की धारा 3 (1) पीठासीन अधिकारी के अधिकार के बारे मे स्पष्ट रूप से कहती है कि अगर जज को हटाने का प्रस्ताव अपनी बुनियादी शर्त (यानी लोकसभा में 100 सांसदों के समर्थन और राज्यसभा में 50 सांसदों के समर्थन) को पूरा करता है, ‘तब लोकसभा स्पीकर या राज्यसभा के सभापति, जिन लोगों से उचित समझते हों, उनसे सलाह-मशविरे के बाद और अगर कोई साक्ष्य उपलब्ध कराए गए हों, तो उनके आधार पर या तो प्रस्ताव को स्वीकार कर सकते हैं, या स्वीकार करने से इनकार कर सकते हैं’.

आप इन शब्दों पर खास तौर से ध्यान दीजिए, ‘या तो प्रस्ताव स्वीकार कर सकते हैं या फिर उसे अस्वीकार कर सकते हैं’. यानी कानून में साफ तौर से इस बात को बताया गया है कि पीठासीन अधिकारी के पास ये अधिकार है कि वो उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों के आधार पर जज के खिलाफ महाभियोग के नोटिस को या तो स्वीकार कर सकता है, या अस्वीकार कर सकता है.

यहां तक कि जज के खिलाफ लगे आरोपों की जांच के लिए कमेटी बनाने की बात करने वाला सेक्शन 3 (2) इन शब्दों के साथ शुरू होता है, ‘अगर उप धारा (1) के तहत दिया गया नोटिस मंजूर होता है, तो…’. साफ है कि कमेटी के गठन की बात इस शर्त पर आधारित है कि, ‘अगर नोटिस स्वीकार किया जाता है, तो…’.

यानी जज के खिलाफ आरोपों की जांच के लिए कमेटी तभी बनेगी, जब पीठासीन अधिकारी महाभियोग के प्रस्ताव की नोटिस को स्वीकार करते हैं. लेकिन कानून के बड़े जानकार कपिल सिब्बल ये तर्क दे रहे हैं कि नोटिस देते ही जज के खिलाफ कमेटी बना दी जाए, क्योंकि केवल कमेटी के पास ही जज पर लगे आरोपों की जांच और उनकी तस्दीक करने का अधिकार है. सदन के पीठासीन अधिकारी के पास ये अधिकार नहीं है.

याचिका मंजूर होने पर सिब्बल की ये ख्वाहिश पूरी हो जाती

वकीलों के बारे में ये सबको पता है कि वो कानून की खामियों और कमजोरियों के इर्द-गिर्द अपना पेशा चलाते हैं और तर्क देते हैं. लेकिन, यहां कपिल सिब्बल कानून में वो दरार बनाने पर आमादा थे, जो है ही नहीं. क्योंकि अगर सुप्रीम कोर्ट ने उनके तर्क को वाकई मान लिया होता, और मामले को जांच कमेटी के पास भेजने का फैसला दे दिया होता, तो होता ये कि अपने बाकी के कार्यकाल के दौरान चीफ जस्टिस को खाली बैठने को मजबूर होना होता (चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा 2 अक्टूबर को रिटायर हो रहे हैं). जिन अहम मुकदमों की सुनवाई चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा कर रहे हैं, वो मामले ठप पड़ जाते. और उनमें से कम से कम एक मुकदमा, राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का ऐसा है, जिसे लेकर कपिल सिब्बल की ख्वाहिश ये है कि सुनवाई 2019 के चुनाव तक टल जाए, वो ख्वाहिश पूरी हो जाती.

ये न्यायपालिका की आजादी पर छापामार हमला होता. अगर संसद के सदनों के पीठासीन अधिकारी का जजों के खिलाफ महाभियोग के नोटिस को अस्वीकार करने का अधिकार नष्ट कर दिया जाता, तो जज के खिलाफ महाभियोग इतना आसान होता कि राजनेताओं को किसी भी जज को हटाने के लिए महज कुछ आरोपों और 65 सांसदों के दस्तखत जुटाने भर की जरूरत पड़ती.

इस याचिका के लिए सिर्फ एक जगह मुफीद है, वो है सुप्रीम कोर्ट का कचरे का डिब्बा. अच्छी बात है कि याचिका उसकी सही जगह पर डाल दिया गया.

 

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