भगत सिंह की ज़िंदगी के वे आख़िरी 12 घंटे…

लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च, 1931 की शुरुआत किसी और दिन की तरह ही हुई थी, फ़र्क सिर्फ़ इतना सा था कि सुबह-सुबह ज़ोर की आंधी आई थी।

लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च, 1931 की शुरुआत किसी और दिन की तरह ही हुई थी, फ़र्क सिर्फ़ इतना सा था कि सुबह-सुबह ज़ोर की आंधी आई थी। लेकिन जेल के क़ैदियों को थोड़ा अजीब सा लगा जब चार बजे ही वॉर्डेन चरत सिंह ने उनसे आकर कहा कि वो अपनी-अपनी कोठरियों में चले जाएं। उन्होंने कारण नहीं बताया।

उनके मुंह से सिर्फ़ ये निकला कि आदेश ऊपर से है। अभी क़ैदी सोच ही रहे थे कि माजरा क्या है, जेल का नाई बरकत हर कमरे के सामने से फुसफुसाते हुए गुज़रा कि आज रात भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी जाने वाली है।

उस क्षण की निश्चिंतता ने उनको झकझोर कर रख दिया। क़ैदियों ने बरकत से मनुहार की कि वो फांसी के बाद भगत सिंह की कोई भी चीज़ जैसे पेन, कंघा या घड़ी उन्हें लाकर दें ताकि वो अपने पोते-पोतियों को बता सकें कि कभी वो भी भगत सिंह के साथ जेल में बंद थे।

 

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