…….तो अखिलेश के पापों का फल भुगत रहे हैं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ

लखनऊ। योगी की सरकार के बारे में लोगों के सुर अब बदल रहे हैं। कानून और व्यवस्था की बदहाली और प्रशासनिक तत्र के योगी के आदेशों की उपेक्षा जैसी स्थिति से लोगों की नाराजगी बढ रही है। दो महीने तक देश में मोदी और प्रदेश में योगी कहने वाले लोग भी अब यह सवाल उठा रहे हैं कि अखिलेश यादव और योगी आदित्य नाथ की सरकार में अब फर्क ही क्या रह गया है? इस सरकार में भी पहले जैसी ही दुस्साहसिक गैंगरेप की घटनाएं हो रही हैं और सपाई गुडों की ही तरह भाजपाई गुंडे भी सरेआम नंगई कर रहे हैं।

सूबे की बद से बदतर होती जा रही कानून और व्यवस्था की बदहाल स्थिति, प्रशासनिक तंत्र का बेलगाम होयने सहित दूसरी और भी तमाम ऐसी खामियां हैं, जिनकी वजह से यह सरकार विपक्ष के निशाने पर है। सूबे के आम आवाम की भी नाराजगी बढती जा रही है। ऐसे में विपक्ष ही क्यों? स्वयं भाजपा के विधायकों का भी गुस्सा कम नहीं है। स्वयं योगी की कर्मभूमि गोरखपुर सदर से भाजपा विधायक डा0 राधामोहन दास अग्रवाल इसी गुस्से को लेकर चर्चा में आ चुके हैं। ऐसे में विपक्ष भी योगी सरकार पर चुन चुन तीर चष्ला रहा है। आज सुबह ही शिवसेना ने अखिलेश सरकार जैसी ही योगी सरकार को भी बता दिया है।

ऐसे में विपक्ष की बात दरकिनार, गोरखपुर नगर से भाजपा के विधायक  डा0 राधामोहन दास अग्रवाल ने भी खुद अपनी ही सरकार को कटघरे में खडा कर दिया है। इनका आरोप है कि सरकार बदल गयी है, लेकिन प्रशासनिक तंत्र का रवैया एकदम पहले जैसा ही है। इस सरकार में भी पुलिस और शराब माफियाओं का गैंग बन गया है। पुलिस के संरक्षण में ही अवैध शराब धडल्ले से बन और बिक रही है। इसके विरोध में इन्होंने नगर में गांधी प्रतिमा के नीचे बैठकर चार घंटे तक प्रदर्शन भी किया है। इनकी बातों को यूंह हवा में नहीं उडाया जा सकता है। इसमें बहुत दम है। आम आदमी भी  कानून और व्यवस्था की बदतर हो जा रही स्थिति से नाराज है।

क्यों है ऐसा? ‘इंडिया संवाद‘ को इस जलते सवाल की तह में जाने से पता चला है कि इसकी दो ही खास वजहें हो सकती है। पहला मंुख्य मंत्री योगी में प्रशासनिक अनुभव का न होना और दूसरा अखिलेश यादव की सरकार में बोयी गयी फसल को ही काटने की योगी सरकार की विवशता।

निस्संदेह, योगी में भी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की ही तरह अपार ऊर्जा है। चरित्र भी पूर्ण पारदर्शी है और इनमें कम समय में ही बहुत कुछ कर दिखाने का अद्भुत और असाधारण उत्साह भी है। लेकिन, नरेंद्र मोदी कई बार गुजरात के मुख्य मंत्री और तीन सालों से देश के प्रधान मंत्री भी है। इसके विपरीत योगी पिछले 25 सालों से सिर्फ सांसद ही रहकर विपक्ष की तरह अपनी आवाज  बुलंद करते चले आ रहे है।

यही वजह है कि अपने संतचरिख के कारण उन्होंने काफी समय तक पूर्व मुख्य मंत्री रहे अखिलेश यादव के विश्वासपात्र कहे जाने वाले प्रदेश के डीजीपी, गृह सचिव जैसे अनेक शीर्ष अधिकारियों को अभी तक उसी पद पर बने रहकर काम करने का अवसर दे रहे थे। मुख्य सचिव राहुल भटनागर आज भी अपने पद पर बने हुए हैं। क्या इनकी वैसी ही आस्था मुख्य मंत्री योगी  पर भी हो सकती है? यदि होती तो हाल ही में पेट्रोल पंपों पर डाले गये छापों के बाद यह जाने अनजाने ऐसा विवादित निर्णय कभी भी न लेते, जिसके कारण कल ही इलाहाबाद हाइकोर्ट के सामने तलब किये जाने के बाद कोर्ट के सवालों का माकूल जवाब न दे पाने के कारण इन्हें पसीना पसीना होना पडा था।

लगता है कि अपनी सरकार की इतनी आलोचना सुनने के बाद अब मुख्य मंत्री योगी आदित्य नाथ का यह भ्रम दूर हो गया होगा कि सरकार को चलाने वह स्वयं ही बहुत काफी हैं। उन्हें इस बात का ध्यान नहीं रहा कि सरकार को चलाने वाले तो नौकरशाह ही होते हैं। स्वयं मुख्य मंत्री नहीं। वह तो केवल नीतिनिर्धारण कर निर्देशकारी घटक होता है। अपने निर्देशों के अनुपालन की वह समीक्षा भर कर सकता है। संभवतः इसी के मद्देनजर योगी अभी तक संजय भूसरेड्डी जैसे अत्यंत पारदर्शी चरित्र के सख्त मिजाज के दूसरे नौकरशाहों को अपनी सरकार में नहीं शामिल करा सके हैं। यह वहीं भूसरेड्डी हैं, जो मायावती सरकार में प्रदेश के परिवहन विभाग के प्रबंध निदेशक रहे हैं, जिन्हे तत्कालीन सरकार के एक अत्यंत आपत्तिजनक आदेश का अनुपालन करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करने पर रातोरात हटाकर नितांत महत्वहीन पद पर आसीन कर दिया गया था।

अब चर्चा इस बात की कि योगी सरकार को अपनी विवशता के ही कारण पूर्ववर्ती सरकार के समय में ही बोई गयी फसल को काटना पड रहा है। इस संबंध में नीति आयोग के उपाध्यक्ष डा0 अरविंद पानगडिया ने इशारों में ही पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार को ही कटघरे में खडा किया है। इनका कहना है कि केंद्र से हर क्षेत्र में सहायता पाने के बावजमद उत्तर प्रदेश विकास सहित दूसरे तमाम महत्वपूर्ण मोर्चों पर बहुत पिछडा हुआ है। यह बात उन्होंने हवाहवाई के तौर पर अथवा पूर्ववर्ती सरकार की आलोचना के इरादे से नहीं कही है। इसके लिये उन्होनें  इशारों में ही कहा है कि प्रदेश में गवर्नेस नाम की कोई चीज ही नही रह गयी है। कृषि, सडक, शिक्षा, चिकित्सा और ग्रामीण विकास  से संबंधित तमाम प्रामाणिक दस्तावेज और आंकडे भी प्रस्तुत किये हैं।

नीति आयोग के उपाध्यक्ष से जुडे एक करीबी सूत्र ने‘इंडिया संवाद‘से बात करते हुए कहा कि आयोग ने प्रदेश के विकास से जुडे हर मुद्दे का बडा गहन अध्ययान किया है। इसीलिये आयोग ने सबसे पहले पिछली सरकार में शिक्षा के क्षेत्र में हुई गडबडियो का उल्लेख किया है। इनका कहना है कि पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश की परीक्षाओं में खूब धुआधार नकल होती रही है। इससे शिक्षा का स्तर गिरकर शून्य पर आ गया है। स्कूलों में शिक्षकों की अनुपस्थित की अत्यंत चिंताजनक स्थिति रही है। इस दयनीय स्थिति से उबरने के लिये एक ही उपाय कारगर जान पड रही है। अब सभी स्तर की परीक्षाओं में परीक्षाओं में नियमित रूप् से परीक्षाएं अनिवार्य कर देनी  चाहिये। शैक्षणिक स्तर में सुधार के लिये प्रारंभिक स्तर पर ही नींव को मजबूत बनाना बहुत आवश्यक है।

डा0 पानगडिया ने चिकित्सा के क्षेत्र में हुई अधोगति की चर्चा करते हुए कहा है कि प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में डाक्अर तो हैं, लेकिन वे गांवों में जाकर अपनी संवाएं नहीं देना चाहते हैं। इसी तरह प्रदेश में प्रधान मंत्री कृषि योजना को लागू हुए दो साल बीत गये हैं। लेकिन, इसमें भी एक नये पैसे तक का काम नहीं हुआ है। मृदा स्वास्थ्य कार्ड देने में उत्तर प्रदेश देश मे सबसे पिछडा हुआ राज्य है। गांवों में बनायी गई सडकों पर निर्धारित मानकों की इस हद तक उपेक्षा की गयी है कि बनते ही वे उखडने लगती हैं। प्रदेश की सिंचाई व्यवस्था के लिये केंद्र ने सबसे ज्यादा पैसा दिया है। लेकिन, उसकी बदहाली पर हर किसान को रोना आता है। जापान और सिंगापुर जैसे विकसित देशों ने उद्योगों से पहले खेती के विकास पर ध्यान दिया है।

 

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